Friday, October 24, 2014



यादो के गलियारे में कुछ फूल, कुछ खुशबुएं
गीताश्री

महंथ दर्शन दास महिला कालेज, अस्सी का दशक।
रात के हंगामे के बाद सुबह सुबह होस्टल जैसे शांत पड़ा था। भीतर भीतर हलचल सी थी। हल्का सा खौफ, गुस्सा और आशंकाएं भी कि आज रात फिर न कहीं वही घटना घट जाए। वह दहशत की सुबह थी और मैं इस दहशत से मुक्त थी क्योंकि मेरे होस्टल में नहीं, दूसरे होस्टल में घटी थी, वह होस्टल ज्यादा खुला था। हम बंद बिल्डिंग में रहते थे। चारो तरफ से बंद, परिंदा भी रात में पर नहीं मार सकता था। प्रिंसेस होस्टल रेलवे लाइन के ज्यादा करीब था और उसकी चहारदीवारी तरप कर कोई भी असामाजिक तत्व के घुसने की संभावना थी। कभी ऐसा घटा नहीं था। उस रात घट गया। वह चोर था या गुंडा मवाली, पता नहीं पर चहारदीवारी फांद कर अंदर घुस चुका था। घुसा और पकड़ा गया। चीख पुकार मची, गार्ड और चपरासी दौड़े आए, वार्डन आईं, पुलिस आई, खूब मार पिटाई हुई, जेल गया। रात भर होस्टल में यह दहशत रही कि कहीं उसका दूसरा साथी यही कहीं छिपा तो न। दहशत की सुबह हुई और शोर मच गया..प्रिंसिपल दी आ रही हैं..ललिता दी आ रही है..। सुबह सुबह ही भगदड़ सा माहौल कि ललिता सिंह दी के सामने कौन जाएगा..कौन उन्हें घटना स्थल तक ले जाएगा। वार्डन तो साथ रहेंगी पर किसी नेता टाइप, साहसी लड़की को भी साथ होना चाहिए ना। अप्रैल की धूप बहुत कड़ी थी। मैं अपने होस्टल के बाहर ललिता  दी के इंतजार में खड़ी थी। मैं उनके साथ होना चाहती थी। वह लेडी, जिसे मैं अब तक दूर से देखा करती थी, जिनकी सुंदरता की मैं कायल थी, जिनकी चाल राजसी थी और जो कालेज में घुसती थी तब सारा कोलाहल थम सा जाता था। जो जहां हैं, कुछ पल के लिए वहीं ठिठक जाता था। हमारी निगाहे उनकी तरफ चोरी से उठती थी, वे गेट पर उतर कर सीधे पैदल चलती हुई अपने चेंबर तक जाती थीं। सफेद झक्क साड़ी, पले बार्डर वाली। सीधा पल्लू । हमें किसी फिल्म की नायिका जैसी लगती थीं। जिसे बार बार देखने का मन हो। हम गांव कस्बो से निकल कर आईं लड़कियां उनके इन राजसी ठाठ को सिहा सिहा कर देखा करती थीं और एक दिन खुद उनकी तरह बन जाने का सपना देखा करती थीं। वही ललिता दी होस्टल में आ रही थीं, घटना को समझने के लिए। लड़कियों का मनोबल, हिम्मत बढाने के लिए। सुरक्षा इंतजाम का जायजा लेने कि लिए। वह होस्टल के दौरे पर कम आयी थीं। उन्हें अपने वार्डन पर भरोसा था। इस तरह की घटना ने उन्हें विवश किया कि वे होस्टल का दौरा करें। अपने उसी राजसी चाल ढाल में, चपल गति से चलती हुईं ललिता दी आ रही थीं और उनके साथ कई प्रोफेसर, लड़कियां। मैं होस्टल के बाहर छतरी लेकर खड़ी थी। जैसे ही वे पास आईं, मैंने छतरी खोल कर उनके साथ हो ली। पूरे दौरे में मैं उनके साथ साथ, बाकी सब आगे पीछे। वार्डन उन्हें ब्रीफ कर रही थीं। गार्ड सब समझा रहा था। वे चारो तरफ जायजा ले रही थीं। मैं लगातार उनके साथ, उनके सिर पर छाता टांगे हुए। जैसे कोई महारानी के साथ चंवर लिए दासिया चलती हैं..। मैं आहलाद से भरी थी। धूप कड़ी थी। अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया, वे मेरी तरफ मुड़ी, हाथ बढा कर मुझे छाते के नीचे खींच लिया।
इधर आओ...तुम्हे धूप नहीं लग रही है क्या..हम दोनों इसमें आ जाएंगे..डरो नहीं..आओ..
एक छाते के नीचे आधे आधे धूप से बचते बचाते चलते रहे। बीच बीच में वे मुस्कुरा कर रात के बारे में पूछती और मैं जवाब देती, थोडी सहमी सहमी सी। हम सब पर ललिता दी का इतना दबदबा था कि हम बहुत ऊंची आवाज में बात नहीं कर सकते थे। कुछ लडकियों की फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी थी..पक्की चमची है..। मैंने झटक दिया। दिलजलो की परवाह न करना, बकवासो को अनसुना करना मैंने उसी दिन सीखा। मैंने कईयो की आंखों में अपने प्रति ईर्ष्या भाव भी देखा, हाय हाय हम क्यों न हुए टाइप चेहरे पर भाव आ जा रहे थे। मुझे परवाह नहीं, उसस वक्त मैं उस वक्त अलग मनोदशा में थी, वह उस वक्त का सबसे सुंदर पल था। जो मुझे नसीब से मिला था। मैं इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दे सकती थी, मुझे उनकी निकटता का अहसास लेना था। मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण की एक और वजह थी जिसे मैं आगे बताऊंगी।
उस दिन के बाद से ललिता दी मुझे पहचान गई थीं। चलते चलते उन्होने मुझसे नाम और क्लास पूछा था जो उन्हें तब तक याद रहा, जब तक मैं वहां से पढ कर निकली नहीं। फिर तो वे हर आयोजन से पहले एक बार जरुर बुलाती थी। चाहे आनंद मेले का आयोजन हो या वार्षिक खेलकूद का आयोजन। सालाना जलसा हो या 15 अगस्त, 26 जनवरी की तैयारी। भव्य आयोजन में काम करने करवाने के लिए वोलेंटियर की जरुरत हो। अपने चेंबर में बुलाती और डिस्कस करतीं। वहां पहले से कई प्रोफेसर बैठी होती थीं, हम खड़े खड़े उनका निर्देश सुनते और काम पर लग जाते। काम के प्रति जिम्मेदारियों का अहसास ललिता दी की वजह से ही हुआ, उनका भरोसा और आत्मीयता बढती जा रही थी धीरे धीरे।
सच तो यह था कि एक बार कालेज के सालान फंक्शन के लिए मेरे समेत कुछ लड़कियों का चयन हुआ था एक खास गीत गाने के लिए। हम धुन में गाते थे।
अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक के सात कवियों में से एक महत्वपूर्ण कवि मदन वात्स्यायन का गीत था...गोरी मेरी गेंहुअन सांप, महुर धर रे...। बीच की लाइन थी..लहरे गात वात मद लहरे...गोरी मेरी गेंहुअन सांप...। ठीक से पंक्तियां याद नहीं आ रही हैं। कुछ ऐसी ही थीं। स्मृतियों के सहारे लिख रही हूं। इस गीत को फिर से गाने की ललक पैदा हो रही है, क्योंकि यह गीत मुझे ललिता दी की याद दिलाता है। हमें पता चल गया था कि गीतकार ललिता दी के पति हैं। अब तक हम जानते थे कि उनके पति लक्ष्मी निवास सिंह सिंदरी में इंजीनियर हैं। वे इतने बड़े कवि हैं, ये कहां पता था। मेरे भीतर तब तक काव्य चेतना जाग चुकी थी। हिंदी साहित्य प्रिय विषय था सो कविता को अपनी समूची इंद्रियों से महसूस कर सकती थी।
मैं ललिता दी के आने का समय जान गई थी। वे समय की इतनी पाबंद थी कि वह पाबंदी मेरे भीतर आज भी है। मैं समय से पहले पहुंच सकती हूं, देर पहुंचने पर बहुत शर्मिंदगी होती है। इसलिए मैं समय से पहले स्थल पर पहुंच कर कई बार अकेले इंतजार कर सकती हूं। ललिता दी समय पर आती तो जैसे कालेज में सनसनी सी फैल जाती। मैं क्लास में बैठी रहूं तो भी पता चल जाता था कि वे आ गई हैं। क्लास का माहौल भी बदल जाता था। क्या पता, किधर धमक जाएं। पर वे धमकती नहीं थी। मैं उन्हें जाते हुए टकटकी लगाए देखा करती और उनके उज्जवल धवल रुप पर मुग्ध हो जाया करती थी।
कभी किसी से कहा नहीं, आज कह पा रही हूं कि वह गीत गुनगुनाते हुए मैंने, ललिता दी की तरफ कई बार गौर से देखा और उसके बिंबो पर गौर किया...जब वे चलती थीं तो मुझे लगता वे लहरा रही हैं...लहरे गात वात मद लहरे...जैसे कोई हवा अपने मद में लहरा रही हो। ललिता दी के चेहरे का तेज देखती तो मेरे भीतर का अंधेरा खत्म होने लगता था। शायद उनके रुप से प्रभावित होकर सौंदर्य की तुलना गेहुंमन सांप से की गई हो। रुपसी नायिका के सौंदर्य़ बखान से भरा था वह गीत। कवि जरुर ललिता दी पर मुग्ध हुए होंगे तभी इतनी सुंदर रचना सामने आई होगी। इस गीत ने मेरी चेतना में ललिता दी को मेरी प्रिंसिपल की जगह कविता की नायिका में तब्दील कर दिया था।
ललिता दी ने कभी हमें पढाया नहीं था, पर समारोहो में जब वे भाषण देतीं तो उनकी गंभीर सधी हुई संतुलित आवाज मेरे भीतर पैठ कर एक व्यक्तित्व का निर्माण करती थी। कई बार मेरा मन होता कि उनके हाथ में बस वीणा पकड़ाने की देर हैं, वे सरस्वती के फ्रेम में बिल्कुल फिट बैठेंगी। वैसी ही सफेद बार्डर वाली साड़ी और गोरा चिट्टा आकर्षक चेहरा जो उन्हें समूचे कालेज की शिक्षिकाओं के अलग ठहराता था। जब वे बोलती थीं तो हम सब गौर से सुनते थे। वे हमें आसन्न जीवन के लिए तैयार कर रही होती थीं। आज लड़कियों की शिक्षा का बहुत शोर उठता सा दिखता है। हमें अस्सी के दशक में ही ललिता दी अपने भाषणों में शिक्षित होने और कुछ नया करने की बाते करती थीं। वे हमें भविष्य के लिए तैयार करना चाहती थीं। वे जीवन का पाठ पढा रही थीं कि विपरीत हालात में भी विचलन से कैसे बचा जाए और भीड़ में कैसे भिन्न दिखा जाए। मेरा पूरा ग्रुप शरारती लड़कियों का था, पर जैसे ही ललिता दी सामने होतीं, हम ठहर से जाते थे। जैसे किसी ने तपते माथे पर ठंडे रुई का फाहा रख दिया हो। मैं जानती थी कि यहां से जाने के बाद ललिता दी से मुलाकात शायद संभव न हो। इसलिए उनकी खूब सारी बातें, यादें अपनी चेतना में दर्ज कर लेना चाहती थी। कालेज में मेरे जैसी और मुझसे ज्यादा प्रतिभावान लड़कियां थीं, ललिता दी किस किस को याद रखेंगी। हर साल नया बैच आता और जाता है। हम सब चले जाएंगे। टीचर को अपने स्टूडेंट की याद कई बार नहीं रहती।
 ललिता दी ने तो हमें पढाया भी नहीं था, वे बस इस रुप में जानती थी कि ये लड़की अति उत्साही है, जुनूनी है, कुछ भी कर देगी, करवा देगी। मेरे जैसी तो कई आएंगी, जाएंगी। क्या मैं इतनी भव्य, गरिमामयी प्रिंसीपल को कभी भूल पाऊंगी। आज भी हिंदी फिल्मों में किसी भव्य प्रिसिंपल को देखती हूं तो ललिता दी याद आती हैं और मैं गर्व से भर उठती हूं।
जब मैं दिल्ली चली आई और लंबे समय बाद जाना हुआ तो पता चला कि ललिता दी वाइस चांसलर हो गई हैं। मन हुआ, एक बार मिलूं, उन्हें बताऊं कि आपकी यह अति उत्साही छात्रा पत्रकार बन गई है। लीक से हटकर काम कर रही है। उसने वह सब हासिल कर लिया, जिसके सपने आप उसकी और उसके जैसी सैकड़ो लड़कियों की आंखों में भरा करती थीं। मैंने अलग सपने देखें, कठिन राहो पर चली, बहुत कुछ छोड़ा और अपने को खोज लिया। आप जिस स्त्री अस्मिता की बात करती थीं, उसका बोध तब नहीं हुआ था, सालो बाद जब मैंने खुद को ढूंढा पाया तो आपका पाठ याद आया। आप हमें शिक्षित ही नहीं कर रही थीं, हमें सीखा भी रही थीं। मैं संकोच में नहीं मिल पाई और कसक सी बनी रही। बाद में उनके न रहने पर कचोट ज्यादा ही बढ गई।
आज उन्हें इतने सालो बाद याद करते हुए महसूस कर रही हूं कि समंदर में मेरी आस्था किसी हरे भरे टापू की तरह तैर रही है.
मुझे वह गीत याद आ रहा है...लहरे गात वात मद लहरे..विनोदिनी दी उसका अर्थ समझा रही हैं। नायिका भेद पढाते हुए उस गीत का जिक्र कर रही हैं।


Thursday, June 20, 2013

मेरी ताजा कविताएं


कविता-1
गीताश्री
एक बेहतर सुबह के इंतजार में
कब से उस सुबह का इंतजार है,
जिसके बेहतर होने से जाती हुई सांसे लौट सकती हैं,
भय से कांपती हुई परछाई थिर हो सकती है
जख्मों से रिसता मवाद सूख सकता है खुली हवा में
वह अपनी मुठ्ठियों से आजाद कर सकता है पिछली बारिश को
उल्लास से भर कर दूध वाले से ले सकूंगी दूध का पैकेट
धोबी को दे सकूंगी अपनी पोशाकें कि वह इस्तरी करके किस्मत की सलवटें खत्म कर सके
झाड़ू पोछा वाली छमकती हुई आए तो पहली बार मुझे जंचे
कि मैं उसकी पगार उसे वक्त पर देकर उसकी मुस्कुराहट को अपने हिस्से का इनाम मान सकूं,
सब्जीवाले को किलो के भाव से आर्डर देकर मस्त हो सकूं कि चार दिन की हो गई छुट्टी,
मैं रोज उदासी से भरी अपनी बच्ची को रोज स्कूल जाते समय हाथ हिला कर बोल सकूं-हैव ए नाइस डे,
मेड के लिए परेशान श्रीमति पांडे से पूछ सकूं उनका हाल
कि जरुरी हो तो मैं भेज दूं अपनी मेड,
सोसाइटी के गेट पर फोन करके गार्ड को हड़का सकूं कि क्या तमाशा है यहां कि कोई सुनता ही नहीं हमें
जैसे इन दिनों ईश्वर नहीं सुनता हमारी आवाजें,
हम चीखते बिलबिलाते रहते हैं सांतवीं मंजिल पर टंगे हुए
कि वह खुद ही किसी दर्द में डूबा हो जैसे,
मैं एक बार फिर लौटती हूं रोज के काम से,
क्या उसे शिकंजे और संदिग्ध ठहराए जाने का दर्द मालूम है
कोख की कैद के बाद क्या उसने कोई और कैद देखी है
क्या हवा कभी पूछ कर अंदर आती होगी।
किसी को डांटते वक्त उसे कभी मलाल हुआ होगा,
क्यों वह खुद को साबित करने की प्रतियोगिता में शामिल कर देता है,
किसी बेहतर सुबह के लिए रातों को दुरुस्त करना कितना जरुरी होता है,
हर रात मेरी नींद में आकर किसी उम्मीद में दम तोड़ती है
बेहतर होने की उम्मीद में कितनी अनमनी होती जाती है जिंदगी
कि हम अपने नुकीले पंजे से भी पीछा नहीं छुड़ा पाते और जख्मी करते और होते रहते हैं निरंतर...निरंतर....
कि कभी कभी नैरंतर्य का न होना स्थगित होना कतई नहीं होता..।
कविता-2
अभी और क्या क्या होना बाकी है,
और कितने दिन ढोए जाएंगे सवाल,
कितनी बार हम नींदे करेंगे खौफ के हवाले,
सपनों को कब तक रखेंगे स्थगित,
अपनी जमीन पर कबतक कांपते खड़े रहेंगे ढहाए जाने के लिए,
कब तक बसो में चीखें कैद रहेगीं और बेरहम सड़को पर आत्माएं मंडराएंगी,
क्या कुछ देखना बाकी है अभी कि
हम दो जुबान एक साथ बोलेंगे,
और लोग समझेंगे हालात पहले से अच्छे हैं,
हम निजता को पैरो तले रौंद कर देंगे रिश्तो की दुहाई,
और छीन लेंगे उसके मनुष्य होने का पहला हक,
उसे उसकी औकात में रखने का करेंगे सारा जतन
कि दहशत का अदृश्य घेरा उसे कसे होगा,
जिन्हें वह उलांघ नहीं पाएगी कभी,
वह कटेगी अपनी ही जुबान की धार से,
वह बोलेगी-सुनो लड़कियों...अपनी आत्माओं को सिरो पर उठा कर चलो...
सारी दलीलों के वाबजूद ये दलदल तुम्हें लील जाएंगे...
ये चेतावनी ही उसका आखिरी संवाद माना जाएगा...।
कविता-3
तुम्हें याद है पिछली बार हम कब ठिठके थे अपने ही द्वार पर,
कब खोली थी सांकल अपनेअपने मन की
कब बज उठे थे कुछ शब्द घंटियो की तरह
और तुम लड़खड़ाए बिना ही धमनियों में रक्त की तरह घर में घुस आए थे,
छोड़ो, जाने दो, अपने प्रेमिल चेहरे को दीवारों पर चिपकने दो इश्तिहार की तरह
कि प्रेम का घोषणा-पत्र रोज पढना जरुरी है किसी अखबार की तरह
जहां घटनाओं की तरह खबरें दर्ज होती चलती हैं/ और हम
बांचते हैं रोज चश्मा चढाए,
मैं ये चश्मा नहीं उतारना चाहती/ कि मुझे धुंधली हुई इबारतो को फिर से तलाशना है,
मैं फिर से पढ़ना चाहती हूं वह पन्ना/ जहां छोड़ आई थी अपना करार और अपने उदास होने की वजहें,
गुत्थमगुत्था हथेलियों की झिर्री से आती हवा को आजाद करते हुए तुमने पूछा था / क्या हम फिर से पुनर्नवा हो सकते हैं,
हम फिर फिर फूलों को खिलते देखकर खुश हो सकते हैं / कि क्या तुम अब भी चूहों को बिल में घुसते देखकर तालियां बजा सकती हो,
जब चाहो कुछ दिन के लिए घर से लापता हो सकती हो,
हल्के अंधेरे में किसी शाम प्रीत विहार के फुटपाथ पर बैठकर कसाटा खा सकती हो,
बेखौफ हाथ थामकर जनवरी की धुंध में गुम होने को औपन्यासिक कथानक से जोड़ सकती हो,
मैंने चुपचाप थामा तुम्हारा हाथ और मैंने देखा / हम फिर से अपने द्वार पर खड़े थे
और घंटियों से झरते शब्दों को तुम सहेजने में जुट गए..।
कविता-4
क्या तुम सचमुच लौट आई हो मेरे पास, पिछली सदी से,
तुम्हारे पास अब भी बचा है उतना ही ताप मेरे लिए, कि मैं नहीं बचा पाया अपने हिस्से की झोली,
जिसमें कभी तुम भर भर कर देती थी अपनी हंसी सबेरे सबेरे...
डब्बे में रोज भर भर कर देती थी अपना ढेर सारी चिंताएं,
कि इन दिनों खाली झोलियां हमेशा हवा से भरी होती हैं और हंसी निष्कासित है अपने समय से।


































































Wednesday, October 31, 2012

वक्त की रोशनाई में रोमांस का चेहरा

गीताश्री
आज भी अधेड़ इश्क(वक्त) जब अंगड़ाई लेता है तो वक्त की हांफती जुबान से एक ही गाना फूटता है—अये मेरी जोहरा जबीं..तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसी.. सफेद शिफौन की साड़ी में लिपटी नायिका (चांदनी) जब अपनी इश्क का इजहार करने एल्प्स की चोटी पर लहराती है तो रोमांस की झीनी चादर सी हवाओं में तन जाती है.. जब कोई कम चुलबुली लड़की अधेड़ पुरुष के प्रेम (लम्हे) में पड़ती है तो जमाने में सनसनी सी फैल जाती है, कथित नैतिकता चिंदियां उड़ने लगती है और उम्मीदें अपनी आंखें संभावनाओं पर जोर से गड़ा देती हैं, एक नाजायज बेटा पहली बार जोर से अपने बाप को नाजायज बाप (त्रिशूल) बोलता है तो सामाजिक रिश्ते के ताने बाने नए सिरे अपनी परिभाषा खोजने लग जाते हैं..यह सबकुछ किसी एक की देन है..जिसका अभी अभी जाना हमें बेहद खल गया। जिंदगी को रुमानी नजरिए से देखने वाले फिल्मकार यश चोपड़ा की मौत किसी सपने की मौत से कम नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री को दो दो सुपर स्टार, शहंशाह (अमिताभ बच्चन) और बादशाह (शाहरुख खान) देने वाले यश चोपड़ा समाज के यथार्थ और सिनेमा की फंतासी के सबसे बड़े बुनकर थे। अपनी फिल्मों की नायिकाओं के सौंदर्य को उभारने में वह राजकपूर के साथ खड़े दिखाई देते हैं। राजकपूर ने जहां नायिकाओं के मांसल सौंदर्य को परदे पर खूबसूरती से उतारा वहीं यश चोपड़ा देह को आंतरिक सौंदर्य से जोड़ कर देखते हैं। चाहे चांदनी की श्रीदेवी हों या दिल तो पागल है की माधुरी दीक्षित, डर की जूही चावला हो या सिलसिला की रेखा, दाग की शर्मिला टैगोर हों या त्रिशूल की राखी। हिंसा और एक्शन की चाशनी में डूबा साठ और सत्तर का दशक यकायक नौ नौ चुड़ियों वाली नायिकाओं से खनक उठा। परदे से हिंसा गायब होने लगी और रोमांस का दौर लौट आया। इस युगांतकारी परिवर्तन के लिए यश चोपड़ा उस दौर के सबसे साहसी फिल्मकार माने गए। रौमांस की भी एक ब्रांड वैल्यु होती है, ये बात यश ही साबित कर सकते थे। साथ ही आउटडोर लोकेशन किसी फिल्म के लिए खास तत्व हो सकती है या कहें कि उसे रोमांस के उद्दीपक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है, इसे बताया भी उन्होंने। एक खास तबके में लोकप्रिय करवाचौथ जैसे व्रत को उन्होंने एक ब्रांड वैल्यू दी और आधुनिक औरतें भी इसके पीछे पगला गईं। 80 साल का बूढ़ा बेहद युवा प्रेम के बारे में सोचे, यह हैरानी की बात तो है। अपनी आखिरी फिल्म जब तक है जान के बाद निर्देशन से सन्यास लेते उनका बाय बाय का संदेश जीवन के प्रति विदाई का भाव था, किसी से नहीं सोचा। परदे का इश्क जीवन में उनके नाम से धड़कता रहेगा। बतौर निर्देशक टौप टेन फिल्में 1.वक्त(1965) 2.इत्तेफाक(1969) 3.दाग(1972) 4.दीवार(1975) 5.त्रिशूल(1978) 6.सिलसिला(1981) 7.चांदनी(1989) 8.लम्हे(1991) 9.डर(1993) 10.दिल तो पागल है(1997)

Monday, October 5, 2009

वेदांता की मौत की चिमनी

वेदांता की मौत की चिमनी
छत्तीसगढ़ के बालको में घरों को रौशन करने के लिए बनाई जा रही विशाल चिमनी ने ही सैकड़ों घरों को हमेशा-हमेशा के लिए अंधेरे में डूबा दिया है. इस घटना को दस दिन हो गये हैं लेकिन अब तक 41 मज़दूरों की हत्या की जिम्मेवारी तक तय नहीं हुई है. हालत ये है कि वेदांता की इस चिमनी में कितने मज़दूर काम कर रहे थे, इसका आंकड़ा भी छत्तीसगढ़ सरकार के पास नहीं है.
बालको नगर से आलोक प्रकाश पुतुल की रिपोर्ट
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Monday, October 13, 2008

निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ...




दु:ख लड़ने के लिए 

एक बहुत बड़ा हथियार है 

जो पहले 

पानी की भाषा में 

आदमी की आँखों में आता है 

और फिर 

हाथों की धरोहर बन जाता है 

पानी के पत्थर बनने की प्रक्रिया 

आदमी के इतिहास से पहले का इतिहास है 

किन्तु अब 

यह प्रक्रिया 

आदमी के इतनी आसपास है 

कि दु:खी क्षणों में 

वह 

पानी से एक ऎसा हथियार बना सकता है 

जो दु:खों के मूल स्रोतों को 

एक सीमा तक मिटा सकता है ।

-कुमार विकल