Showing posts with label यादों के गलियारे. Show all posts
Showing posts with label यादों के गलियारे. Show all posts

Friday, October 24, 2014



यादो के गलियारे में कुछ फूल, कुछ खुशबुएं
गीताश्री

महंथ दर्शन दास महिला कालेज, अस्सी का दशक।
रात के हंगामे के बाद सुबह सुबह होस्टल जैसे शांत पड़ा था। भीतर भीतर हलचल सी थी। हल्का सा खौफ, गुस्सा और आशंकाएं भी कि आज रात फिर न कहीं वही घटना घट जाए। वह दहशत की सुबह थी और मैं इस दहशत से मुक्त थी क्योंकि मेरे होस्टल में नहीं, दूसरे होस्टल में घटी थी, वह होस्टल ज्यादा खुला था। हम बंद बिल्डिंग में रहते थे। चारो तरफ से बंद, परिंदा भी रात में पर नहीं मार सकता था। प्रिंसेस होस्टल रेलवे लाइन के ज्यादा करीब था और उसकी चहारदीवारी तरप कर कोई भी असामाजिक तत्व के घुसने की संभावना थी। कभी ऐसा घटा नहीं था। उस रात घट गया। वह चोर था या गुंडा मवाली, पता नहीं पर चहारदीवारी फांद कर अंदर घुस चुका था। घुसा और पकड़ा गया। चीख पुकार मची, गार्ड और चपरासी दौड़े आए, वार्डन आईं, पुलिस आई, खूब मार पिटाई हुई, जेल गया। रात भर होस्टल में यह दहशत रही कि कहीं उसका दूसरा साथी यही कहीं छिपा तो न। दहशत की सुबह हुई और शोर मच गया..प्रिंसिपल दी आ रही हैं..ललिता दी आ रही है..। सुबह सुबह ही भगदड़ सा माहौल कि ललिता सिंह दी के सामने कौन जाएगा..कौन उन्हें घटना स्थल तक ले जाएगा। वार्डन तो साथ रहेंगी पर किसी नेता टाइप, साहसी लड़की को भी साथ होना चाहिए ना। अप्रैल की धूप बहुत कड़ी थी। मैं अपने होस्टल के बाहर ललिता  दी के इंतजार में खड़ी थी। मैं उनके साथ होना चाहती थी। वह लेडी, जिसे मैं अब तक दूर से देखा करती थी, जिनकी सुंदरता की मैं कायल थी, जिनकी चाल राजसी थी और जो कालेज में घुसती थी तब सारा कोलाहल थम सा जाता था। जो जहां हैं, कुछ पल के लिए वहीं ठिठक जाता था। हमारी निगाहे उनकी तरफ चोरी से उठती थी, वे गेट पर उतर कर सीधे पैदल चलती हुई अपने चेंबर तक जाती थीं। सफेद झक्क साड़ी, पले बार्डर वाली। सीधा पल्लू । हमें किसी फिल्म की नायिका जैसी लगती थीं। जिसे बार बार देखने का मन हो। हम गांव कस्बो से निकल कर आईं लड़कियां उनके इन राजसी ठाठ को सिहा सिहा कर देखा करती थीं और एक दिन खुद उनकी तरह बन जाने का सपना देखा करती थीं। वही ललिता दी होस्टल में आ रही थीं, घटना को समझने के लिए। लड़कियों का मनोबल, हिम्मत बढाने के लिए। सुरक्षा इंतजाम का जायजा लेने कि लिए। वह होस्टल के दौरे पर कम आयी थीं। उन्हें अपने वार्डन पर भरोसा था। इस तरह की घटना ने उन्हें विवश किया कि वे होस्टल का दौरा करें। अपने उसी राजसी चाल ढाल में, चपल गति से चलती हुईं ललिता दी आ रही थीं और उनके साथ कई प्रोफेसर, लड़कियां। मैं होस्टल के बाहर छतरी लेकर खड़ी थी। जैसे ही वे पास आईं, मैंने छतरी खोल कर उनके साथ हो ली। पूरे दौरे में मैं उनके साथ साथ, बाकी सब आगे पीछे। वार्डन उन्हें ब्रीफ कर रही थीं। गार्ड सब समझा रहा था। वे चारो तरफ जायजा ले रही थीं। मैं लगातार उनके साथ, उनके सिर पर छाता टांगे हुए। जैसे कोई महारानी के साथ चंवर लिए दासिया चलती हैं..। मैं आहलाद से भरी थी। धूप कड़ी थी। अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया, वे मेरी तरफ मुड़ी, हाथ बढा कर मुझे छाते के नीचे खींच लिया।
इधर आओ...तुम्हे धूप नहीं लग रही है क्या..हम दोनों इसमें आ जाएंगे..डरो नहीं..आओ..
एक छाते के नीचे आधे आधे धूप से बचते बचाते चलते रहे। बीच बीच में वे मुस्कुरा कर रात के बारे में पूछती और मैं जवाब देती, थोडी सहमी सहमी सी। हम सब पर ललिता दी का इतना दबदबा था कि हम बहुत ऊंची आवाज में बात नहीं कर सकते थे। कुछ लडकियों की फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी थी..पक्की चमची है..। मैंने झटक दिया। दिलजलो की परवाह न करना, बकवासो को अनसुना करना मैंने उसी दिन सीखा। मैंने कईयो की आंखों में अपने प्रति ईर्ष्या भाव भी देखा, हाय हाय हम क्यों न हुए टाइप चेहरे पर भाव आ जा रहे थे। मुझे परवाह नहीं, उसस वक्त मैं उस वक्त अलग मनोदशा में थी, वह उस वक्त का सबसे सुंदर पल था। जो मुझे नसीब से मिला था। मैं इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दे सकती थी, मुझे उनकी निकटता का अहसास लेना था। मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण की एक और वजह थी जिसे मैं आगे बताऊंगी।
उस दिन के बाद से ललिता दी मुझे पहचान गई थीं। चलते चलते उन्होने मुझसे नाम और क्लास पूछा था जो उन्हें तब तक याद रहा, जब तक मैं वहां से पढ कर निकली नहीं। फिर तो वे हर आयोजन से पहले एक बार जरुर बुलाती थी। चाहे आनंद मेले का आयोजन हो या वार्षिक खेलकूद का आयोजन। सालाना जलसा हो या 15 अगस्त, 26 जनवरी की तैयारी। भव्य आयोजन में काम करने करवाने के लिए वोलेंटियर की जरुरत हो। अपने चेंबर में बुलाती और डिस्कस करतीं। वहां पहले से कई प्रोफेसर बैठी होती थीं, हम खड़े खड़े उनका निर्देश सुनते और काम पर लग जाते। काम के प्रति जिम्मेदारियों का अहसास ललिता दी की वजह से ही हुआ, उनका भरोसा और आत्मीयता बढती जा रही थी धीरे धीरे।
सच तो यह था कि एक बार कालेज के सालान फंक्शन के लिए मेरे समेत कुछ लड़कियों का चयन हुआ था एक खास गीत गाने के लिए। हम धुन में गाते थे।
अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक के सात कवियों में से एक महत्वपूर्ण कवि मदन वात्स्यायन का गीत था...गोरी मेरी गेंहुअन सांप, महुर धर रे...। बीच की लाइन थी..लहरे गात वात मद लहरे...गोरी मेरी गेंहुअन सांप...। ठीक से पंक्तियां याद नहीं आ रही हैं। कुछ ऐसी ही थीं। स्मृतियों के सहारे लिख रही हूं। इस गीत को फिर से गाने की ललक पैदा हो रही है, क्योंकि यह गीत मुझे ललिता दी की याद दिलाता है। हमें पता चल गया था कि गीतकार ललिता दी के पति हैं। अब तक हम जानते थे कि उनके पति लक्ष्मी निवास सिंह सिंदरी में इंजीनियर हैं। वे इतने बड़े कवि हैं, ये कहां पता था। मेरे भीतर तब तक काव्य चेतना जाग चुकी थी। हिंदी साहित्य प्रिय विषय था सो कविता को अपनी समूची इंद्रियों से महसूस कर सकती थी।
मैं ललिता दी के आने का समय जान गई थी। वे समय की इतनी पाबंद थी कि वह पाबंदी मेरे भीतर आज भी है। मैं समय से पहले पहुंच सकती हूं, देर पहुंचने पर बहुत शर्मिंदगी होती है। इसलिए मैं समय से पहले स्थल पर पहुंच कर कई बार अकेले इंतजार कर सकती हूं। ललिता दी समय पर आती तो जैसे कालेज में सनसनी सी फैल जाती। मैं क्लास में बैठी रहूं तो भी पता चल जाता था कि वे आ गई हैं। क्लास का माहौल भी बदल जाता था। क्या पता, किधर धमक जाएं। पर वे धमकती नहीं थी। मैं उन्हें जाते हुए टकटकी लगाए देखा करती और उनके उज्जवल धवल रुप पर मुग्ध हो जाया करती थी।
कभी किसी से कहा नहीं, आज कह पा रही हूं कि वह गीत गुनगुनाते हुए मैंने, ललिता दी की तरफ कई बार गौर से देखा और उसके बिंबो पर गौर किया...जब वे चलती थीं तो मुझे लगता वे लहरा रही हैं...लहरे गात वात मद लहरे...जैसे कोई हवा अपने मद में लहरा रही हो। ललिता दी के चेहरे का तेज देखती तो मेरे भीतर का अंधेरा खत्म होने लगता था। शायद उनके रुप से प्रभावित होकर सौंदर्य की तुलना गेहुंमन सांप से की गई हो। रुपसी नायिका के सौंदर्य़ बखान से भरा था वह गीत। कवि जरुर ललिता दी पर मुग्ध हुए होंगे तभी इतनी सुंदर रचना सामने आई होगी। इस गीत ने मेरी चेतना में ललिता दी को मेरी प्रिंसिपल की जगह कविता की नायिका में तब्दील कर दिया था।
ललिता दी ने कभी हमें पढाया नहीं था, पर समारोहो में जब वे भाषण देतीं तो उनकी गंभीर सधी हुई संतुलित आवाज मेरे भीतर पैठ कर एक व्यक्तित्व का निर्माण करती थी। कई बार मेरा मन होता कि उनके हाथ में बस वीणा पकड़ाने की देर हैं, वे सरस्वती के फ्रेम में बिल्कुल फिट बैठेंगी। वैसी ही सफेद बार्डर वाली साड़ी और गोरा चिट्टा आकर्षक चेहरा जो उन्हें समूचे कालेज की शिक्षिकाओं के अलग ठहराता था। जब वे बोलती थीं तो हम सब गौर से सुनते थे। वे हमें आसन्न जीवन के लिए तैयार कर रही होती थीं। आज लड़कियों की शिक्षा का बहुत शोर उठता सा दिखता है। हमें अस्सी के दशक में ही ललिता दी अपने भाषणों में शिक्षित होने और कुछ नया करने की बाते करती थीं। वे हमें भविष्य के लिए तैयार करना चाहती थीं। वे जीवन का पाठ पढा रही थीं कि विपरीत हालात में भी विचलन से कैसे बचा जाए और भीड़ में कैसे भिन्न दिखा जाए। मेरा पूरा ग्रुप शरारती लड़कियों का था, पर जैसे ही ललिता दी सामने होतीं, हम ठहर से जाते थे। जैसे किसी ने तपते माथे पर ठंडे रुई का फाहा रख दिया हो। मैं जानती थी कि यहां से जाने के बाद ललिता दी से मुलाकात शायद संभव न हो। इसलिए उनकी खूब सारी बातें, यादें अपनी चेतना में दर्ज कर लेना चाहती थी। कालेज में मेरे जैसी और मुझसे ज्यादा प्रतिभावान लड़कियां थीं, ललिता दी किस किस को याद रखेंगी। हर साल नया बैच आता और जाता है। हम सब चले जाएंगे। टीचर को अपने स्टूडेंट की याद कई बार नहीं रहती।
 ललिता दी ने तो हमें पढाया भी नहीं था, वे बस इस रुप में जानती थी कि ये लड़की अति उत्साही है, जुनूनी है, कुछ भी कर देगी, करवा देगी। मेरे जैसी तो कई आएंगी, जाएंगी। क्या मैं इतनी भव्य, गरिमामयी प्रिंसीपल को कभी भूल पाऊंगी। आज भी हिंदी फिल्मों में किसी भव्य प्रिसिंपल को देखती हूं तो ललिता दी याद आती हैं और मैं गर्व से भर उठती हूं।
जब मैं दिल्ली चली आई और लंबे समय बाद जाना हुआ तो पता चला कि ललिता दी वाइस चांसलर हो गई हैं। मन हुआ, एक बार मिलूं, उन्हें बताऊं कि आपकी यह अति उत्साही छात्रा पत्रकार बन गई है। लीक से हटकर काम कर रही है। उसने वह सब हासिल कर लिया, जिसके सपने आप उसकी और उसके जैसी सैकड़ो लड़कियों की आंखों में भरा करती थीं। मैंने अलग सपने देखें, कठिन राहो पर चली, बहुत कुछ छोड़ा और अपने को खोज लिया। आप जिस स्त्री अस्मिता की बात करती थीं, उसका बोध तब नहीं हुआ था, सालो बाद जब मैंने खुद को ढूंढा पाया तो आपका पाठ याद आया। आप हमें शिक्षित ही नहीं कर रही थीं, हमें सीखा भी रही थीं। मैं संकोच में नहीं मिल पाई और कसक सी बनी रही। बाद में उनके न रहने पर कचोट ज्यादा ही बढ गई।
आज उन्हें इतने सालो बाद याद करते हुए महसूस कर रही हूं कि समंदर में मेरी आस्था किसी हरे भरे टापू की तरह तैर रही है.
मुझे वह गीत याद आ रहा है...लहरे गात वात मद लहरे..विनोदिनी दी उसका अर्थ समझा रही हैं। नायिका भेद पढाते हुए उस गीत का जिक्र कर रही हैं।