Friday, November 25, 2016




दिन जो पखेरु होते

--गीताश्री


दशहरा के नितांत निचाट से दिन में बचपन की बात ! न कोई उत्साह न ध्यान कि माँ और भाभी के आज खोइंछा भरने के दिन.  चावल, दूब, हल्दी की गाँठ, बताशे और कुछ पैसे डालेंगी. विदा से पहले की रस्म ! दुर्गा की आंख कल रात खुल गई होगी. सब पंडाल में एकत्र कि आँख खुले तो देवी की पहली नज़र उन पर पड़े. मुझ पर सालों पड़ती रही है. अष्टमी की रात भीड़ में सबसे आगे. वे आँखें नहीं भूलतीं. सबको लगता कि आँखें उनको ही देख रही हैं. निहाल सब ! देवी की विदाई होगी तो औरतें खोइंछा देंगी.यह प्रथा अब ख़त्म है, जीवन में. मगर देवी दुर्गा बिना लिए विदा न होंगी. पानी उनका ससुराल. मुझे याद है कि मैने उत्सुकतावश माय से पूछा था कि दुर्गा के पति कौन? किससे शादी हुई? कहावतों और क़िस्सों की खान मेरी माय का जवाब-
" दुर्गा इतनी शक्तिशाली थीं कि उनके ज़ोर का देवता पूरे ब्रम्हाण्ड में नहीं मिला. अब स्त्री बिना ब्याही कैसे रहे? तो दुर्गा जी के हाथ में लंबा तीरनुमा भाला है, उसी की नोंक से अपनी माँग खुद भर ली."

ससुराल कहाँ ? कोई भुवन नहीं. जलसमाधि लेंगी.
भंसा दी जाएँगी. मुझसे बस यही दृश्य नहीं देखा जाता. कोई भी मूर्ति भंसावन नहीं देख पाती मैं.
महानगरी जीवन ने दशहरे का आनंद छीन लिया. पिछले दशहरे में अपने शहर में थी. अष्टमी नवमी वहीं. पंडाल में भी गई. लेकिन....
कहीं कुछ स्फुरन न हुआ. रस का संचार नहीं. क्या वयस्कता रस भंग कर देती है या दूरियाँ तटस्थ !
आँखें मुझे देख रही थीं और मैं पंडाल की भीड़ से त्रस्त !
जीवन का आनंद बच्चा होने और बच्चा बने रहने में है, बड़े होने में नहीं.
अब अहसास होता है जब हम बड़े हो गए हैं उन चमकीले दिनों को याद कर रहे.
दिल्ली में उनींदे बचपन की याद कर रही हूँ और चिंहुक रही हूँ बार बार. गगन गिल की किताब है दिल्ली में उनींदे. जब भी दिल्ली में उनींदे फिरती हूँ, याद आती है... किताबें. लोग और एक मीठी नींद जो बेफ़िक्र दिनों की धरोहर होती है. बचपन की स्मृतियों में डूबते हुए गहरा आनंद आ रहा. संपादक जी ने स्मृतियों के गहरे तालाब में छपाक से फेंक दिया है. उनींदी सी कहीं जा रही हूँ...किसी यात्रा पर...स्मृतियों का बोझ लिए. पलकों पर कुछ रंग दे गई हैं तितलियाँ. ऊँगलियों में उनके पंख हमेशा छोड जाते थे कुछ रंग. फूल से चुराए और उड़ाए रंग.
 कितने चमकीले थे वे दिन जो याद आते ही मीठी नींद भर रहे ...!

नींद वैसे ही जरुरी आँखों के लिए जैसे कंठ के लिए पानी और कानों के लिए सुरीली पुकार...!
कुछ सखी सहेलियाँ पुकार रही हैं. कुछ हमउम्र लड़के भी जो मेरे साथ खेल कूद और शरारतों का हिस्सा थे. गली में कंचे खेले जा रहे हैं, गुल्ली डंडा और पिट्टो खेला जा रहा है...
काँच की चूड़ियों के टुकड़े तलाशे जा रहे, गुप्त स्थानों पर लकीरें खींच कर छिपाई जा रही है, उसे ढूँढना और काटते जाना है. आइस पाइस खेलते हुए पूरी ज़मीन नाप रही हूँ और आकाश बाँहों में भर रही हूँ. गुड़ियों के लिए घर बना रही हूँ, ईंटें जोड़ कर. घरौंदा बनाने का मन है पर हमें अनुमति नहीं. दूसरी सहेलियों के घरों की छतों पर घरौंदे बन रहे जिनमें हम अपनी गुड़िया का बसेरा बनाएँगे. गुड़ियाओं को भी घर चाहिए. फिर मैं घर के बाहर दीवार से सटा एक छोटा सा घर बना ही लेती हूँ. हम घरौंदा क्यों नहीं बनाते ? दीवाली पर पूरी दुनिया बनाती है, हम क्यो नहीं? ललक होती थी अपने हाथों मिट्टी और रंग से लीपपोत कर छोटा सा घर बनाऊँ. बाहर सजाऊँ. पर हमें हर बार मना.  मैं तड़प जाती कि क्यों नहीं ? ज़िद कर बैठी. फिर माई ने बताया कि अपशकुन होगा. वर्जित है. दीवाली के आसपास ही मेरे चचेरे भाई की हत्या हुई थी, प्रेम का मामला था. मान्यता है कि किसी उत्सव के दिन या आसपास कुछ बुरा घटे तो वे दिन अछूत हो जाते हैं उत्सव के लिए. घरौंदा दीवाली से एक दो दिन पहले बनाते थे. उन्हीं दिनों घटना घटी होगी और उसके बाद हम बहनों ने घरौंदे नहीं बनाए. तरस बची रही.
हाँ तो मैं यहाँ थी कि गुड़िया के लिए घर बनाया. अब घर बना तो अकेली औरत उसमें कैसे रहेगी ? तब सिंगल वीमेन की न अवधारणा थी न हम इस तरह सोचने के क़ाबिल थे. सो सहेलियों ने मिल कर मेरी गुड़िया के ब्याह  की योजना बनवाई.
जैसे होती है शादियाँ. शाम को वैसे ही बारात आई, बच्चों की तीन पहिया साइकिल पर. मिकी मेरी दोस्त की गुड्डी और मेरा गुड्डी . बारात में शामिल सारे मोहल्ले के बच्चे. मिकी की भाभी ने इतनी कृपा की कि बारातियों को पूरी सब्ज़ी खिलाई और हम गुड़िया को विदा कराके घर ले आए. घर बसाने की ज़िम्मेदारी मेरी. सो वही किया. घरौंदा बना नहीं सकती थी. घर के बाहर ईंटें जोड़ कर घर बनाया और ईंटों के ही दरवाज़े. नवदंपति के सोने के लिए पलंग का इंतज़ाम करना जरुरी था सो बाबूजी के टेबल से लकड़ी का पेन और पैड स्टैंड उठा लाई चुपके से जो चौड़ा था. छोटे पलंग की तरह दिखता था.
घर के अंदर बेड सजाए. दर्जियो के मोहल्ले से रंगीन कपड़ों की कतरने चुन कर लाई थी, उन्हें चादर और गद्दे की तरह यूज किया. दोनों का गृह प्रवेश हो गया. सारे बाराती लौट गए अपने अपने घरों में. मैं सुख में कि हमारे गुड्डे का परिवार बस गया.
सुबह जगते ही हम भागे गुड्डा घर की तरफ !
दुल्हन गुड़िया की अगले दिन पग फेरी होनी थी. मिकी आने वाली थी दोनों को लिवा ले जाने.
"ये क्या ? " घर तो खुला पड़ा था. दरवाज़ा ध्वस्त. घर ध्वस्त. ईंटें बिखरी हुई थीं इधर उधर. मानों भूचाल आया हो. गुड्डा गुड्डियाँ ग़ायब ! मेरा रोना निकल आया. पड़ोस में रहने वाली मेरी बेस्ट सहेली सीमा मेरा चीख़ना चिल्लाना सुन कर दौड़ी आई...

बात मिकी तक गई. मिकी बस सड़क पार सामने ही रहती थी. धनाढ़्य मारवाड़ी परिवार की लड़की थी. आज अभी होगी कहीं...
थोड़ी देर में हमारी मंडली जुट गई. हमने तलाश शुरु की. इतनी रात को कौन यह शरारत कर सकता है? कुछ समझ नहीं आ रहा था किसी को. कितनी हँसी ख़ुशी बारात निकली थी. मिकी की उदार और ख़ुशदिल भाभी ने शादी के गाने भी गाए थे बन्ना बन्नी वाले. कौन कर सकता है ऐसी दुष्टता ? किससे पूछे ? हम इधर उधर जंगल झाड़ियों में घुसे ! दूर नाले के पास गए. झाड़ियों में लटका अटका गुड्डा मिला. नुचा हुआ. शरीर से दुल्हे के कपड़े ग़ायब. गुड़िया की खोज जारी थी. मिकी दहाड़ने लगी--"मेरी गुड़िया खोज कर लाओ, हमें नहीं रखना यह संबंध. शादी तोड़ दो. तलाक़ कर लो....! "
सीमा ने अंतत गुड़िया खोज निकाली , धूल धूसरित. मिकी ने गुड़िया समेटी और लगभग रिश्ता तोड़ते हुए दफ़ा हो गई.
उसके बाद कई दिन तक हमारे बीच अबोला रहा. मैं गुड्डा लेकर बेबस सी बाहर घूमती और सड़क पार मिकी गुड़िया हिला हिला कर दिखाती और चिढ़ाती ! मेरा गुड्डा अकेला रह गया था.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह काम किसने किया ? पूरी बच्चा पार्टी पता करने में लगी थी और नतीजे तक नहीं पहुँच पाती थी.
गर्मी की उमस भरी शाम थी और हम सब बाहर चारपाई डाल कर बैठे थे. दूर कहीं से " हुंआ हुंआ" की आवाज़ आ रही थी. डरावनी आवाज़ थी.
पड़ोसन चाची ने बताया कि रात को घूमते घामते सियारों के झुंड  इधर आते हैं और छोटे बच्चों पर आक्रमण करके उठा ले जाते हैं. लगता है गुड्डे गुड़िया को मनुष्य का बच्चा समझ कर उठा ले गए होंगे. बाद में समझ आया होगा तो झाड़ियों में छोड गए होंगे.
उस शाम के बाद हर रात सपने में भी हुआं हुआं सुनाई देता और मैं चिंहुक कर उठ जाती. गर्मी की रातें आँगन में सोते सोते कटतीं. सो नींद खुलती फिर डर कर आँख बंद कर लेती.
फिर एक दिन सीमा के साथ मैं दर्जियो के मोहल्ले गई , जहाँ कपड़े की बनी बनाई गुड़ियाएं मिलती थीं. मैने कपड़े के टुकड़े चुने और खुद अपने हाथो गुड़िया बनाई. अपना नक़ली मोतियों का माला तोड़ कर उसके गहने बनाए. अनगढ़ ही सही पर गुड़िया बना कर गुड्डे का अकेलापन दूर कर दिया.
मिकी दोस्ती करना चाहती थी. हमने कर ली पर गुड्डे गुड़िया का संबंध बीच में नहीं आने दिया.
इन्हीं दिनों बालमन ने रिश्तों का महत्व समझा और घर का भी , जो आजतक मन से न गया. दोनों बचाए जाने कितने जरुरी कि सियारों की टोली भी ढाह न पाए.
****
मेरे बचपन के सुनहरे दिन गोपालगंज में बीते. सो सबसे ज़्यादा सुनहरी यादें वहीं की. सखियाँ वहीं ज़्यादा मिली. बाद के शहरों क़स्बे में लड़के ज़्यादा दोस्त बने. लड़कियाँ कम मिली. मैं दोनों में समान अभाव से एडजस्ट हो जाती थी. अब बात फूलो की. फूल वाले भोर की.
हम लड़कियों की टोली रोज़ सुबह फूल लोढने जाती थी डलिया लेकर. गोपालगंज छोटा सा शहर है. हम फूल लोढने में इतने उस्ताद कि चहारदीवारी फाँद कर फूल तोड़ लाते. कई बार घरवाले दौड़ाते और हम फुर्र. एक रोज़ किसी के प्रांगण में घुस गए. अक्टूबर का महीना था. नवरात्रि के दिनों में माँ को बहुत फूल चाहिए थे पूजा के लिए. डलिया भर फूल लाना जरुरी था नहीं तो टोली की लड़कियाँ भी चिढ़ातीं कि फूल नहीं तोड़ पाई. सो डलिया भरा होना जरुरी. फूल लोढने का जुनून हमें दूसरे मोहल्ले तक ले जाता और रोज़ वहाँ से कांड करते करते बचते आते घर तक.
उस भोर हरसिंगार का भरा पूरा पेड़ दिखा. फांद गयी दीवार और हरसिंगार के घने पेड़ के नीचे उसकी ख़ुशबू में पागल. पेड़ को खूब हिलाते रहे, हरसिंगार झड़ते रहे...! दीवार की उस तरफ से सीमा फुसफुसाती रही कि भाग आ...
मैं मग्न ! हरसिंगार झर रहे थे मेरे ऊपर...,मेरी पूरी देह भर रही थी फूलो से....! ख़ुशबू से तर थी मैं. कोई बाहरी आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी. दरवाज़ा खुला और बूढ़े अंकल बाहर ! चश्मे के अंदर से मिचमिचाती आँखें मुझे घूर रही थीं. फिर क्या होता, कल्पना कर लें. अंकल ने कान पकड़े पकड़े मुझे घर पहुँचा कर खरी खोटी सुनाई. वे बच्चों के फूल लोढने की आदत से आजिज़ आ चुके थे. उनके पौधों में कोई फूल बचता ही नहीं था . वे ताक में थे और पकड़ी गई मैं. हरसिंगार के प्रेम ने मुझे पकड़वा दिया. इसके बाद मुझ पर दो असर हुए. माँ ने मालिन को फूल लाने का काम सौंपा और मैं हरसिंगार बोती रही ज़मीन से लेकर ख़यालों तक में. आज भी जहाँ तहाँ मेरे लगाए हरसिंगार मिल जाएँगे जिसके नीचे कोई बच्ची उसकी गंध में वहीं खड़ी होगी, उसके ऊपर झर रहे होंगे हरसिंगार. इससे बाहर वह आना ही नहीं चाहती.

****
कितने क़िस्से कितनी यादें. दिलचस्प किताब बन सकती है. खुद ही हैरान होती हूँ सोच सोच के कि ये सब मैं करती थी ? कितने रंग थे जीवन में. कई बार बदरंग मौसम में वे रंग उदास नहीं होने देते.
मिकी की याद आती है. वह थोड़ी नकचढी लेकिन यारबाश थी. हमारे ग्रुप में सबसे अधिक पैसेवाली. हमें ख़र्च करने को सीमित पैसे मिलते थे और वह जितना चाहे उठा लाती थी. फिर हम तीन सहेलियाँ मिकी, किरण और मैं गर्ल्स स्कूल से टिफ़िन के बाद भाग जाते थे और दिन भर शहर के मिंज स्टेडियम के पास उसके पैसे से छोले चाट खाते, इमली के बगानो में चले जाते, इमली तोड़ते, ढेला मार मार के या खेलते रहते. हमें छुट्टी के समय का अंदाज़ा रहता. स्कूल घर से थोड़ी दूर था. सीधी सड़क आती थी. हम बीच सड़क पर आते और लड़कियों की भीड़ में मिल जाते. घर लौटते मानो दिन भर पढ़ाई करके थक गए हों. घरवाले समझते कि बच्चियाँ थकी हारी आई हैं. शाम की हमारी ख़ातिर होने लगती और हमें भूख ही नहीं. दिन भर मिकी के पैसे से चाट खा कर हम अघाए होते. माँ समझती कि हमें भूख कम लगने लगी है. वे चिंतित दिखती. हालाँकि मेरी सेहत पर कोई असर नहीं दिखा उन्हें.
लेकिन हर भांडा एक दिन फूटता ही है. इसे भी फूटना था. मेरे स्कूल के बग़ल में ही मंझली दीदी का गर्ल्स हाई स्कूल था. वे कभी कभार छुट्टी के समय मिल जाती थीं अपनी सहेलियों के संग. एक दिन उनकी छुट्टी जल्दी हो गई होगी. वे हमारे गेट के पास रुक कर मेरे निकलने का वेट करने लगीं. सोचा होगा कि साथ लेती जाऊँ. उस ज़माने में कोई बस नहीं चलती थी स्कूल की. हम सबको दूर दूर तक पैदल ही चल कर जाना होता था. मेरी सहेली सीमा सरस्वती एकेडमी में पढ़ती थी और स्कूल के बंद रिक्शे में जाया करती थी. उसको देख कर मैं तरसती पर उस वक़्त समझ नहीं पाई कि मैं इस स्कूल में क्यों नहीं पढ सकती. इंग्लिश मीडियम स्कूल था. महँगा होगा, मेरा छोटा भाई राजू उसमें पढ़ता था.
हाँ तो मंझली दीदी रुकी रहीं. लड़कियाँ सारी निकल गईं. हमीं तीनों उन्हें न दिखे. वे परेशान. गार्ड से पूछा. कुछ पता न चला. वे आशंकित घर लौटीं. उनके आगे आगे हम भी मिल गए. लौटते हुए. इसके आगे की कल्पना आसानी से की जा सकती है. उसके बाद क्या हुआ होगा. मिकी के पैसे आने बंद और हमारी जीभ पर ताला. चाट के लाले पड़ गए. टिफ़िन में स्कूल से निकलना बंद. बाबूजी ने स्कूल की प्रिंसिपल "झलकती राय " को बुलाया और हम सख़्त क़ैद में. हम बच्चे उनको "झलकती दुनिया " कहते. हमें लगता कि  स्कूल में उनकी आँखें हमीं तीनों को घूरती रहतीं. हमें लगता कि हम झलकती दुनिया के बाशिंदे बन गए हैं जहाँ से भागना संभव नहीं. सच है कि स्कूली पढ़ाई में बहुत मन नहीं लगता था सो हम टिफ़िन के बाद का समय पीछे बैठ कर चंपक, चंदा मामा पढने में बिताने लगे. मिकी कॉमिक्स लाती. हम उन्हें पढ़कर जादूगर मेंड्रेक और फैंटम के साथ काल्पनिक लोक में चले जाते. कुछ कुछ लिखने की आदत पड़ने लगी थी. पढे और सुने गए क़िस्सों को अपनी कॉपी में अपने अंदाज में लिखती.
बाद में शहर बदला. नयी जगह आई. वहाँ लड़के ज़्यादा थे. उन्हीं की संगत होती. अब खेल का रुप बदल गया था. गुड्डे गुड़िया पीछे छूटे और हाथों में कंचे, गुल्ली -डंडा, कबड्डी , डाल पात , पिट्टो टाइप खेल आ गए थे. लड़कों की संगत का असर दिखने लगा था. शुक्र है , बचपन के उन दिनों का कि पुरुषों के साथ दोस्ती में सहजता बनी रही . अन्यथा सामंती परिवेश में लड़कों से दोस्ती असंभव कल्पना थी.


जारी....




Thursday, April 7, 2016

कुशी नगर यात्रा

यहां बुद्ध सो रहे हैं

गीताश्री

वहां बुद्ध सो रहे हैं लेकिन लोग यह मान कर मंत्र बुदबुदा रहे हैं कि वे सुन रहे हैं। अपने हिसाब से सारे लोग प्रत्युत्तर भी ग्रहण कर रहे हैं। वहां मौजूद लोगों को क्या पता कि एक बार फिर वैशाली की कोई स्त्री हाथ जोड़े कुछ बुदबुदा रही है और बुद्ध के सोए होठों से कुछ गुनगुन आ रही है-

कोई किसी को नहीं बचा सकता भद्रे..जहां आग की लपट है, उसके निकट कहीं पानी का झरना है..अशांति के कंटक-कानन में ही शांति की चिड़िया का घोसला है, उस झरने, उस घोंसले को खुद खोजना होता है। दूसरा, ज्यादा से ज्यादा रास्ता भर बता सकता है... (अंबपाली-रामवृक्ष बेनीपुरी से साभार)
अंबपाली को सब साफ सुनाई दे रहा है। वह मार्ग पूछती है और उसे लंबी जिरह के बाद मार्ग मिल जाता है।



महापरिनिर्वाण टेंपल में बुद्ध खामोशी से सो रहे हैं। उनकी 6.10 मीटर लंबी काया उनके चाहने वालों को अभिभूत कर रही है। जिधर से देखो, अलग अलग छवियां दिखाई दे रही हैं। दूर दराज से तीर्थ के लिए आए बौद्ध धर्मावलंबी हाथ जोड़े भाव विह्वल हैं। सबके मन में में कोई न कोई संवाद चल रहा होगा। सबको शायद जवाब भी मिल रहा हो। वहां से लौटते लोगों के चेहरे पर कातरता साफ देखी जा सकती थी। श्रीलंका के एक यात्री देर से मुझे देख रहे थे। उनके भीतर कुछ सवाल थे। मेरे पलटते ही सवालो की झड़ी...और जब मैंने उन्हें बताया कि मैं वैशाली की रहने वाली हूं तो वह उछल पड़ा।
टूटी फूटी इंगलिश में बोले-वहां जाना मेरा ख्वाब है। मैं देखना चाहता हूं वह नगर जहां बौद्ध मठो में स्त्रियों का पहली बार प्रवेश हुआ। वह अंबपाली का नाम ठीक से नहीं जानता था पर इतना जानता था कि भगवान बुद्ध और उनके परम भक्त आनंद के बीच बहुत बहसे हुईं थीं। एक राजनर्तकी ने उन्हें तर्क से झुका कर संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खुलवा दिए थे।




मैं जल्दी में थी। मेरा सेमिनार छूट रहा था। गोरखपुर और देवरिया से सटे कुशीनगर की पहली भोर थी। मुझे जल्दी जल्दी बुद्ध की आखिरी नींद देखनी थी। वह तमाम जगहें देखनी थीं जहां जहां बुद्ध ने सब कुछ आखिरी बार किया। आखिरी खाना खाया, जिस नदी में आखिरी बार स्नान किया और जहां आखिरी सांस लीं। जहां उनका आखिरी क्रियाक्रम हुआ और जहां उनकी अस्थियों को दफनाया गया। यह अलग बात है कि खुदाई में अस्थियां नहीं मिलीं। लेकिन बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए अस्थियां अब भी वहीं हैं। काल की खोह में कहीं गहरे दबी हुई। कई बार आस्था साक्ष्यों की मोहताज नहीं होती। भक्तो के लिए बुद्ध यहीं कहीं दफ्न हैं। उनकी छाया है। आखिरी सांसे हवा में घुली हुई हैं। जापान, थाईलैंड, श्रीलंका और ताइवान से आए यात्री यहां ध्यान मग्न हैं। उन्हें कोई जल्दी नहीं है। वे अपने नथुने भर उठा उठा कर हवा भर रहे हैं अपने फेफड़ो में। स्तूप पर माथा टेक टेक कर भाव विह्वल हो रहे हैं। उनकी यह कातरता मेरे भीतर की अहर्निश बारिश को और तेज कर देती है। बिना शोर मैं अपनी भीतरी आवाजें सुनने लगती हूं। पवित्र स्तूप पर जहां अगरबत्ती जलाने और सुनहरे टीका चढ़ाने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। चारो तरफ शांति। इसी बेशकीमती शांति की खोज में दुनिया भटक रही है। हम सब भटक रहे हैं। इसी भटकन ने कुशी नगर की एक सुबह मुझे सोते हुए बुद्धा के पास ला खड़ा किया था।
कुशीनगर मेरे सपनों का वांछित नगर रहा है। जब दिल से चाहो तो कोई न कोई ट्रेन आपको वांछित सपने तक पहुंचा ही देती है। मेरे साथ भी यही हुआ था। ना ना करते हुए मैं द्वार पर थी जहां सदियों से पहुंचने का स्वप्न देखा होगा।
रामाभर स्तूप के लिए प्रवेश करते हुए गेट पर इंट्री करनी होती है। रजिस्टर लेकर कुछ बौद्ध भिक्क्षु बैठे हुए थे।




अरे आप रहने दें...आप नई थोड़े न हैं, आप तो पहले भी आ चुकी हैं यहां...जाइए..
मैंने आश्चर्य से न तीनों भिक्षुओं को देखा। मैं पहली बार आई थी। क्या इच्छाएं भी सरुप यात्राएं करती हैं जिन्हे ये साधक देख पाते हैं या उनका अनुमान था। मैं चलते चलते उन्हें देखती हुई बोल पड़ी..
मैं तो पहली बार आई हूं...
एक ने पूछा, आप कहां से आई हैं ?”
मैंने कहा, दिल्ली से, लेकिन हूं मैं वैशाली की..आपने पूर्वजन्म में देखा होगा मुझे...मैं हंसती हुई स्तूप की तरफ बढ गई। तीनों भिक्षु की निगाहें मेरा पीछा कर रही थीं। मेरे पास समय कम था क्योंकि यह भोर निकल गई तो मंत्रसिक्त हवाएं लोप न हो जाएं। बुद्ध की नींद में, स्तूप पर जलती हुई अगरबत्तियों के धुएं में..।
मैं तो खुद सवालों से भरी हुई चली जा रही थी। आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या देखा कुशीनगर में ? इस नगर का चयन क्यों किया? इतिहास के तथ्य खंगाल कर आई थी सो इतना पता था कि यह नगर प्राचीन काल में कई नामों से जाना जाता था। कुशावती और कुशीनारा भी इसे ही नाम थे। कालांतर में इसका नाम कुशीनगर पड़ गया। मिथको के अनुसार अयोध्या के राजा राम के एक पुत्र कुश ने इस नगर को बसाया था। यह मल्ल राजाओं की राजधानी भी थी। मल्ल राजाओं ने बुद्ध के अंतिम संस्कार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जब पांचवी शताब्दी में फाहियान ने और सांतवीं शताब्दी में व्हेनसांग ने इस इलाके की यात्रा की तो इसे निर्जन स्थान पाया था। आधुनिक कुशीनगर की खोज 19वीं शताब्दी में भारत के पहले पुरात्तववेत्ता अलेक्जेंडर ने (1860-61 में) कनिंघम द्वारा इस क्षेत्र की खुदाई की गई और इसके बाद कुशीनगर को महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल माना गया। कनिंघम के उत्खनन के समय यहाँ पर 'माथा कुँवर का कोट' एवं 'रामाभार' नामक दो बड़े व कुछ अन्य छोटे टीले पाये गये। 1875-77 में कार्लाईल ने, 1896 में विंसेंट ने तथा 1910-12 में हीरानन्द शास्त्री द्वारा इस क्षेत्र का उत्खनन किया गया।



बाद में मुख्य स्तूप भी खोज निकाला गया। वर्मा के एक बौद्ध भिक्षु चंद्रास्वामी भारत आए और उन्होंने 1903 में महानिर्वाण टेंपल का निर्माण करवाया जहां मैं सोते हुए बुद्ध के चेहरे पर एक पूरा कालखंड खोज रही थी। कुछ परछाईयां डोल रही थीं। कुछ सवालों की छाया थी। कुछ के जवाब तो वैसे ही समझ में आ रहे थे कि बुद्ध ने कुशीनगर को क्यों चुना होगा। वे चुनते थे जहां वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, जहां वे जी सकें, जहां वे मर सकें। मरने के लए उन्हें एक समृद्ध नगर की तलाश थी। उस कालखंड में कुशीनगर बहुत समृद्ध मगर रहा होगा और वह आज भी है। जिस धरती पर बुद्ध की अंतिम सांसे हों वह नगर भला कभी समृद्ध कैसे न रहे। वे नदियां अब भी वहीं बहती हैं जहां बुद्ध ने अंतिम स्नान किया होगा। क्या पानी ने अपनी गवाही और अपने स्पर्श बचा रखे होंगे। काकुथा नदी जहां बुद्ध ने अंतिम स्नान किया था, वह अपने इस गौरव को भुला पाएगी कभी। हिरण्यवती नदीं जहां बुद्ध के पार्थिव शरीर को अंतिम बार नहलाया गया, वह अब भी धरती की बेनूरी पर रोती होगी। बुद्ध ने कुछ तो कहा होगा कि ये नदियां सदानीरा रहीं। यह सब कुछ सोचती हुई अनमनी सी मैं लौट रही थी। तब तक मेरे साथ प्रख्यात कथाकार वंदना राग भी शामिल हो चुकी थी । हम दोनों ने वहां छोटे छोटे टीले देखें और पूरे युग के बारे में सोचा। हमारी बातों में बौद्धिज्म भी था और संघ में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर उस काल का संशय भी। गेट से बाहर निकलते हुए  सफेद कपड़ो में लिपटी एक ताइवानी लड़की दिखी जो अपनी आंखें सबसे छिपा रही थी। ज्यादातर बौद्ध धमार्वलंबी यात्री सफेद कपड़ो में आए थे। वह लड़की ओझल हो गई लेकिन मेरे कानों में अंबपाली को कहे गए बुद्ध के अंतिम वाक्य सुनाई दिए-
संन्यास या भिक्षुपन कुछ नहीं, थकी हुई आत्माओं का आत्मसमपर्ण है।
( अंबपाली, नाटक-रामवृक्ष बेनीपुरी)


अंबपाली भी थक गई थी, उससे यह बोझ नहीं ढोया जा रहा होगा...!
……

 (कांदबिनी के अप्रैल अंक-2016 में प्रकाशित)

Tuesday, December 1, 2015

कहानी

माई री मैं टोना करिहों

गीताश्री

कहां से आ रही हो...ये तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है...फोन क्यों नहीं उठाया तुम लोगो ने..कितनी बार कॉल किया है..कुछ अंदाजा है तुम दोनों को...?”
दोनों के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं। मिताली ने चीखते हुए एक साथ कई सवाल पूछ कर दोनों को और असहज कर दिया था। दोनों को शायद मिताली के बमवर्षक स्वभाव का अंदाजा था। बोला कुछ नहीं, हारे हुए जुआरियों सी घर के अंदर चली आ रही थीं जैसे बीच समंदर में तैरते जहाज के डेक पर पिटे हुए दो जुआरी मातम मनाते बड़बड़ाते, अनजानी हवाओं और अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। उन्हें मिताली के गुस्से की परवाह नहीं थी। दोनों अपने कमरे की तरफ बढ रही थी जैसे एक एक पांव पत्थर से बंधे हों.।
मिताली फिर गरजी...
क्या बात है, बताओगी भी कुछ..? .मैं यहां घर का काम करते करते मर गई और तुम दोनों मां बेटी गायब...बता कर तो जाती...हद है..कितना भी तुम लोग के लिए किया जाए, तुम लोग कभी सगे नहीं हो सकते..हमारी परेशानियों से तुम्हारा कोई लेना देना नहीं होता..बस अपने बारे में सोचते हो। मैं पागल हूं क्या जो चीखती चिल्लाती रहती हूं। तुम अपने मुंह में दही जमा लेती हो..?
मैंने वो कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था...अनहोनी घटित करा दी...मैडम..अनहोनी..लेकिन हार गई...यह भी बेकार गया..अफसोस..
अधेड़ सिल्बी पल्टी..अपनी जवान बेटी एलीना की हथेलियां जोर से पकड़े हुए अपने छोटे से दमघोंटू कमरे में घुस गई। यही वह अस्थायी पनाहगाह था जहां दोनों मां बेटी पिछले कुछ समय से छुपती चली आ रही थीं। इस वक्त यह पनाहगाह कितना सुकुनदायक था ये कोई इन दोनों से पूछे। मिताली का माथा घूम गया.
क्या..ओह..कहीं उसकी सलाह पर तो अमल नहीं कर लिया ? हे भगवान...बात तो पता चले..कोई और बात तो नहीं...।
घर में देर तक सन्नाटा छाया रहा। मेरी धड़कन बढी हुई थी। कोई तो बात हुई है जो नहीं होनी चाहिए थी। मेरी आंखों के सामने पूरी फिल्म घूमने लगी।
एक साल पहले ही सिल्बी अपनी जवान होती बेटी की ऊंगली थामे उसके पास आई थी, काम के लिए। उसकी संस्था ने भी कहीं भेजने से मना कर दिया था। सिल्बी की शर्त्त थी कि जहां भी जाएगी, अपनी बेटी के साथ जाएगी। उसे अकेली नहीं छोड़ेगी। सिल्बी का स्वभाव इतना मिलनसार था कि हर कोई घरेलू कामकाज के लिए उसकी मांग करता, उसे ले भी जाता, बेटी के साथ और कुछ ही दिन बाद दोनों मां बेटी लौट कर संस्था के होस्टल में वापस आ जातीं। संस्था वाले भी परेशान हो उठे थे। मां बेटी पर दवाब बन रहा था कि या तो वे गांव लौट जाएं या बेटी को कहीं छोड़ कर घरो में काम पर लग जाए। मिताली की नजर सिल्बी पर जब पड़ी, वो भीतर ही भीतर टूट चुकी थी। न वह अपने गांव लौटना चाहती थी न ही अकेली किसी घर में काम करने को तैयार थी। जहां जाएंगी, दोनों साथ। अजीब जिद है।
मिताली ने इन्हें देखा तो उम्मीद बंधी। अच्छा होगा, दोनों मां बेटी साथ रहेंगी, एक से दो भले। बहुत विचार कर मिताली ने जब अपने घर चलने का प्रस्ताव दिया तो सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। मिताली ने सबके चेहरे पर रहस्यमयी छाया आते जाते देखी। उसने नोटिस किया।
कोई बात है क्या ?”
ये दोनों आपके काम की नही हैं। हम आपके यहां इन्हें नहीं भेज सकते।
सिल्बी की आंखों में चिरौरी कौंधी। उसकी बेटी कोने में बैठी शायद साड़ी में फौल लगा रही थी। मिताली ने सिस्टर की तरफ सवालिया आंखों से देखा..
मैं इन दोनों को अपने पास ले जाऊंगी, फिर क्या प्रोब्लम..
फौल लगाते लगाते एलीना की नज़रें पहली बार मिताली की तरफ उठी. उनमें खौफ भरा था। वे आंखें अनगिन सवालो से लैस बंदूक की तरह दिख रही थीं, जिसका ट्रिगर कभी भी दब सकता है। मिताली सिहर गई। कभी देखी नहीं ऐसी आंखें..। घर पर रात दिन ये आंखें यूं ही दिखेंगी तो जीवन कठिन हो जाएगा। मिताली ने अपनी नजरें उधर से हटा लीं। सिल्वी ने जाकर जोर से एलीना का हाथ पकड़ कर उसे खड़ा कर दिया।
ये लोग तुम्हारे काम के नहीं हैं, मैं अब तक इन्हें तुम्हारे पास भेज चुकी होती। इन्हें नहीं भेजने के पीछे कोई वज़ह होगी। अब जब तुमने तय कर लिया है, इन्हें ले ही जाने का तो इनका सच बता देना चाहती हूँ।
सिस्टर गंभीर दिख रही थीं, चिंतित भी लगीं।  
मिताली सिस्टर के करीब आई...
आप जो भी कहें कृपया धीरे कहें, मैं नहीं चाहती की यहां बैठे सभी लोग सुनें।
मिताली को लगा था की ज़रूर कोई ऐसी-वैसी बात होगी जिसकी पर्देदारी ये लोग लंबे समय से करते आ रहे थे। वैसे वह सुन भी लेना चाहती थी की जिन्हें वह घर ले जाना चाहती थी, उनकी सचाई पता तो होनी ही चहिये।
सिस्टर वैसे तो स्वभाव से कोमल थी लेकिन उनकी आवाज़ कड़क थी। इसलिए मिताली के मना करने पर भी उनकी आवाज़ सिल्वी और एलीना दोनों तक पहुँच गई-
ये लड़की मिर्गियाह है .. इसे दौरे पड़ते हैं .. कभी भी ..कहीं भी ..किसी भी जगह ...इसलिए हम इन्हें न तो कहीं भेजते हैं न ही कोई इन दोनों माँ-बेटी को अपने यहाँ रखता है।
अगर संभव हो तो बेटी को आप संस्था के होस्टल में रख लीजिये, मैं माँ को ले जाती हूँ...सिल्बी मिलने आती रहेगी।
सिस्टर और मिताली दोनों ने सिल्बी की तरफ देखा, सिल्बी एलीना की तरफ झुकी हुई थी और एलीना ...जोर से उसके मुँह से चीत्कार निकल गई...एक ऐसी करुण चीत्कार जैसे किसी मेमने का गला दबा दिया गया हो. आँखें ऐसे पलट गयीं जैसे हलाल किये जाने वाले बकरे की कातर आँखें..हाथ पैर अकड़ने लगे उसके..न जाने किस दिशा में देख रही थी आंखे, मुंह से सफेद पानी की पतली धारा निकल रही थी। उसका पूरा चेहरा पहली बार देखा मिताली ने। चेहरा आधा जला हुआ, उसकी खाल सिकुड़ी हुई थी। एक तरफ चिकना, गोरा चेहरा दूसरी तरफ झुलसा हुआ। एलीना के कंठ से तरह तरह की करुण आवाजें फूट रही थीं। दोनों हाथों की ऊंगलियां ऐंठ गईं थी। ऐसा लगा कि वे उंगलियां कहीं इशारा करते करते ऐंठ गई थीं। वह कुछ दिखाना चाह रही थी। कुछ अदृश्य था, हवा में, जो सिर्फ एलीना को दिख रहा था। सिल्बी उसे सहजने में लगी थी। बाकी सारे लोग स्तब्ध थे।
अचानक सिस्टर मिताली की तरफ मुखातिब हुईं-
देखा, देख लो, इसलिए नहीं भेजती कहीं इन्हें..
मिताली डरी हुई थी। सिल्बी उसे खींच कर दूर ले गई। थोड़ी देर तक अदम्य शान्ति छाई रही वहां, सिस्टर, मिताली सब एकदम चुप्प...गहरा सन्नाटा छाया था। मिताली समझ नहीं पा रही थी की वह क्या करे..उसका चेहरा एक कशमकश में डूब-उतरा रहा था।
एलीना को लेकर एक छुपे कोने में सिल्बी ले गई थी।
अचानक सन्नाटे को चीरती सिल्बी की आवाज़ गूंजी-, मैडम आप हमें ले चलिए, मैं वादा करती हूँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी...इसे दौरे सिर्फ 5 मिनट के लिए आते हैं..वो मैं संभाल लूंगी। 
कभी कभी आवाज भी हथियार होती है। मन का मैल तो काटती ही हैं, दुविधाएं भी काट देती है। मिताली ने एक नज़र सिस्टर को देखा। अब भी अगर ले जाना चाहें तो हमें कोई दिक्कत नहीं। बट, प्लीज, डोंट ब्लेम अस, यूओर डिसीजन्स...हमें कहीं न कहीं सिल्बी को काम दिलाना ही है। इसकी जिंदगी का सवाल है। हम तलाश कर रहे हैं..पर आपको अपना फैसला खुद ही करना है।
मिताली सोच में थी। लेकिन फैसले पर पहुंच गई थी। सारी शंकाओं पर उसकी जरुरत हावी हो गई थी। सच यह था की मिताली भी बिना मेड के गंभीर समस्याओं का सामना कर रही थी. बिना मेड, घर और ऑफिस दोनों को संभालना बहुत दुष्कर होता जा रहा था।  
अब वे दोनों यानि सिल्बी और एलीना मिताली के घर पर थीं और मिताली न जाने किन झंझावातों से गुज़र रही थी. कभी ख्याल आता कि कहीं उसने इन दोनों को लाकर गलती तो नहीं की, कभी यह कि न जाने कैसी हैं ये दोनों, क्योंकि वे दोनों उसे थोड़ी सी रहस्यमयी भी लगी थीं, घर आने के बाद जब उसने सिल्बी से उसके पति के बारे में जानना चाहा तो सिल्बी ने एक निश्चित उत्तर नहीं दिया।. कभी वह कहती ...मेरा पति नहीं है ...कभी कहती ..वह हमें छोड़कर भाग गया और इस सवाल पर नज़रें चुराती या झेंप जाती। वह बचती थी इस सवाल से। कई बार जवाब देते देते कमरे से घुस जाती..। उसे पति से संबंधित सवाल बहुत नागवार लगते थे।
सिल्बी का मन होता कि मिताली से पूछे कि आपके पति कहां हैं। आप अकेली क्यों रहती हैं। आपकी बच्ची कभी अपने पापा का नाम क्यों नहीं लेती। मालकिन थी वो। कहीं बुरा ना मान जाए। पर मिताली की जीवन भी उसे कम रहस्यमय नहीं लगता। कुछ मामला यहां भी है जिसने मैम का जीवन भी दर्द से भर दिया है। दफ्तर से लौट कर खामोश मिताली आकाश निहारा करती है। दो दर्द एक छत के नीचे वक्त काट रहे थे।  
इधर मिताली के जेहन में उठते सवालों और सिल्बी के अनसुलझे जवाबों ने उसकी नज़र में सिल्बी को रहस्यमयी बना दिया था और एलीना इसलिए रहस्यमयी थी क्योंकि वह कुछ बोलती नहीं थी, बस अजीब सी नज़रों से कभी किसी चीज़ को, कभी किसी चीज़ को घूरती रहती। काम-धाम करना तो दूर की बात। सिल्बी जरुर दिनभर काम में जुटी रहती। बीच बीच में एलीना को देखती। उसकी रंगहीन आँखों से मिताली को बहुत डर भी लगता था। वे रंग बदलने वाली आंखें थीं। समय समय पर रंग बदलती हुईं। हमेशा पीछा करती हुई आंखें।
उसके मन में बुरे-बुरे ख्याल भी आते थे क्योंकि उसने सुन रखा था कि मिर्गी के पेशेंट दौरा पड़ने के क्रम में अजीब-सी हरकतें भी करते हैं, जैसे हाथ-पैर पटकना, गला दबाना...। एक पल को सिहर उठी वह कि कहीं वह घर पर न हो और इसे दौरा पड़े और इसने मेरी बच्ची का गला दबाने की कोशिश की तो...हाय मेरी फूल-सी बच्ची.। अब उसे लग रहा था कि उसने इन दोनों को लाकर गलती ही की। पर अब कर भी क्या सकती थी. रोने का, बहुत जोर-जोर से रोने का मन कर रहा था पर रोए किसके सामने। कोई ऐसा नहीं था जिसके सामने घरेलू-राग गा सके। इन्हीं झंझावातों से जूझते उसने हारकर सिस्टर को फ़ोन मिलाया-
‘हैलो सिस्टर, मैं मिताली ....आगे वह कुछ बोल नहीं पाई, आवाज भारी हो गई थी। ’
‘एनी प्रॉब्लम मिताली ...मैंने तुम्हें पहले ही कहा था ...सिस्टर बोल पडीं। ’
‘नो सिस्टर ...नथिंग...बस मैं सिल्बी के पति के बारे में जानना चाहती थी...मिताली ने खुद को संयत करते हुए कहा।
‘ओह..। देखो मिताली इसके पति के बारे में ठीक ठीक तो मुझे भी पता नहीं, पर हाँ उड़ती हुई एक बात पता चली थी कि वह कोई बड़ा मालिक है जिसके यहाँ सिल्बी काम करती थी और एलीना उसी की बेटी है। अब कौन है, कहां रहता है...ये सब हमें नहीं पता। हमने पूछा भी नहीं। संस्था में गांव का पता दर्ज है, जहां उसके घरवाले रहते हैं।’
‘ओके .. थैंक्स....कहकर मिताली ने फ़ोन रख दिया.
एकाध सप्ताह बीत गए. सिल्बी और एलीना दोनों का मन भी यहाँ लग गया था और मिताली कि समस्या भी सॉल्व हो गई थी. एलीना को यहाँ दौरे भी नहीं पड़े थे अबतक, लेकिन एक दिन किसी बात पर मिताली ने एलीना को जोर से डांट दिया। उस दिन उसे फिर से दौरा पड़ा। इस बात का मिताली को तो कुछ दिनों बाद पता चला क्योंकि उस दिन वह हड़बड़ी में थी और दफ्तर के लिए निकल गई थी।
एक बार फिर किसी बात पर मिताली ने जोर से एलीना को आवाज़ दी तो घबराती हुई सिल्बी आई-,‘मैडम इसे मत डांटिए प्लीज़...उस दिन जब आपने डांटा था तो उसे दौरा पड़ गया था, यहाँ जब से आई है तब से इसे उसी दिन पहली बार ही दौरा पड़ा था। जब से यहां आई है, दौरे कम पड़ने लगे हैं। किसी बात का तनाव होता है या किसी बात से डर जाती है तो जल्दी जल्दी पड़ते हैं।
मिताली ने सिल्बी से पूछा – ‘इसे दौरे कब से पड़ते हैं ..बचपन से, मेरा मतलब है जन्म से ही’...?
‘नहीं मैडम ...यह थोड़ी छोटी थी और मेरे मामा मामी के पास थी गाँव में। मैं शहर में थी काम पर। पैसे भेजती रहती थी। सोचा था वहां पल जाएगी, यहां का कहां मैं घर घर लेकर फिरती। बच्चों वाली मेड को कोई काम पर नहीं रखता। मुझे क्या पता था कि मेरे अपने ही मेरी बच्ची के साथ....सिल्बी कराही।
मेरा मामा बहुत बुरा आदमी था मैम। पता नहीं उसने क्या किया इसके साथ। मुझे कुछ पता नहीं चला। एक दिन खबर मिली कि यह बुरी तरह जल गई है। तब ये 10 साल की थी। उसके बाद ही इसे दौरे पड़ने लगे, शायद दिमाग कि कोई नस जल गई है, बहुत डाक्टरों को दिखाया। अब एम्स में भी दिखा रही हूँ। पर कोई फायदा नहीं. तबसे मैं इसे किसी के भी पास नहीं छोडती। अकेला कभी नहीं छोडती...’ भर्राई आवाज़ में सिल्बी बताती जा रही थी.
ओह....मिताली की आंखों में अखबारों की कतरने, खबरें घूमने लगी। ऐसी कितनी खबरें भरी होतीं है। तो ये बात है...एलीना भी...तभी किसी पुरुष की छाया से डर जाती है। शायद सिल्बी ने इसीलिए काम के लिए मर्दविहीन घर की तलाश करती है। मिताली को याद आया कि उसने संस्था में फार्म भरते समय घर के सदस्यो की डिटेल्स दी थी। उसमें दो सदस्य-मिताली और रेशमा दर्ज थे। इसका मतलब सिस्टर अंदर से चाहती थी कि सिल्बी मेरे घर आए..। सिल्बी का चेहरे पर उदासी, हताशा और नैराश्य की मिली जुली परछाई तैर रही थी। पहली बार गौर किया। जंगल मे तपे हुए चेहरे वक्त की मार खाकर कैसे बुझे हुए कंदील में बदल जाते हैं। कितनी घिसाई हुई होगी शहर में, बड़े मकानो में, कितने मालिक, कितने मालकिन..कितने कितने सितम..। कितनी आवाजें, कितना शोर इतने सालो में पचा कर सिल्बी का चितकबरा जिस्म तैयार हुआ होगा। सिल्बी सपनों की जमीन से उखड़ी हुई ठूंठ की तरह खड़ी थी, वहां। मिताली ने ठंडी सांस छोड़ी। दोनों मां बेटी के प्रति सहानूभूति और दिलचस्पी जगी। उसने धीरे-धीरे ऑबज़र्व करना शुरू किया।
एलीना तेज़ आवाज़ से डर जाती है और किसी पुरुष की उपस्थिति भी उसे डराती है। घर में कोई पुरुष गेस्ट आ जाए तो एलीना कभी पानी देने भी नहीं जाती, न ही सिल्बी उसको भेजती थी। दरवाजे की घंटी बजे तो सबसे धीमी चाल में चलती हुई एलीना जाती और ड्राईवर, धोबी या पेपरवाले को देखते ही तेज कदमों से लौट आती, बिना दरवाजा खोले। मिताली के यहाँ आये किसी पुरुष मेहमान को वह पानी तक देने जाने से घबराती थी। मिताली के दिमाग में एलीना को लेकर अब हर पल उधेड़बुन चलती रहती थी। वह एलीना के बीमारी के कारणों का अनुमान लगाती थी और हर बार उसकी आशंका एक ही जगह जाकर ठहर जाती- ‘क्या पता सिल्बी जब उसे अपने रिश्तेदारों के पास छोड़कर आई थी तब वहां बचपन में उसके साथ कोई हादसा हुआ हो.. शायद इसीलिए वह पुरुषों से डरती थी। वह जली कैसे, उसकी आंखों में इतना खौफ क्यों है, वह पुरुषों की छाया से भी डर क्यों जाती है। सिल्बी को शायद ज्यादा नहीं पता। उसकी बेटी का बचपन अंधेरे में रहा है। वह उसकी बीमारी के लक्षणों को ठीक से पकड़ नहीं पाई है आजतक। तभी तो वह बार बार एलीना की शादी को लेकर चिंतित दिखती है। एलीना मिताली की 3 वर्षीय बेटी रेशमा से जरुर हंसती खेलती दिख जाती है। एलीना को हंसते हुए तभी देखा था मिताली ने जब रेशमा उसके बाल खींच कर तालियां बजाती....हुर्रे...। मिताली चाहती भी नहीं कि वह उसकी बेटी से ज्यादा घुले मिले। क्या पता, कब अटैक आए और बच्ची डर जाएं। सिल्बी को साफ साफ बता दिया था कि एलीना को दूर रखे। सिल्बी भरसक कोशिश करती कि एलीना अपने कमरे में बैठी रहे। कभी कभार अपनी हेल्प के लिए आवाज लगा देती।
बारिश के दिन थे। ऊमस थी समूची फिजा में। शाम को दफ्तर से लौट कर मिताली अपने बालकनी में बैठी बाहर भीतर दोनों तरह से गीली हो रही थी। दूर ऊंची इमारतें बारिश की धुंध में खोई हुई दिखीं। जैसे उसकी जिंदगी धुंध से भर गई है, इमारतों की तरह। कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। यहां रहे या वापस लौट जाए, उसी भवन में, जहां सालों रहती आई है। इतनी मुश्किल से बच्चों समेत निकल पाई वहां से। कुछ छूट गया था, वहां, पटपड़गंज के उसी फ्लैट में। चलते समय कैसे दहाड़ा था अखिलेश-जाओ, जाओ.. तुम्हें मुक्ति चाहिए,  आजाद, पुरुषविहीन दुनिया तुम्हें लुभा रही है। तुम जैसी औरतों को ना पति चाहिए ना साथी। अकेली दुनिया बसाओ। कोई मर्द नहीं बना तुम्हारे लिए। तुम्हारे कहने पर हम साथ रहे, शादी नहीं की। तुम जिंदगी को प्रयोगशाला बना रही थी और मैं मूर्ख तुम्हारा साथ दे रहा था। तुम जानती थी कि शादी होती तो रिश्तों को झटकना इतना आसान नहीं होता तुम्हारे लिए...हमारे रास्ते अलग हुए...मुझे अपना पता भी मत देना..। अब मैं फिर से प्रेम करुंगा, शादी भी करुंगा...तुम देखना, घर कैसा होता है और समझौते कैसे होते हैं..।
मिताली ने अखिलेश के प्रलाप को रोका...लिव इन में रहने का फैसला एतकरफा नहीं था, मुझ पर इल्जाम न लगाओ। तुम भी शुरुआती दौर में शादी को लेकर कन्फयूज थे। हम दोनों चाहते थे कि कुछ वक्त साथ रह कर देखें, समझे और फिर...
और कितना वक्त चाहिए तुम्हे मिताली, बच्चा क्यों पैदा किया..., तुमने तो इतना ही समझा कि मुझे अपना दुश्मन मान लिया...साथ रहते हैं तो कुछ समझौते करने पड़ते हैं और तुम बिल्कुल तैयार नहीं हो..।
अखिलेश बौखला रहा था।
मिताली जैसे काठ की हो गई थी। उसका अपना फैसला था जो अलग राह लिए जा रहा था।
ये फैसला तो उसे बहुत पहले कर लेना चाहिए था। देर हुई। अखिलेश ने मान लिया था कि जिदंगी अब उसकी मुठ्ठी में है। मिताली की इच्छाएं, उसके सपने, उसका मोबाइल, उसकी कविताएं, उसका फेसबुक एकाउंट...हर जगह अखिलेश की छाय़ा। वही पतियों वाली टोकाटोकी, पतियों वाली धौंस, वही मोबाइल पर एसएमएस चेक करना और रिएक्ट करना और गुस्से में चीखना...ये सब यहां नहीं चलेगा...तुम मेरे घर में रहती हो, न भूलो..और एक दिन तो हद हो गई जब आधी रात को मोबाइल पर किसी दोस्त का भेजा एक शेर-ख्वाहिशो का काफिला भी अजीब है, कमबख्त गुजरता वहीं से है जहां रास्ते नहीं होते... पढ कर अखिलेश चीखा--.भठियारपन नहीं चलेगा यहां..समझी...। मिताली ने समझाना चाहा कि उसने दिन में ये शेर मांगा था, कहीं इस्तेमाल करने के लिए, जो दोस्त ने अब भेजा है...पर अतिशय प्रेम अंधा होने के साथ साथ बहरा भी हो जाता है, सुनता नहीं। ऐसा प्रेम नियंत्रित करना चाहता है और चीजों को अपने चश्मे से देखता है। अखिलेश भी बहरा हो चुका था। मिताली की बाहरी दुनिया में जैसे जैसे पुरुष मित्रों की संख्या बढ रही थी, अखिलेश उतना ही कुंठित होता चला जा रहा था। और उस रात...भठियारिन शब्द सुनकर घृणा की एक लहर उपर से नीचे तक दौड़ गई पूरी देह में। ये आखिरी कील थी रिश्ते की जो गहरे धंस गई थी। साथ रहने की नई और प्रायोगिक अवधारणा भी जब शादी की गति को प्राप्त हो गई तब क्या..?
जिंदगी की जैसे सवालों के धुंध में घिर गई थी। उसने दूर क्षितिज में छिटकते बादलो को देखा। हल्की फुहारें बरसने लगीं। उसे लगा शायद धुंध साफ होगी जल्दी। उसने हाथ बढाया, बारिश की बूंदे हथेलियों पर झरने लगीं। किसी नेमत की तरह। सिल्बी उसके पास न जाने कब आकर खड़ी हो गई थी। उसे पता नहीं चला। अपनी जिंदगी से जूझती हुई मिताली ने सिल्बी को अपने बारे में कोई भनक नहीं लगने दी थी।
बहुत उमस है, चिपचिपी गरमी वाली, धरती की गरमी अभी निकली नहीं, इसलिए,
सिल्बी एकदम पास आकर खड़ी हो गई थी। कुछ लेंगी, चाय बनाऊं..
आं..हां...नहीं...रहने दो...लिम्का है तो दे दो...गैस-सी बन रही है..इसे पी लूं तो शायद ठीक हो जाएं..
मिताली ने सिल्बी को जाते हुए रोका, इधर आओ...
एक बात बताओ..एलीना की हालत कभी ठीक नहीं होगी क्या...क्या जीवन भर ऐसी ही रहेगी..कुछ सोचा है..
डॉक्टर कहते हैं कि इसकी शादी कर दो यह ठीक हो जाएगी। अब कौन करेगा इससे शादी..कहां से लड़का लाऊं...गांव बिरादरी में सबने मना कर दिया है, तभी तो साथ लिए फिर रही हूं मैडम, जब तक हूं तब तक निर्वाह, आंख बंद, सारी चिंता खत्म..क्या कर सकती हूं..बताइए...
मिताली ने हैरानी से पूछा..लड़के नहीं मिल रहे, अच्छा..?? तुम बताओ ही मत, चुपचाप शादी कर दो, ठीक हो जाएगी, फिर क्या ।’
‘मैडम मैंने बहुत कोशिश की पर इसकी जली हुई शक्ल की वज़ह से कोई इससे शादी करना नहीं चाहता। मैंने तो इसके लिए बहुत से पैसे भी जमा कर रखे हैं, जो इससे शादी करेगा उसे पैसे भी दूँगी.’         
अब तो इसके लिए भी तैयार हूँ कि कोई पैसे लेकर भी इसके साथ कुछ कर ले...शायद ठीक हो जाए। कोई नहीं मिलता मैडम, अब तो जादू टोना ही करना पड़ेगा..सिल्बी आजिज आ चुकी थी। 
हरियाणा में बहुतेरे कुंवारे लड़के मिलते हैं..वही ढूंढे कोई...
सिल्बी मिताली की सलाह सुने बगैर लिम्का लाने चली गई। बारिश थम गई थी। सांझ की स्याही आकाश पर उतरने लगी थी।   
अचानक किकियाती हुई आवाज आई। मिताली उठकर दौड़ी। बच्चों वाला घर है। डर तो लगा ही रहता है। वैसे भी एक डर इस घर में रहता है। कुछ तो है जो अब तक सिल्बी छिपाती आ रही है। आवाज सिल्बी के कमरे से आ रही थी। परदा हटाया, एलीना अपने बिस्तर चित्त  पड़ी दोनों पैर, हाथ रगड़ रही थी। सपने में थी या अर्द्दचेतना, सारी चादर सिमट गई थी। आंखें मुंदी हुई। कंठ से आवाजें, किकियाने की। वह हिल रही थी और हाथ पैर उठाने की कोशिश कर रही थी।  
सिल्बी पास में खड़ी अजीब सी मुद्रा में दिखी।
क्या हो रहा है...जगाओ इसे..बुरा सपना देख रही होगी..मिताली अक्सर बुरे सपने देखते हुए चिंहुक कर जगती रही है। कई बारे उसकी आंखों से नींद में ही टपके आंसू से गाल गीले रहे हैं। उसकी कंठ से भी आवाजें निकलती रही हैं। बड़बड़ाई भी है...पर सुनने वाला कौन..अपनी ही आवाज कानों में पड़ी और नींद खुल गई झटके से।
नहीं मैडम..मत जगाइए..जब भी ये चित्त सोती है, ऐसे करती है। मना करती हूं, चित्त न सोया कर...कभी सोने नहीं देती। आज पता नहीं कैसे...
क्यों, चित्त सोने में क्या प्रोब्लम है ?”
हमारे गांव में कहते हैं, जिन्न फिदा हो जाता है कुंवारी लड़कियों पर और ऊपर से दबोच लेता है..मैं तो रात में इत्तर भी नहीं लगाने देती इसको...सरसराती हुई आवाज में सिल्बी जैसे कोई रहस्य खोल रही थी।
अच्छा...!!!
मिताली हो हो हो कर हंसी। कुछ पल के लिए एलीना की छटपटाहट का अहसास जाता रहा।
ये ट्राइबल भी ना...क्या क्या वहम पाले रखते हैं...बात कुछ और..और कारण कुछ और..ओ गौड..तभी एलीना की प्रोब्लम कुछ और इलाज कुछ और...।  
तभी तो मैडम जी...हम सोचते हैं इसकी शादी करा दें...शायद ये सब बंद हो जाए..
एलीना बेचैनी से बिस्तर पर अपनी पीठ रगड़ते रगड़ते शांत हो रही थी। मिताली को समझ में आया, ये किसी बुरे सपने का असर था। वह भी तो रातो में अखिलेश को तलाशते हुए बिस्तर पर ऐसे ही देह रगड़ लिया करती है। ठंडा बिस्तर भायं भायं करता है, वह नींद से जग कर बच्चो को अपने से चिपका लेती है। ये सपनो का जिन्न है, जो सोते जागते, डराता रहता है। इसका इलाज कुछ और है। मिताली को लगा सिल्बी कहीं न कहीं अपनी बेटी की बीमारी को गलत तरह से देख समझ रही है। वह मानसिक संताप को दैहिक ताप से जोड़ रही है। वह दोनों में फर्क नहीं कर पा रही है। कैसे समझाएं..मर्द के सिर्फ दैहिक स्पर्श से कौन-सी स्त्री का संताप दूर हुआ है। मर्दो के साथ कभी रही नहीं सिल्बी...कैसे समझेगी। खुद भी झेल रही है। अब बेटी की बीमारी का इलाज किस दिशा में ढूंढ रही है। ओह..  
और फिर एक दिन, दोनों मां बेटी डाक्टर से पास गईं। वक्त पर लौटी नहीं। इंतजार की बेचैनी में मिताली परेशान हो रही थी।
मिताली के सामने सिल्बी के यह वाक्य गूंज रहे थे- अब तो इसके लिए भी तैयार हूँ कि कोई पैसे लेकर भी इसके साथ कुछ कर ले लेकिन कोई नहीं मिलता मैडम...जादू टोना करना पड़ेगा...
फिर मिताली के सामने सिल्बी का आज का वाक्य – मैंने वो कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था...अनहोनी घटित करा दी...मैडम..अनहोनी..लेकिन हार गई...यह भी बेकार गया..अफसोस..।
मिताली को समझते देर नहीं लगी कि सिल्बी एलीना के साथ कहाँ से लौट रही है...मिताली ने सिल्बी के दोनों कन्धों को थामते हुए जैसे ही कुछ और कहना-पूछना चाहा। सिल्बी बिलख पड़ी ...मैडम इसके साथ कोई सोने को तैयार नहीं होता, शादी तो दूर की बात है। आज ऐसी ही एक कोशिश करके आ रही हूँ, जैसे ही वह लड़का इसके सामने आया, इसे दौरे पड़ने लगे और वह चीखता हुआ भाग खड़ा हुआ। न जाने यह कैसी किस्मत लेकर पैदा हुई है। मैं नहीं चाहती कि इसे अपने जैसी ज़िन्दगी दूं...बिनब्याही माँ बन जाये यह...फिर यह खुद का ख्याल नहीं रख सकती, बच्चे का ख्याल कैसे रखेगी...मैंने तो इसका ख्याल रख लिया मैडम पर मेरे बाद इसका कौन है...इसलिए चाहती हूँ कि इसकी शादी हो जाए किसी तरह पर इसके नसीब में तो सुख बदा ही नहीं है न ।
सुबकते हुए सिल्बी कहती जा रही थी और मिताली जो अब तक गरज रही थी अब उससे कुछ कहा नहीं जा रहा था। कैसी मां है ये औरत ? अपनी संतान के भविष्य के लिए हर मां सजग रहती है। बहुत कुछ करती है, किंतु इसने तो दुनिया के सारे पहाड़ अपनी छाती पर रख लिए। जीवन सुधारने की शुरुआत ही जब उसके उजड़ने से हो तो ? हारे को हरिनाम ही तो बचता है। इसके लिए हरिनाम यही था शायद, अंतिम उपाय, मगर कितना त्रासद।
मुझे कुछ तो करना पड़ेगा, सिल्बी ऐसे नहीं मानेगी। इस उम्र में समझाना मुश्किल है। मिताली को समझ में आ रहा था कुछ-कुछ...ये अंधेरा यूं ही नहीं किसी लड़की के जिस्म में भरता हैं। असुरक्षित बचपन के अंधेरे से जूझती हुई इस बच्ची का ठौर कहीं और है। एक नयी जमीन उग रही थी, उस घर में। मिताली को एलीना से बहुत बात करनी है अब। बहुत कुछ पूछना है, उसके भीतरी संसार को खंगालना है। भीतरी अंधेरे को उजाले से भरने वाले चिकित्सक की तलाश करनी होगी।    
मिताली की नम आवाज आई-,‘सिल्बी तुम चिंता मत करो, मैं जब तक जिंदा हूँ, एलीना का ख्याल रखूंगी, तुम निश्चिंत हो जाओ, कहीं ले जाने की जरुरत नहीं, मैं देखूंगी इसकी बीमारी को, मुझ पर छोड़ो, जैसा कहूं, मान जाओ। अपने वहम छोड़ दो। पर...
मिताली अटकी- तुम भी मुझसे एक वादा करो, अगर मैं तुमसे पहले चली गयी तो तुम मेरी बेटी का ख्याल रखोगी। बेटी की चिंता है, लड़की जात है, मेरे बाद उसका जीवन तबाह हो जाएगा।’
मिताली के सीने से धुंए का कोई गोला उठा, हलक में फंस गया।
अचानक सिल्बी के आंसू सूख गए..विस्फारित नेत्रों से उसने मिताली को देखा, आँखों में कई सवाल लिए और उनके जवाब भी उसे खुद-ब-खुद मिल गए। न उसने मिताली से कुछ पूछा न मिताली ने बताया..हाँ, दोनों के बीच कायम हुए आंसुओं के रिश्ते ने वो सबकुछ कह दिया था जो अनकहा था अबतक। अब दोनों के आंसू साथ-साथ बह रहे थे और एक कोने में खड़ी एलीना और उसके बालों से खेलती रेशमा अपनी-अपनी मांओं को चुपचाप देख रही थीं...।  .