आलेख
सोनमछरी
--गीताश्री
--गीताश्री
जिस तरफ़ भी चल
पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
- डॉ. रेणु व्यास, असिस्टेंट फ्रोफेसर,
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
यह कहानी है गंगा
नदी की, उसके किनारे की तुर्शी वाली तेज़ हवा, उसमें उठे तूफ़ान की, और उस तूफ़ान से इंसान के संघर्ष की। यह कहानी
है उस गंगा नदी की जो अपना रास्ता ख़ुद बनाती है। दुनिया की सबसे पहली सड़क इंसान ने
नहीं, नदी ने बनाई है।
ग्रांड ट्रंक रोड किसी लोककल्याणकारी शासक की नहीं, गंगा नदी की देन है। अपना रास्ता ख़ुद बनाने
वाली गंगा इंसान को रास्ता दिखाती है पर मिज़ाज बदलने पर इंसान को तिनके की तरह दूर
उछालकर रास्ता भटका भी सकती है। फिर भी इंसान तूफ़ानों से लड़ते हुए, झंझावातों का सामना करते हुए, अपनी इस माँ की छाती पर चढ़कर उसके सीने से अपना
दाय लेने में झिझकता नहीं है। धरती हो या उसकी बेटी गंगा, कुपित होने पर इंसान उसके सामने असहाय नज़र आता
है पर तुरंत ही सँभलकर वह पुनः अपने साहसिक
अभियान पर निकल पड़ता है। ऐसे ही एक साहसी मनुष्य की जिजीविषा की कहानी है ‘सोनमछरी’, प्रसंगतः यह साहसी मनुष्य एक स्त्री है।
गंगा किनारे के ‘धुलियान’ गाँव में एक मछुआरे से बीड़ी-मज़दूर बने शंकर की
नवविवाहिता है रुम्पा जो गीताश्री की कहानी ‘सोनमछरी’ की नायिका है। लेखिका ने इस कहानी में स्त्री
और गंगा को समानान्तर रूप से अंकित किया है, लगभग रूपक की तरह।
‘‘अपने मन मिज़ाज की हवा कब बिगड़ जाए, कब सँवर जाए, दैवो न जानम। गंगई हवा का मिज़ाज किसी स्त्री की
तरह लगा उसे।’’ (पृष्ठ 1)
‘त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं......’ उक्ति को नए रूप में प्रस्तुत किया है गीता
श्री ने। अपने भाग्य का आप निर्धारण करने वाली स्त्री है रुम्पा और शंकर और अमित
के जीवन को भी वही दिशा देती है। कभी मछुआरा रहा शंकर का पूरा गाँव बीड़ी बनाने के
उद्योग में लगा है। रुम्पा अपने आपको और शंकर को तेंदुपत्ता और तंबाकू की गंध से
दूर ले जाना चाहती है, जिस गंध से पूरा गाँव खाँस रहा है। टी.बी. अस्पताल में भर्ती ‘राजू दा’ धुलियान के हर बीड़ी मज़दूर का भविष्य हैं। इस
रुग्ण भविष्य से बचने का रास्ता चाहे सात पहाड़ों के पार हो, रुम्पा दृढ़संकल्प है पार जाने के लिए। कहानी के
साथ-साथ चल रही लोककथा की रानी रुम्पा ही है और जिस ‘सोन फूल’ को लाने के लिए वह राजा को बाध्य करती है,
वह ‘सोन फूल’ बीड़ी मज़दूर बनने की नियति से मुक्ति की
आकांक्षा है।
जाल और नाव का
इंतज़ाम करती रुम्पा शंकर को अपने पुश्तैनी व्यवसाय की ओर मोड़ती है। इस प्रयास में
वह सफल भी होती है। हिल्सा, रोहू, सिंघी..... तक तो
ठीक पर जब सारी मछलियाँ सोनमछरी की तरह दिखने लगें तो ? ‘सोनमछरी’ की रुम्पा की चाह शंकर को ले डूबी। बिहार के
किशनगंज की ज़िद्दी रानी रुम्पा गंगा का बदला मिज़ाज न भाँप सकी, शंकर के दिए संकेत के बावज़ूद! और उसने शंकर को
उस दिन भी ज़बरदस्ती मछली पकड़ने भेज दिया जिस दिन भयानक तूफ़ान आना था। तूफ़ान आया
गंगा में भी और रुम्पा के जीवन में भी। तम्बाकू की गंध से भी नफ़रत करने वाली
रुम्पा को हालात ने सबसे तेज़ी से बीड़ी बनाने वाली मशीन में तब्दील कर दिया। पर
नहीं! रुम्पा मशीन में नहीं बदली। तूफ़ान द्वारा तहस-नहस किए जाने के डर से उसने
सपने देखना नहीं छोड़ा। भुट्टो दाई चोरनी के शाप से वह डरी नहीं, दुख से वह हारी नहीं, उसने फिर जीने की कोशिश की, अपना वही सपना, बीड़ी मज़दूर की नियति से मुक्ति पाने का,
वह भी बीड़ी फैक्ट्री के
मुंशी अमित दास का संबल मिलने पर। गाँव वालों और अपनी माँ के विरोध की भी परवाह न
कर अमित ने रुम्पा का हाथ थामा। पोल्ट्री फार्म खोलने की रुम्पा और अमित की योजना
लोककथा की रानी के सोन फूल की दिशा में फिर से सात पहाड़ लाँघना थी। पर फिर तूफ़ान
आया, गंगा में नहीं, रुम्पा के जीवन में। शंकर लौट आया। गंगा की
लहरों से बचा शंकर बांग्लादेश की जेल में पहुँच गया था। वहाँ से छूटा तो सीधा अपनी
रानी के पास यह कहते हुए कि
‘‘रानी... स्वर्ण फूल ले आया हूँ ... सात पहाड़
पार कर गया... भीषण कष्ट झेला... अब तो कथा पूरी करो... ’’ (पृष्ठ 11)
कथा पूरी कैसे
करे रुम्पा जब उसे उस कथा का ‘अन्त’ नहीं मिल रहा हो!
कथा के अन्त के पहले का क्लाइमैक्स रुम्पा के जीवन में आ पहुँचा। एक ओर पहला पति
शंकर जो उसके लिए मृत्यु को भी पराजित कर आया है और दूसरी ओर बिना किसी प्रतिदान
की आशा के संकट के समय सहारा देने वाला अमित, उसका दूसरा पति। गुलज़ार कहते हैं -
‘‘मैं तो बस ज़िन्दगी से डरता हूँ
मौत तो एक बार आती है’’
रुम्पा के जीवन
में मौत से भी गहरी यह पीड़ा दो बार आई। पहले गंगा की लहरों ने शंकर को लील कर
रुम्पा को सताया, दूसरी बार उसे
उगल कर। रुम्पा अपने अंतद्र्वंद्व पर विजय पाती है, अपनी जिजीविषा से। कितनी पढ़ी-लिखी है वह ?
साक्षर भी है या नहीं,
कहानी से पता नहीं चलता
परन्तु अपनी सोच में वह एक आधुनिक स्त्री है। बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ की नायिका की तरह वह पहले प्यार के रोमांस में
डूबी अतीत की बंदिनी नहीं है, वह वर्तमान को यानी अमित को चुनती है। यहीं गीता श्री की नायिका बिमल रॉय की
नायिका से एक क़दम आगे नज़र आती है। वह एक पीढ़ी आगे की स्त्री है। रुम्पा के चरित्र
के जरिए गीता श्री स्त्री के ‘खेत’ या ‘ज़मीन’ होने को नकारती है, जो पहली बार जोतने वाले का हक़ परम्परागत रूप से मानी जाती
है। यहाँ नायिका रुम्पा एक इंसान है जीती-जागती, साँस लेती। अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने
का हक़ उसका है।
कहानी की तिहरी बुनावट में रुम्पा की कथा,
गंगा नदी के रूपक का
प्रयोग और राजा को सात पहाड़ पार कर सोन फूल लाने के लिए बाध्य करने वाली रानी की
कथा इस कहानी में साथ-साथ चलते हैं। लोककथा की रानी राजा को कहती है-
‘‘हमारी देह चाहिए तो हमारे मन की सुनो। सुनो कि
मन क्या माँगता है। पहले मन को जीतो मेरे राजा, फिर मेरी देह तुम्हारी। मन के मार्ग से देह तक
पहुँचो...’’ (पृष्ठ 2)
रुम्पा शंकर को बहुत प्यार करती थी। पर शंकर की
यात्रा देह से मन की ओर थी और अमित की मन से देह की ओर। लोककथा की रानी की तरह ही
रुम्पा भी अमित को चुनती है जो मन के रास्ते देह तक पहुँचा है।
वातावरण निर्माण
में गीताश्री ने इस कहानी में कुशलता दिखाई है। बांग्ला शब्दों को प्रयोग, गंगा नदी की हर गतिविधि का सूक्ष्म चित्रण,
बीड़ी मज़दूरों की दयनीय
स्थिति, सब मिलकर बंगाल
के उस अनदेखे गाँव को हमारी आँखों के आगे मूर्त कर देते हैं। कथ्य में देश-काल की
बारीकियाँ गीताश्री के पत्रकार रूप की देन है तो उसका सुगढ़ शिल्प लेखिका की पहचान।
फ्लैश बैक का इस्तेमाल कहानी में बहुत रचनात्मक तरीके से किया गया है जहाँ पाठक
रुम्पा के मानस में आते स्मृति-खंडों के माध्यम से कहानी से परिचित होता चलता है।
इन स्मृति-खंडों में काल के पूर्वापर क्रम के बजाए भावों से उनकी संगति को
प्राथमिकता दी गई है। कहानी में रचा गाँव इकहरा नहीं है। वहाँ राजू दा और रीना दास
हैं तो नज़मा आपा भी हैं। जब शहरी पृष्ठभूमि की आज की हिन्दी कहानी में मुस्लिम
चरित्र ग़ायब होते जा रहे हैं, तब यहाँ उनका कहानी के वातावरण में सहज रूप से आना राहत की बात है। पूरी कहानी
में कोइ्र टिपीकल खलनायक नहीं है और न ही अतिमानवीय तरह के नायक-नायिका। सभी यहाँ
इंसान हैं और खलनायक परिस्थितियों से संघर्ष करना नहीं छोड़ते। स्त्री-विमर्श भी
यहाँ यांत्रिक या क़िताबी नहीं है। यहाँ स्वतंत्र व उदार सोच वाले स्त्री-पुरुष
मिलकर स्त्री-विरोधी पुरानी सोच से लड़ते हैं। रीना दास की सोच पितृ-सत्तात्मकता से
प्रभावित है तो नज़मा आपा की उससे मुक्त सहज मानवीय। अमित दास रुम्पा का पति है पर
स्वामी नहीं। वह शंकर की तरह गुस्से से आँखें लाल नहीं करता। प्रेम की गहराई उसे
रुम्पा के निर्णय का आदर करना सिखाती है।
‘‘मैं रोकूँगा
तुम्हें...... एक बार..... उसके बाद जो तुम चाहो। मैं तुम्हारे रास्ते में कभी
नहीं आऊँगा.... जेटा तुमि भालो बोझो, शेटे करो... तुम स्वतंत्र हो... लेकिन मैं नहीं भूल पाऊँगा
तुम्हें... जी नहीं पाऊँगा... क्या करूँगा पता नहीं..., शायद यहाँ से दूर... बहुत दूर चला जाऊँ... बस
तुम ख़ुश रहना... शंकर को फिर गंगा में नाव लेकर ना जाने देना... गंगा का माथा फिर
गया तो... नहीं... मैं रोऊँगा नहीं... कोई अहसान न मानना... आमी तोमा के खूब भालो
बाशी।’’ (पृष्ठ 9)
अमित के प्रेम
में अपनेपन के साथ-साथ उत्तरदायित्व है, अभिभावकत्व है। उसकी यह परिपक्वता रुम्पा को उसके प्रति
आकृष्ट करती है।
कहानी में आने वाले प्रसंगों की झलक लेखिका
पहले ही दे देती हैं। शंकर को मछली पकड़ने भेजते ही मौसम ख़राब होने के वर्णन से उस
तूफ़ान की झलक पाठक को पहले ही मिल जाती है जो रुम्पा के जीवन में आने वाला है। साथ
ही रुम्पा तूफ़ान में गिरेगी नहीं, टूटेगी नहीं सहारा पाकर फिर खड़ी होगी इसका संकेत भी लेखिका ने प्रकृति के
माध्यम से पहले ही दे दिया है।
‘‘शंकर ओझल हुआ तो
वह पलटी... हवा की तेज़ लहर उसे हिला गई। डगमगाई, जल्दी से कीचड़ में गड़े बाँस को पकड़ा। पीन पयोधर
दुबरी गात वाली रुम्पा हवा का तेज़ झोंका भी कैसे सहती। वह जानती थी अपनी शक्ति को
इसीलिए लड़खड़ाते हुए सबसे पहला सहारा पकड़ा। सामने जो दिखा।’’ (पृष्ठ 6)
लेखिका कहर
बरपाते तूफ़ान का वर्णन करते हुए नज़मा आपा की आवाज़ में ‘या ख़ुदा... रहम बरपा...’ इस्तेमाल कर गई हैं, पर यह चूक और भाषा की ऐसी कुछ और भूलें कहानी
के व्यापक उदात्त को प्रभावित नहीं करतीं। भाषागत सावधानी लेखक के लिए अपेक्षित है
यह मानते हुए भी टंकण की त्रुटियों की तरह इनकी उपेक्षा की जा सकती है।
रुम्पा के मन के
झंझावात की अभिव्यक्ति कहानी में गंगा नदी के माध्यम से होती है। प्रकृति के साथ इंसानी
हृदय का गहरा तादात्म्य इस कहानी की एक बड़ी विशेषता है। अजीज़ एज़ाज़ ने ठीक ही तो
कहा है -
‘‘जैसा दर्द हो
वैसा मंज़र होता है
मौसम तो इंसान के
अंदर होता है’’
गंगा नदी का नाम बांग्लादेश में पहुँचने पर
पदमा हो जाता है, इस तथ्य के जरिए
लेखिका ने स्त्री-जीवन की उस विडम्बना को रेखांकित किया है जब ससुराल में पहुँचने
पर उसके नाम, उपनाम ही नहीं
उसकी सम्पूर्ण पहचान बदल दिए जाने की कोशिश होती है।
‘‘पदमा... गंगा ही तो है जो स्त्री की तरह दूसरे
देश में जाकर नाम बदल लेती है। वे भूल गये थे कि गंगा कभी कभी अपना पाट भी बदल
लेती है।’’
स्त्री का नाम तक बदल देने वाला समाज उससे यह
अपेक्षा नहीं करता कि वह नदी की तरह अपना पाट भी बदल लेगी। पर रुम्पा ने ऐसा कर
दिखाया। धरती को अपनी धारा से काटते हुए लीक बनाने वाली नदी अपनी ही बनाई लीक को
लाँघने की शक्ति रखती है।
जिस घर में रुम्पा शंकर के साथ ब्याह कर आई,
जो घर उसका आश्रय था,
अमित से ब्याह के बाद भी,
शंकर के लौट आते ही वह घर
शंकर का हो गया, रुम्पा का नहीं
रहा। उस घर को उसने छोड़ दिया। सारे सामान वहीं छोड़ दिए, बस अमित के प्रेम को साथ लिया। कहानी के अंतिम
अंश में लेखिका गंगा के एक खूबसूरत बिंब के सहारे इस घटना को प्रतीकात्मक रूप से
दर्शाती हैं। यह खूबसूरत बिंब इस कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
‘‘गंगा शांत दिख रही थी। सूरज की मुलायम रोशनी
में पानी की सतह चमचमा रही थी। जैसे किरणें सूरज से होती ही गंगा की आत्मा में पैठ
रही हो और गंगा उसकी आभा में स्नेह, स्वप्न मग्न...। दो पानी पक्षी कहीं से उड़ते हुए आए,
किर्र किर्र किर्रर...
करते हुए पानी में चोंच मारा, पानी और सूरज दोनों लेकर उड़ गए।’’ (पृष्ठ 13)
अब यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पक्षी
रुम्पा और अमित हैं, पानी जीवन-रस या
प्रेम है जिससे सूरज की रोशनी भी मुलायम बन गई है और सूरज बेहतर भविष्य का सपना।
रुम्पा और नदी का रूपक इस खूबसूरत कहानी का प्राण है। रुम्पा की जिजीविषा और उसके
स्वतंत्र निर्णय को देख बशीर बद्र का यह शेर याद आ जाता है -
‘‘हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा’’
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डाॅ. रेणु व्यास,
ए-85-बी, शिवशक्ति नगर, मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर, मोबाइल – 9413887224