गीताश्री
एक बेहतर सुबह के इंतजार में
कब से उस सुबह का इंतजार है,
जिसके बेहतर होने से जाती हुई सांसे लौट सकती हैं,
भय से कांपती हुई परछाई थिर हो सकती है
जख्मों से रिसता मवाद सूख सकता है खुली हवा में
वह अपनी मुठ्ठियों से आजाद कर सकता है पिछली बारिश को
उल्लास से भर कर दूध वाले से ले सकूंगी दूध का पैकेट
धोबी को दे सकूंगी अपनी पोशाकें कि वह इस्तरी करके किस्मत की सलवटें खत्म कर सके
झाड़ू पोछा वाली छमकती हुई आए तो पहली बार मुझे जंचे
कि मैं उसकी पगार उसे वक्त पर देकर उसकी मुस्कुराहट को अपने हिस्से का इनाम मान सकूं,
सब्जीवाले को किलो के भाव से आर्डर देकर मस्त हो सकूं कि चार दिन की हो गई छुट्टी,
मैं रोज उदासी से भरी अपनी बच्ची को रोज स्कूल जाते समय हाथ हिला कर बोल सकूं-हैव ए नाइस डे,
मेड के लिए परेशान श्रीमति पांडे से पूछ सकूं उनका हाल
कि जरुरी हो तो मैं भेज दूं अपनी मेड,
सोसाइटी के गेट पर फोन करके गार्ड को हड़का सकूं कि क्या तमाशा है यहां कि कोई सुनता ही नहीं हमें
जैसे इन दिनों ईश्वर नहीं सुनता हमारी आवाजें,
हम चीखते बिलबिलाते रहते हैं सांतवीं मंजिल पर टंगे हुए
कि वह खुद ही किसी दर्द में डूबा हो जैसे,
मैं एक बार फिर लौटती हूं रोज के काम से,
क्या उसे शिकंजे और संदिग्ध ठहराए जाने का दर्द मालूम है
कोख की कैद के बाद क्या उसने कोई और कैद देखी है
क्या हवा कभी पूछ कर अंदर आती होगी।
किसी को डांटते वक्त उसे कभी मलाल हुआ होगा,
क्यों वह खुद को साबित करने की प्रतियोगिता में शामिल कर देता है,
किसी बेहतर सुबह के लिए रातों को दुरुस्त करना कितना जरुरी होता है,
हर रात मेरी नींद में आकर किसी उम्मीद में दम तोड़ती है
बेहतर होने की उम्मीद में कितनी अनमनी होती जाती है जिंदगी
कि हम अपने नुकीले पंजे से भी पीछा नहीं छुड़ा पाते और जख्मी करते और होते रहते हैं निरंतर...निरंतर....
कि कभी कभी नैरंतर्य का न होना स्थगित होना कतई नहीं होता..।
कविता-2
अभी और क्या क्या होना बाकी है,
और कितने दिन ढोए जाएंगे सवाल,
कितनी बार हम नींदे करेंगे खौफ के हवाले,
सपनों को कब तक रखेंगे स्थगित,
अपनी जमीन पर कबतक कांपते खड़े रहेंगे ढहाए जाने के लिए,
कब तक बसो में चीखें कैद रहेगीं और बेरहम सड़को पर आत्माएं मंडराएंगी,
क्या कुछ देखना बाकी है अभी कि
हम दो जुबान एक साथ बोलेंगे,
और लोग समझेंगे हालात पहले से अच्छे हैं,
हम निजता को पैरो तले रौंद कर देंगे रिश्तो की दुहाई,
और छीन लेंगे उसके मनुष्य होने का पहला हक,
उसे उसकी औकात में रखने का करेंगे सारा जतन
कि दहशत का अदृश्य घेरा उसे कसे होगा,
जिन्हें वह उलांघ नहीं पाएगी कभी,
वह कटेगी अपनी ही जुबान की धार से,
वह बोलेगी-सुनो लड़कियों...अपनी आत्माओं को सिरो पर उठा कर चलो...
सारी दलीलों के वाबजूद ये दलदल तुम्हें लील जाएंगे...
ये चेतावनी ही उसका आखिरी संवाद माना जाएगा...।
कविता-3
तुम्हें याद है पिछली बार हम कब ठिठके थे अपने ही द्वार पर,
कब खोली थी सांकल अपनेअपने मन की
कब बज उठे थे कुछ शब्द घंटियो की तरह
और तुम लड़खड़ाए बिना ही धमनियों में रक्त की तरह घर में घुस आए थे,
छोड़ो, जाने दो, अपने प्रेमिल चेहरे को दीवारों पर चिपकने दो इश्तिहार की तरह
कि प्रेम का घोषणा-पत्र रोज पढना जरुरी है किसी अखबार की तरह
जहां घटनाओं की तरह खबरें दर्ज होती चलती हैं/ और हम
बांचते हैं रोज चश्मा चढाए,
मैं ये चश्मा नहीं उतारना चाहती/ कि मुझे धुंधली हुई इबारतो को फिर से तलाशना है,
मैं फिर से पढ़ना चाहती हूं वह पन्ना/ जहां छोड़ आई थी अपना करार और अपने उदास होने की वजहें,
गुत्थमगुत्था हथेलियों की झिर्री से आती हवा को आजाद करते हुए तुमने पूछा था / क्या हम फिर से पुनर्नवा हो सकते हैं,
हम फिर फिर फूलों को खिलते देखकर खुश हो सकते हैं / कि क्या तुम अब भी चूहों को बिल में घुसते देखकर तालियां बजा सकती हो,
जब चाहो कुछ दिन के लिए घर से लापता हो सकती हो,
हल्के अंधेरे में किसी शाम प्रीत विहार के फुटपाथ पर बैठकर कसाटा खा सकती हो,
बेखौफ हाथ थामकर जनवरी की धुंध में गुम होने को औपन्यासिक कथानक से जोड़ सकती हो,
मैंने चुपचाप थामा तुम्हारा हाथ और मैंने देखा / हम फिर से अपने द्वार पर खड़े थे
और घंटियों से झरते शब्दों को तुम सहेजने में जुट गए..।
कविता-4
क्या तुम सचमुच लौट आई हो मेरे पास, पिछली सदी से,
तुम्हारे पास अब भी बचा है उतना ही ताप मेरे लिए, कि मैं नहीं बचा पाया अपने हिस्से की झोली,
जिसमें कभी तुम भर भर कर देती थी अपनी हंसी सबेरे सबेरे...
डब्बे में रोज भर भर कर देती थी अपना ढेर सारी चिंताएं,
कि इन दिनों खाली झोलियां हमेशा हवा से भरी होती हैं और हंसी निष्कासित है अपने समय से।