Wednesday, October 21, 2015

यात्रा-कोलाज
नदी की देह पर सदियों की परछाई और काफ्का
गीताश्री

वैसे भी यहां बहुत से कोने हैं, चांदनी रात में छिपे हुए, फीके, उजले, खामोश-माला—स्त्राणा की सदियों पुरानी, टेढी मेढी, गलियों में चलते हुए पांव खुद-ब-खुद धीमे हो जाते है। लगता है, रात के सन्नाटे में इस पुराने शहर की हर ईंट हमारे कदमों की गवाह है। उनकी पीली, जर्द आंखों में जब हमारी छाया पड़ जाती है तो कहीं कुछ सिहर-सा जाता है। मानो बीते समय की कोई परत धीमे से खुल गई हो...(चीड़ो पर चांदनी-निर्मल वर्मा) उस वक्त के प्राग की चांदनी रात थी।
मैं प्राग की चांदनी सुबह देख रही थी। हल्की बूंदाबांदी के बीच। नीली छतरी लिए हुए। यकीन नहीं होता कि किसी सपने का पीछा करते करते आप वहां तक पहुंच जाएं और सपने हथेलियों में किसी नरम चिड़ियां की तरह गुदगुदाते रहेंगे। भारतीयो के बीच प्राग उतना लोकप्रिय सैरगाह नहीं है। लेकिन जिन्होंने चीड़ो पर चांदनी पढी हो उनके लिए प्राग एक रुमानी शहर है। यूरोप की यात्रा के दौरान प्राग का विचार  मन में ऐसे ही नहीं आया। चीड़ो पर चांदनी दिमाग पर हावी थी। व्रत्लावा नदी, प्राग को दोनो छोर को जोड़ता हुआ चार्ल्स ब्रीज, रहस्यमयी कहानियों से भरी हुई माला-स्त्राणा की पथरीली गलियां, बीयर बार, घोस्ट टूर, लारोन्तो चैपल, जहां एक साथ 27 घंटियां बजती है अपनी मायावी धुन के साथ, ये सब कुछ स्मृतियों में घुसे थे, रुमानी किशोर मन के साथ। इसकी रुमानियत अभी बाकी थी कि मिलेना-काफ्का के प्रेम संबंधो ने मन में जादुई लय बना दी । प्राग जैसे अनदेखे ही धड़कता रहा। उसी प्राग के चार्ल्स ब्रीज पर खड़े होकर काफ्का का म्युयिजम तलाश रहे थे हम। आम सैलानी हैरान थे। उनकी नजर में वह जगह सैरगाह कैसे हो सकती है। प्राग वो शहर है जहां काफ्का का जन्म हुआ और जो अप्रत्यक्ष, अघोषित रुप से उनकी हर रचना में शामिल होता रहा। मेरे लिए सपने के सच होने का पल था। जब मैंने चहकते हुए पूछा तो चार्ल्स ब्रीज पर ठेले पर गिफ्ट का सामान बेचती हुई सुंदर सी चेक लड़की भी हैरान हुई...उसने इशारा किया...वो देखो...कोने पर, छोटी सी इमारत है, दस मिनट की वाकिंग है...। वह टूटी फूटी इंगलिश में बता रही थी जो उसने पर्यटको के लिए ही सीखी होगी।

मुझे अंदाजा भी नही था कि इतने पास है काफ्का की मौजूदगी...बूंदाबूंदी की ठंडक जैसे रगो में दौड़ी तो सिहरन हुई। पता नहीं, आंतरिक प्रतिक्रिया थी या मिलेना-काफ्का से मिलने का रोमांच। अपनी तो यात्रा इसके बाद संपन्न होती है। अपना शहर कहीं पीछे छूट जाता है। निर्मल वर्मा सिंड्रोम की शिकार मैं, उन्ही की तरह याद करती हूं, टाल्स्टाय की पंक्तियां—जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जाते हैं, आधी यात्रा पर पीछे छूटे हुए शहर की स्मृतियां मंडराती हैं, केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारे में सोच पाते हैं, जहां हम जा रहे हैं। अब सिर्फ प्राग है, मेरी चेतना में फड़फड़ाता हुआ। 
चार्ल्स ब्रीज पर, हल्की बूंदी बांदी के बीच वहां तक जाते हुए काफ्का और मिलेना के संबंधो, खतो किताबत, संस्मरणों की पंक्तियां कानों में जैसे बज रही हैं। जिंदगी से प्यार करने वाली एक निर्भीक पत्रकार मिलेना, और जिंदगी डरने वाला एक जर्मन-चेक लेखक फ्रांज काफ्का। मिलेना ने अपने मार्मिक स्मृतिलेख में लिखा है-एक बुधिमान आदमी, जिन्हें जिंदगी से डर लगता था।
ठीक उलट फ्रांज काफ्का ने मिलेना के बारे में कहा था कि वह जलती हुई आग है, ऐसी आग मैंने आजतक नहीं देखी। साथ ही साथ बेहद स्नेहमयी, बहादुर और समझदार, वह ये सारी चीजें अपने त्याग में उड़ेल देती है या आप यूं कह सकते हैं कि त्याग के जरिए उस तक आती है...।
मिलेना की दोस्त मार्गरेट बुबेर न्यूमान ने लिखा है कि मिलेना और काफ्का के बीच प्रणय संबंधो की शुरुआत मेरानो में सन 1920 में हुई। यह करुणा और अवसाद से भरा प्यार था। काफ्का के संस्मरणों के टुकड़े पढे तो उनके संबंधो की जटिलताएं स्पष्ट होती है। काफ्का लिखते हैं-प्रेम की राह हमेशा गंदगी और यातना से होकर गुजरती है.., वह हर चीज प्रेम है, जो जीवन को समृद्दि और विस्तार देती है..ऊंचाईयो और गहराईयों, दोनो में..(काफ्का के संस्मरण)
मिलेना की आवाज सुनाई देती है...मैं जिंदगी से प्यार करती हूं, इसके सभी प्रश्नो में, इसके सभी अर्थो में, रोजमर्रा की जिंदगी और छुट्टी की जिंदगी, इसकी सतह पर और उसकी गहराईयों को हर तरह से जादुई जिंदगी को प्यार करती हूं...।
नदी के ऊपर, 700 साल पुराने चार्ल्स ब्रीज पर चलते हुए मैं जिया और अजीत का हाथ जोर से कस लेती हूं। हम तीनों इस प्रेम के कुछ निशां देखने जा रहे थे।

काफ्का की जिंदगी को अपने आप में समेटे काफ्का म्यूजियम के बाहर खड़े होकर कुछ पल के लिए हम संबंधो की जटिल धागों से बाहर आ गए थे। बेहद दिलचस्प नजारा था। छोटी इमारत और बड़ा सा अहाता। बीचोबीच दो ब्रोंच मूर्तियां आमने सामने एक दूसरे के सामने पेशाब करती हुई। लगातार पानी की धारा उनके अंग से फूट रही थी। बताया गया कि सन 2004 में प्राग के मूर्तिकार डेविड केमे ने पीसिंग मैन स्ट्रीम जैसी हास्यास्पद मूर्ति बनाई।

कुछ पयर्टक खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे। मेरी सात वर्षीय बेटी जिया यह देखकर जोर से उछली। कौतूहल ने उसके भीतर हास्य पैदा कर दिया था। पेशाब का पानी छोटे से घेरे में तालाब की तरह भर रहा था। जहां कुछ स्थानीय लोग चेक सिक्के फेंकते हुए कुछ बुदबुदा रहे थे। हम अपलक कुछ देर देखते रहे। अचानक एक बूढा किसी कहानी से निकल कर आया हो जैसे, हाथ में छड़ी थी। उसने पानी में छड़ी डाली, सारे सिक्के उसमें चिपक गए। उन्हें हथेलियों में समेटता हुआ वह माला-स्त्राणा की गलियों में गुम हो गया। बाद में म्युजियम की लेडी केयर टेकर से पूछने पर पता चला कि लोग मनौती मानते हैं, सिक्के डाल कर। यह बूढा फकीर है, पैसे वह ले जाता है और शायद..उसने शायद पर जोर दिया..किसी बीयर बार में शामें बिताता है..दिन फक्कड़, शामें रंगीन।

ओल्ड टाउन से चार्ल्स ब्रिज पार करके जब इस म्यूजियम में घुसते हैं तो एक बार को लगता है कि आप इस दुनिया में हैं वो आपकी नहीं काफ्का की है। इसमें काफ्का का जिंदगीनामा है। हल्का अंधेरा तो कभी अंधेरे उजाले की लुका-छिपी, लगातार कानों में पड़ता कुछ अलग सा साउण्ड ट्रेक। बहुत से उत्तेजक चित्र, काफ्का द्वारा बनाए गए स्केचेज जैसे काफ्का का आमंत्रण हो कि आओ, कुछ तो कोशिश करो, मुझे जानने और समझने की। काफ्का की डायरी, उनकी रचनाओं की पहल प्रति। उनके वे प्रेम पत्र जो उन्होंने अपनी मंगेतर फेलिस बोउवार को 1912 से 1917 के बीच लिखें और दिखेंगी माइलेना जेसेन्सका जिनसे ना सिर्फ काफ्का को इश्क हुआ बल्कि जिसके साथ बर्लिन में वो कुछ साल रहे भी। भूतो के रुमानी और दारुण किस्से से भरे इस शहर में क्या काफ्का और मिलेना की आत्माएं यहां आती होंगी। कहते हैं कि माला-स्त्राणा की ही गलियों में एक सैनिक अपना कटा हुआ सिर टाट के बोरे में लेकर घूमता रहता है। या 16 वीं शताब्दी का एक जवान भूत प्राग की ऊंची इमारतो में हर पूर्णिमा की रात अपनी बेवफा प्रेमिका की याद में रोता है। पहले चार्ल्स ब्रीज पर दोनो तरफ बनी ऊंची ऊंची मूर्तियां, उसकी मायावी कथाएं, भूतहा सैरगाह और टावर क्लाक की घंटी का स्वर, ये सारी चीजें विस्मृत थी इस वक्त। ये काफ्का की जटिल दुनिया से गुजरते, मिलेना के निशां तलाशते हुए कुछ देर ठिठक गए हैं हम। मिलेना के चित्र और कुछ चिठ्ठियां वहां मौजूद हैं। काफ्का और मिलेना दोनो की हैंड राइटिग देर तक देखते रहे। मेटामाफोर्सिस और दी ट्रायल जैसी किताबो की पांडुलिपि देखी...कितने करेक्शन किए थे काफ्का ने तब। पन्नो पर काली स्याही से कई कई लाइनें कटी हुईं। रोमांच के क्षण थे। वैसा ही रोमांच हुआ जब मैंने महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्व विधालय के संग्रहालय में निराला के हाथो लिखी जूही की कली कविता देखी...स्नेह स्वप्न मग्न होकर...।
हालांकि अंदर जाकर अंग्रेजी में आपके लिए सब जानकारियां उपलब्ध हैं। पर अगर कहीं आपको जर्मन पढनी आती है तो समझिए कि आपकी पौ बारह हो गई। दो से ढाई घंटे का समय चाहिए अंदर सारी चीजें देखने के लिए। अंदर जाने का टिकट मिलता है, 180 चेक क्राउन्स का। यहां रिसेप्शन काउंटर पर ही एक मैप लगा है जिस पर काफ्का से जुड़ी हर जगह का पता हाईलाइट किया हुआ है।
म्युजियम में काफ्का से जुड़ी हर छोटी बड़ी चीज इस तरह से सहेज कर रखी गई है कि आपको लगने लगता है कि आप उनकी ही किसी किताब में विचरण के लिए निकल पड़े हैं। अपने जीवन काल में प्राग से अलग थलग रहने वाले लेखक की यादों को इस शहर ने जिस तरह अपने सीने से लगा रखा है वो काफ्का की ही पंक्तियों की याद दिला गई..
ए बिलिफ इज लाइक ए ग्यूलोटाइन जस्ट एज हैवी जस्ट एज लाइट (आस्था ग्यूलोटाइन की तरह है  जितनी भारी उतनी ही हल्की)
मलबे में बदलते हुए लेखकों के मकानों, मिट्टी में मिलते उनके निशां को देखते हुए क्या हम अपने देश, अपने शहर से लेखक-प्रेम की ऐसी उम्मीद कर सकते हैं ?

-----



Friday, October 16, 2015

यात्रा कोलाज - केरल

यात्रा कोलाज - केरल 

आश्चर्य का देवलोक

न जल्दी करो न परेशान हो। क्योंकि आप यहां एक छोटी-सी यात्रा पर हैं। इसीलिए निश्चिंत होकर रुकिए और फूलों की खूशबू का आनंद उठाइए...
                               (वाल्टर हेगन)

अथिरापल्ली झरना 
यही है ईश्वर, यही है ईश्वर...विराट है ईश्वर...और क्या है ईश्वर...यही तो है...विराट...

सामने विराट झरने को देखते हुए अल्का धनपत दोनों बांहे फैलाएं बुदबुदा रही थीं। शोर से भरा हुआ माहौल भी उनकी इस बुदबुदाहट को छिपा नहीं पाया। उनके चेहरे पर पानी की फुहिंयां पड़ रही थीं. वे गीलीं हो कर लगातार भव्यता के बयान में डूबी थीं।
यह नजारा वहां आम है....एक बार जो आता है, वह झरने के बाहुपाश में बंध जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया रीलीज फिल्म बाहूबली की भव्यता ने सिनेप्रेमियों को अपने मोहपाश में बांध लिया था। अल्का मारीशस से आईं थी, सेमिनार में भाग लेने। बहुत ही सुंदर द्वीप से आई हुईं विदुषी पर्यटक का चकित होकर इस तरह झरने को ईश्वरी रुप में स्वीकार लेना अनूठा अनुभव था हम सबके लिए।


केरल के त्रिशुर जिले का एक प्रसिद्ध ब्लाक कोंडुगलूर से पचास किलोमीटर दूर स्थित अथिरापल्ली के घने जंगलो में यह विराट झरना कई कारणों से प्रसिद्ध है। याद करिए...गुरु फिल्म में एक गाना---
गीताश्री
गीली चट्टान पर , बारिश में भींगते हुए ऐश्वर्या राय गा रही हैं....बरसो रे मेघा मेघा...बरसो रे..., यहीं है वो जगह जहां हजार मीटर ऊपर से झरना नीचे गिरता है और पत्थरों से टकरा कर पानी चारों तरफ धुंध की तरह छा जाता है। आप झरने के सामने मुंह करके खड़े हो तो पानी की छींटे भिंगो जाएंगे।  
बाहूबली फिल्म की याद तो ताजा होगी सबके जेहन में। बाहूबली इसी झरने की नीचे खड़ा होकर ऊपर की पहाड़ियों पर चढने का स्वप्न देखा करता था और झरने को पार करने के मंसूबे पाला करता था। जिसे एक दिन वह पार कर ही जाता है। इस विराट झरने को को कोई दैवीय शक्ति ही पार कर सकती है। बाहुबली की शूटिंग यही हुई थी।
झरने को पास से महसूसने के लिए, उसे चखने के लिए बहुत उतराई है और फिर उतनी ही चढाई भी है। दूर से भी देख सकते हैं लेकिन झरने के विराट स्वरुप को देखने और महसूस करने के लिए चढाई उतराई का कष्ट झेलना ही पड़ेगा। एक बार झरने का सामना होगा तो दुनिया ओझल हो जाएगी। सारी थकानें छूमंतर। सामने विराट स्वरुप और आप। दो विशिष्टों की मुलाकात और समयहीन होता समय। कभी अपने छोटे और निरीह होने का बोध तो कभी ईश्वरीय छटा देखने का गर्व। दोनों बांहे फैलाएं देर तक झरने को छू कर आती गीली हवा को अपने फेफड़ो में भर ताजादम हो सकते हैं। सारे विषाद धुल जाते हैं। झरने को एक निश्चत दूरी से देखते हैं। पास से देखने के कई खतरे। इतना खींचाव महसूस होता है कि पर्यटक रोक नहीं सकते खुद को। ठीक वैसे ही जैसे हल्के अंधेरे में समदंर खींचता है अपनी ओर।
केरल के पास प्राकृतिक सौंदर्य का अकूत खजाना है। अथिरापल्ली इलाके में ही दो और भव्य झरने हैं। पर्यटको का तांता लगा रहता है। कोंडुगुलूर ज्यादा लोकप्रिय पर्यटन स्थल नहीं है। इसीलिए अथिरापल्ली में स्थानीय पयर्टक ज्यादा दिखाई देते हैं। केरल आने वाले  पर्यटक सबसे ज्यादा दो जगहों पर जाना पसंद करते हैं। केरल का हिल स्टेशन मुन्नार और बैकवाटर के लिए फेसम एलेप्पी और कुमारकोम।  
जबकि केरल के चप्पे चप्पे पर प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, ऐतिहासिक और पौराणिक खजाना भी भरा पड़ा है। किसी शहर को रेशा रेशा खोलना (एक्सप्लोर) करना हो तो पोपुलर जगहों की नहीं, उसके सुदूर इलाको में जाना चाहिए। जहां जाकर आपके ज्ञान में बढोतरी ही होती है।
भरत मंदिर 
अगर कोंडुगुलर के अंदरुनी इलाके में हम न घूम रहे होते तो कैसे पता चलता कि देश का इकलौता भरत मंदिर यहां है। देश के किसी भाग में राम के भाईयों के मंदिर नहीं मिलेंगे। मगर कोंडुगुलूर के आसपास के इलाको में राम के अलावा सभी भाईयों के मंदिर मिलेंगे जहां उनको देवताओं की तरह पूजा जाता है।  बलुई पत्थरों से बना यह प्राचीनकालीन मंदिर हैं। इनका स्थापत्य ही उसकी प्राचीनता की ओर इंगित करता है। पांच किलोमीटर की दूरी पर भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न के नाम पर मंदिर हैं। ठीक वैसे ही जैसे देश भर में ब्रम्हा का एक ही मंदिर पुष्कर में है।
राम के तीसरे भाई भरत के नाम पर कोडलमनिक्यम मंदिर भी चेरा किंग सतनु रवि वर्मन के शासन काल में 854 ए डी में बना था। कोंडुगुलुर प्रखंड के इरींजालाकुड़ा गांव में स्थित इस मंदिर में भरत की छह फुटा मूर्ति है जिसका चेहरा पूरब की तरफ है।
अंदरुनी हिस्से में न घूमते तो यह भी पता न चलता कि मेथाला गांव में भारत की पहली मस्जिद की स्थापना हुई थी। जहां आज भी नमाज पढी जाती है। इस ऐतिहासिक धरोहर को प्रशासन ने आज तक सहेज संभाल कर रखा है और इसका विस्तार भी किया है। मस्जिद के साथ ही इसका संग्रहालय भी है जिसमें सदियों पुरानी धरोहरें दिखेंगीं। ऐतिहासिक दस्तावेजो के अनुसार इस मस्जिद की स्थापना 629 AD में हुई थी।

प्राचीन काल में भारत और अरब देशों के बीच व्यापारिक संबंध थे। अरब देशों के व्यापारी सुमद्गी रास्तों से भारत आते थे। वे जहां भी जाते, वहां अपने धर्म और संस्कृति को साथ ले कर जाते। बताते हैं कि अरब व्यापारियों का एक दल मालाबार क्षेत्र में आया तो उन्हें अपने धार्मिक स्थल की आवश्यकता महसूस हुई। इसी दौरान इस क्षेत्र के राजा चेरा , जिन्हें हजरत मौहम्मद का समकालीन माना जाता है, वे इनके संपर्क में आएं और इतने प्रभावित हुए कि इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। बाद में वे ताजुद्दीन नाम से मशहूर हुए।
राजा ने ही अरब के रहने वाले मलिक-बिन-दीनार को खत लिख कर यहां मस्जिद बनाने का आग्रह किया। 7वीं शताब्दी में अरब से व्यापारियों का एक दल मलिक बिन दीनार और मलिक बिन हबीब के नेतृत्व में केरल आया और इस मस्जिद की स्थापना की। उन्होंने राजा चेरा के नाम पर ही मस्जिद का नाम चेरामन मस्जिद रख दिया। 11वीं शताब्दी में इस मस्जिद का पुनरुद्धार हुआ और उसके बाद कई बार इसका परिसर बढाया गया। सांप्रदायिक सदभाव की प्रतीक मस्जिद आज भी चमकती है। इसके रखरखाव पर खासा जोर रहता है। क्योंकि यह मस्जिद गैर मुस्लिमों के बीच भी श्रद्धा का केंद्र बनी हुई है। हिंदू परिवार के लोग अपने बच्चे का विधारंभ उत्सव इसी मस्जिद में करते हैं।

भरत मंदिर परिसर 
केरल के छोटे छोटे विकसित गांवों में प्रकृति और इतिहास के कितने ही गौरवशाली पन्ने फड़फड़ाते मिलेंगे। कोंडुगुलूर का पचास साल पहले बना एम ई एस अस्माबी कालेज भी उतना ही गौरवशाली है। पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में अकेला राज्य है केरल जहां हिंदी के प्रति बैर का भाव नहीं, जहां हिंदी सबको समझ में आती है और थोड़ा बहुत सब बोल लेते हैं। खासकर टूरिज्म से, ड्राइविंग से और रेस्तरां से, अध्यापन से, किसी भी व्यवसाय से जुड़े लोग हिंदी अच्छी बोल लेते हैं। केरल के तन पर जितना पानी है उतना ही पानी केरल के लोगों और उनके मिलनसार स्वभाव में है। नारियल पानी की मिठास उनकी हंसी में मिलेगी और नेह उनके आतिथ्य में। केरल का खानपान भी लजीज है। कई प्रकार के व्यंजन है जिसका स्वाद सिर्फ वहीं जाकर लिया जा सकता है। कहते हैं न कि खाने का मौलिक स्वाद में उस जगह की हवा और पानी का भी योगदान होता है। सुखद ये कि जिस कालेज में हिंदी सेकेंड लैंगेवेज की तरह पढाई जाती है वहां हिंदी में एक अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आश्वस्तिदायक लगा। विषय भी ऐसा कि एकबारगी आप हैरान हो जाएं... हिंदी साहित्य में सेना-सिविल संबंध। अमेरिका ( देवी नागरानी) मारिशस (अल्का धनपत) के अलावा देशभर से प्रतिभागी, वक्ता यहां जुटे और दो दिन तक हिंदी ही हिंदी छाई रही। चलते समय इसीलिए आयोजन मंडल से जुड़े प्रो. रंजीत माधवन ने कहा—आप लोग चले जाएंगे पर हमलोग कई दिन तक हिंदी में ही हिंदी की बातें करते रहेंगे।
आत्मीयता की ऐसी मिठास देवों की धरती पर ही संभव है।  


गीताश्री @ भरत मंदिर