Friday, November 25, 2016




दिन जो पखेरु होते

--गीताश्री


दशहरा के नितांत निचाट से दिन में बचपन की बात ! न कोई उत्साह न ध्यान कि माँ और भाभी के आज खोइंछा भरने के दिन.  चावल, दूब, हल्दी की गाँठ, बताशे और कुछ पैसे डालेंगी. विदा से पहले की रस्म ! दुर्गा की आंख कल रात खुल गई होगी. सब पंडाल में एकत्र कि आँख खुले तो देवी की पहली नज़र उन पर पड़े. मुझ पर सालों पड़ती रही है. अष्टमी की रात भीड़ में सबसे आगे. वे आँखें नहीं भूलतीं. सबको लगता कि आँखें उनको ही देख रही हैं. निहाल सब ! देवी की विदाई होगी तो औरतें खोइंछा देंगी.यह प्रथा अब ख़त्म है, जीवन में. मगर देवी दुर्गा बिना लिए विदा न होंगी. पानी उनका ससुराल. मुझे याद है कि मैने उत्सुकतावश माय से पूछा था कि दुर्गा के पति कौन? किससे शादी हुई? कहावतों और क़िस्सों की खान मेरी माय का जवाब-
" दुर्गा इतनी शक्तिशाली थीं कि उनके ज़ोर का देवता पूरे ब्रम्हाण्ड में नहीं मिला. अब स्त्री बिना ब्याही कैसे रहे? तो दुर्गा जी के हाथ में लंबा तीरनुमा भाला है, उसी की नोंक से अपनी माँग खुद भर ली."

ससुराल कहाँ ? कोई भुवन नहीं. जलसमाधि लेंगी.
भंसा दी जाएँगी. मुझसे बस यही दृश्य नहीं देखा जाता. कोई भी मूर्ति भंसावन नहीं देख पाती मैं.
महानगरी जीवन ने दशहरे का आनंद छीन लिया. पिछले दशहरे में अपने शहर में थी. अष्टमी नवमी वहीं. पंडाल में भी गई. लेकिन....
कहीं कुछ स्फुरन न हुआ. रस का संचार नहीं. क्या वयस्कता रस भंग कर देती है या दूरियाँ तटस्थ !
आँखें मुझे देख रही थीं और मैं पंडाल की भीड़ से त्रस्त !
जीवन का आनंद बच्चा होने और बच्चा बने रहने में है, बड़े होने में नहीं.
अब अहसास होता है जब हम बड़े हो गए हैं उन चमकीले दिनों को याद कर रहे.
दिल्ली में उनींदे बचपन की याद कर रही हूँ और चिंहुक रही हूँ बार बार. गगन गिल की किताब है दिल्ली में उनींदे. जब भी दिल्ली में उनींदे फिरती हूँ, याद आती है... किताबें. लोग और एक मीठी नींद जो बेफ़िक्र दिनों की धरोहर होती है. बचपन की स्मृतियों में डूबते हुए गहरा आनंद आ रहा. संपादक जी ने स्मृतियों के गहरे तालाब में छपाक से फेंक दिया है. उनींदी सी कहीं जा रही हूँ...किसी यात्रा पर...स्मृतियों का बोझ लिए. पलकों पर कुछ रंग दे गई हैं तितलियाँ. ऊँगलियों में उनके पंख हमेशा छोड जाते थे कुछ रंग. फूल से चुराए और उड़ाए रंग.
 कितने चमकीले थे वे दिन जो याद आते ही मीठी नींद भर रहे ...!

नींद वैसे ही जरुरी आँखों के लिए जैसे कंठ के लिए पानी और कानों के लिए सुरीली पुकार...!
कुछ सखी सहेलियाँ पुकार रही हैं. कुछ हमउम्र लड़के भी जो मेरे साथ खेल कूद और शरारतों का हिस्सा थे. गली में कंचे खेले जा रहे हैं, गुल्ली डंडा और पिट्टो खेला जा रहा है...
काँच की चूड़ियों के टुकड़े तलाशे जा रहे, गुप्त स्थानों पर लकीरें खींच कर छिपाई जा रही है, उसे ढूँढना और काटते जाना है. आइस पाइस खेलते हुए पूरी ज़मीन नाप रही हूँ और आकाश बाँहों में भर रही हूँ. गुड़ियों के लिए घर बना रही हूँ, ईंटें जोड़ कर. घरौंदा बनाने का मन है पर हमें अनुमति नहीं. दूसरी सहेलियों के घरों की छतों पर घरौंदे बन रहे जिनमें हम अपनी गुड़िया का बसेरा बनाएँगे. गुड़ियाओं को भी घर चाहिए. फिर मैं घर के बाहर दीवार से सटा एक छोटा सा घर बना ही लेती हूँ. हम घरौंदा क्यों नहीं बनाते ? दीवाली पर पूरी दुनिया बनाती है, हम क्यो नहीं? ललक होती थी अपने हाथों मिट्टी और रंग से लीपपोत कर छोटा सा घर बनाऊँ. बाहर सजाऊँ. पर हमें हर बार मना.  मैं तड़प जाती कि क्यों नहीं ? ज़िद कर बैठी. फिर माई ने बताया कि अपशकुन होगा. वर्जित है. दीवाली के आसपास ही मेरे चचेरे भाई की हत्या हुई थी, प्रेम का मामला था. मान्यता है कि किसी उत्सव के दिन या आसपास कुछ बुरा घटे तो वे दिन अछूत हो जाते हैं उत्सव के लिए. घरौंदा दीवाली से एक दो दिन पहले बनाते थे. उन्हीं दिनों घटना घटी होगी और उसके बाद हम बहनों ने घरौंदे नहीं बनाए. तरस बची रही.
हाँ तो मैं यहाँ थी कि गुड़िया के लिए घर बनाया. अब घर बना तो अकेली औरत उसमें कैसे रहेगी ? तब सिंगल वीमेन की न अवधारणा थी न हम इस तरह सोचने के क़ाबिल थे. सो सहेलियों ने मिल कर मेरी गुड़िया के ब्याह  की योजना बनवाई.
जैसे होती है शादियाँ. शाम को वैसे ही बारात आई, बच्चों की तीन पहिया साइकिल पर. मिकी मेरी दोस्त की गुड्डी और मेरा गुड्डी . बारात में शामिल सारे मोहल्ले के बच्चे. मिकी की भाभी ने इतनी कृपा की कि बारातियों को पूरी सब्ज़ी खिलाई और हम गुड़िया को विदा कराके घर ले आए. घर बसाने की ज़िम्मेदारी मेरी. सो वही किया. घरौंदा बना नहीं सकती थी. घर के बाहर ईंटें जोड़ कर घर बनाया और ईंटों के ही दरवाज़े. नवदंपति के सोने के लिए पलंग का इंतज़ाम करना जरुरी था सो बाबूजी के टेबल से लकड़ी का पेन और पैड स्टैंड उठा लाई चुपके से जो चौड़ा था. छोटे पलंग की तरह दिखता था.
घर के अंदर बेड सजाए. दर्जियो के मोहल्ले से रंगीन कपड़ों की कतरने चुन कर लाई थी, उन्हें चादर और गद्दे की तरह यूज किया. दोनों का गृह प्रवेश हो गया. सारे बाराती लौट गए अपने अपने घरों में. मैं सुख में कि हमारे गुड्डे का परिवार बस गया.
सुबह जगते ही हम भागे गुड्डा घर की तरफ !
दुल्हन गुड़िया की अगले दिन पग फेरी होनी थी. मिकी आने वाली थी दोनों को लिवा ले जाने.
"ये क्या ? " घर तो खुला पड़ा था. दरवाज़ा ध्वस्त. घर ध्वस्त. ईंटें बिखरी हुई थीं इधर उधर. मानों भूचाल आया हो. गुड्डा गुड्डियाँ ग़ायब ! मेरा रोना निकल आया. पड़ोस में रहने वाली मेरी बेस्ट सहेली सीमा मेरा चीख़ना चिल्लाना सुन कर दौड़ी आई...

बात मिकी तक गई. मिकी बस सड़क पार सामने ही रहती थी. धनाढ़्य मारवाड़ी परिवार की लड़की थी. आज अभी होगी कहीं...
थोड़ी देर में हमारी मंडली जुट गई. हमने तलाश शुरु की. इतनी रात को कौन यह शरारत कर सकता है? कुछ समझ नहीं आ रहा था किसी को. कितनी हँसी ख़ुशी बारात निकली थी. मिकी की उदार और ख़ुशदिल भाभी ने शादी के गाने भी गाए थे बन्ना बन्नी वाले. कौन कर सकता है ऐसी दुष्टता ? किससे पूछे ? हम इधर उधर जंगल झाड़ियों में घुसे ! दूर नाले के पास गए. झाड़ियों में लटका अटका गुड्डा मिला. नुचा हुआ. शरीर से दुल्हे के कपड़े ग़ायब. गुड़िया की खोज जारी थी. मिकी दहाड़ने लगी--"मेरी गुड़िया खोज कर लाओ, हमें नहीं रखना यह संबंध. शादी तोड़ दो. तलाक़ कर लो....! "
सीमा ने अंतत गुड़िया खोज निकाली , धूल धूसरित. मिकी ने गुड़िया समेटी और लगभग रिश्ता तोड़ते हुए दफ़ा हो गई.
उसके बाद कई दिन तक हमारे बीच अबोला रहा. मैं गुड्डा लेकर बेबस सी बाहर घूमती और सड़क पार मिकी गुड़िया हिला हिला कर दिखाती और चिढ़ाती ! मेरा गुड्डा अकेला रह गया था.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह काम किसने किया ? पूरी बच्चा पार्टी पता करने में लगी थी और नतीजे तक नहीं पहुँच पाती थी.
गर्मी की उमस भरी शाम थी और हम सब बाहर चारपाई डाल कर बैठे थे. दूर कहीं से " हुंआ हुंआ" की आवाज़ आ रही थी. डरावनी आवाज़ थी.
पड़ोसन चाची ने बताया कि रात को घूमते घामते सियारों के झुंड  इधर आते हैं और छोटे बच्चों पर आक्रमण करके उठा ले जाते हैं. लगता है गुड्डे गुड़िया को मनुष्य का बच्चा समझ कर उठा ले गए होंगे. बाद में समझ आया होगा तो झाड़ियों में छोड गए होंगे.
उस शाम के बाद हर रात सपने में भी हुआं हुआं सुनाई देता और मैं चिंहुक कर उठ जाती. गर्मी की रातें आँगन में सोते सोते कटतीं. सो नींद खुलती फिर डर कर आँख बंद कर लेती.
फिर एक दिन सीमा के साथ मैं दर्जियो के मोहल्ले गई , जहाँ कपड़े की बनी बनाई गुड़ियाएं मिलती थीं. मैने कपड़े के टुकड़े चुने और खुद अपने हाथो गुड़िया बनाई. अपना नक़ली मोतियों का माला तोड़ कर उसके गहने बनाए. अनगढ़ ही सही पर गुड़िया बना कर गुड्डे का अकेलापन दूर कर दिया.
मिकी दोस्ती करना चाहती थी. हमने कर ली पर गुड्डे गुड़िया का संबंध बीच में नहीं आने दिया.
इन्हीं दिनों बालमन ने रिश्तों का महत्व समझा और घर का भी , जो आजतक मन से न गया. दोनों बचाए जाने कितने जरुरी कि सियारों की टोली भी ढाह न पाए.
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मेरे बचपन के सुनहरे दिन गोपालगंज में बीते. सो सबसे ज़्यादा सुनहरी यादें वहीं की. सखियाँ वहीं ज़्यादा मिली. बाद के शहरों क़स्बे में लड़के ज़्यादा दोस्त बने. लड़कियाँ कम मिली. मैं दोनों में समान अभाव से एडजस्ट हो जाती थी. अब बात फूलो की. फूल वाले भोर की.
हम लड़कियों की टोली रोज़ सुबह फूल लोढने जाती थी डलिया लेकर. गोपालगंज छोटा सा शहर है. हम फूल लोढने में इतने उस्ताद कि चहारदीवारी फाँद कर फूल तोड़ लाते. कई बार घरवाले दौड़ाते और हम फुर्र. एक रोज़ किसी के प्रांगण में घुस गए. अक्टूबर का महीना था. नवरात्रि के दिनों में माँ को बहुत फूल चाहिए थे पूजा के लिए. डलिया भर फूल लाना जरुरी था नहीं तो टोली की लड़कियाँ भी चिढ़ातीं कि फूल नहीं तोड़ पाई. सो डलिया भरा होना जरुरी. फूल लोढने का जुनून हमें दूसरे मोहल्ले तक ले जाता और रोज़ वहाँ से कांड करते करते बचते आते घर तक.
उस भोर हरसिंगार का भरा पूरा पेड़ दिखा. फांद गयी दीवार और हरसिंगार के घने पेड़ के नीचे उसकी ख़ुशबू में पागल. पेड़ को खूब हिलाते रहे, हरसिंगार झड़ते रहे...! दीवार की उस तरफ से सीमा फुसफुसाती रही कि भाग आ...
मैं मग्न ! हरसिंगार झर रहे थे मेरे ऊपर...,मेरी पूरी देह भर रही थी फूलो से....! ख़ुशबू से तर थी मैं. कोई बाहरी आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी. दरवाज़ा खुला और बूढ़े अंकल बाहर ! चश्मे के अंदर से मिचमिचाती आँखें मुझे घूर रही थीं. फिर क्या होता, कल्पना कर लें. अंकल ने कान पकड़े पकड़े मुझे घर पहुँचा कर खरी खोटी सुनाई. वे बच्चों के फूल लोढने की आदत से आजिज़ आ चुके थे. उनके पौधों में कोई फूल बचता ही नहीं था . वे ताक में थे और पकड़ी गई मैं. हरसिंगार के प्रेम ने मुझे पकड़वा दिया. इसके बाद मुझ पर दो असर हुए. माँ ने मालिन को फूल लाने का काम सौंपा और मैं हरसिंगार बोती रही ज़मीन से लेकर ख़यालों तक में. आज भी जहाँ तहाँ मेरे लगाए हरसिंगार मिल जाएँगे जिसके नीचे कोई बच्ची उसकी गंध में वहीं खड़ी होगी, उसके ऊपर झर रहे होंगे हरसिंगार. इससे बाहर वह आना ही नहीं चाहती.

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कितने क़िस्से कितनी यादें. दिलचस्प किताब बन सकती है. खुद ही हैरान होती हूँ सोच सोच के कि ये सब मैं करती थी ? कितने रंग थे जीवन में. कई बार बदरंग मौसम में वे रंग उदास नहीं होने देते.
मिकी की याद आती है. वह थोड़ी नकचढी लेकिन यारबाश थी. हमारे ग्रुप में सबसे अधिक पैसेवाली. हमें ख़र्च करने को सीमित पैसे मिलते थे और वह जितना चाहे उठा लाती थी. फिर हम तीन सहेलियाँ मिकी, किरण और मैं गर्ल्स स्कूल से टिफ़िन के बाद भाग जाते थे और दिन भर शहर के मिंज स्टेडियम के पास उसके पैसे से छोले चाट खाते, इमली के बगानो में चले जाते, इमली तोड़ते, ढेला मार मार के या खेलते रहते. हमें छुट्टी के समय का अंदाज़ा रहता. स्कूल घर से थोड़ी दूर था. सीधी सड़क आती थी. हम बीच सड़क पर आते और लड़कियों की भीड़ में मिल जाते. घर लौटते मानो दिन भर पढ़ाई करके थक गए हों. घरवाले समझते कि बच्चियाँ थकी हारी आई हैं. शाम की हमारी ख़ातिर होने लगती और हमें भूख ही नहीं. दिन भर मिकी के पैसे से चाट खा कर हम अघाए होते. माँ समझती कि हमें भूख कम लगने लगी है. वे चिंतित दिखती. हालाँकि मेरी सेहत पर कोई असर नहीं दिखा उन्हें.
लेकिन हर भांडा एक दिन फूटता ही है. इसे भी फूटना था. मेरे स्कूल के बग़ल में ही मंझली दीदी का गर्ल्स हाई स्कूल था. वे कभी कभार छुट्टी के समय मिल जाती थीं अपनी सहेलियों के संग. एक दिन उनकी छुट्टी जल्दी हो गई होगी. वे हमारे गेट के पास रुक कर मेरे निकलने का वेट करने लगीं. सोचा होगा कि साथ लेती जाऊँ. उस ज़माने में कोई बस नहीं चलती थी स्कूल की. हम सबको दूर दूर तक पैदल ही चल कर जाना होता था. मेरी सहेली सीमा सरस्वती एकेडमी में पढ़ती थी और स्कूल के बंद रिक्शे में जाया करती थी. उसको देख कर मैं तरसती पर उस वक़्त समझ नहीं पाई कि मैं इस स्कूल में क्यों नहीं पढ सकती. इंग्लिश मीडियम स्कूल था. महँगा होगा, मेरा छोटा भाई राजू उसमें पढ़ता था.
हाँ तो मंझली दीदी रुकी रहीं. लड़कियाँ सारी निकल गईं. हमीं तीनों उन्हें न दिखे. वे परेशान. गार्ड से पूछा. कुछ पता न चला. वे आशंकित घर लौटीं. उनके आगे आगे हम भी मिल गए. लौटते हुए. इसके आगे की कल्पना आसानी से की जा सकती है. उसके बाद क्या हुआ होगा. मिकी के पैसे आने बंद और हमारी जीभ पर ताला. चाट के लाले पड़ गए. टिफ़िन में स्कूल से निकलना बंद. बाबूजी ने स्कूल की प्रिंसिपल "झलकती राय " को बुलाया और हम सख़्त क़ैद में. हम बच्चे उनको "झलकती दुनिया " कहते. हमें लगता कि  स्कूल में उनकी आँखें हमीं तीनों को घूरती रहतीं. हमें लगता कि हम झलकती दुनिया के बाशिंदे बन गए हैं जहाँ से भागना संभव नहीं. सच है कि स्कूली पढ़ाई में बहुत मन नहीं लगता था सो हम टिफ़िन के बाद का समय पीछे बैठ कर चंपक, चंदा मामा पढने में बिताने लगे. मिकी कॉमिक्स लाती. हम उन्हें पढ़कर जादूगर मेंड्रेक और फैंटम के साथ काल्पनिक लोक में चले जाते. कुछ कुछ लिखने की आदत पड़ने लगी थी. पढे और सुने गए क़िस्सों को अपनी कॉपी में अपने अंदाज में लिखती.
बाद में शहर बदला. नयी जगह आई. वहाँ लड़के ज़्यादा थे. उन्हीं की संगत होती. अब खेल का रुप बदल गया था. गुड्डे गुड़िया पीछे छूटे और हाथों में कंचे, गुल्ली -डंडा, कबड्डी , डाल पात , पिट्टो टाइप खेल आ गए थे. लड़कों की संगत का असर दिखने लगा था. शुक्र है , बचपन के उन दिनों का कि पुरुषों के साथ दोस्ती में सहजता बनी रही . अन्यथा सामंती परिवेश में लड़कों से दोस्ती असंभव कल्पना थी.


जारी....




1 comment:

Karuna Saxena said...

बचपन की असंख्य यादें समेटे एक सुन्दर लेख ।
शुभकामनायें आदरणीया ।