Tuesday, December 1, 2015

कहानी

माई री मैं टोना करिहों

गीताश्री

कहां से आ रही हो...ये तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है...फोन क्यों नहीं उठाया तुम लोगो ने..कितनी बार कॉल किया है..कुछ अंदाजा है तुम दोनों को...?”
दोनों के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं। मिताली ने चीखते हुए एक साथ कई सवाल पूछ कर दोनों को और असहज कर दिया था। दोनों को शायद मिताली के बमवर्षक स्वभाव का अंदाजा था। बोला कुछ नहीं, हारे हुए जुआरियों सी घर के अंदर चली आ रही थीं जैसे बीच समंदर में तैरते जहाज के डेक पर पिटे हुए दो जुआरी मातम मनाते बड़बड़ाते, अनजानी हवाओं और अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। उन्हें मिताली के गुस्से की परवाह नहीं थी। दोनों अपने कमरे की तरफ बढ रही थी जैसे एक एक पांव पत्थर से बंधे हों.।
मिताली फिर गरजी...
क्या बात है, बताओगी भी कुछ..? .मैं यहां घर का काम करते करते मर गई और तुम दोनों मां बेटी गायब...बता कर तो जाती...हद है..कितना भी तुम लोग के लिए किया जाए, तुम लोग कभी सगे नहीं हो सकते..हमारी परेशानियों से तुम्हारा कोई लेना देना नहीं होता..बस अपने बारे में सोचते हो। मैं पागल हूं क्या जो चीखती चिल्लाती रहती हूं। तुम अपने मुंह में दही जमा लेती हो..?
मैंने वो कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था...अनहोनी घटित करा दी...मैडम..अनहोनी..लेकिन हार गई...यह भी बेकार गया..अफसोस..
अधेड़ सिल्बी पल्टी..अपनी जवान बेटी एलीना की हथेलियां जोर से पकड़े हुए अपने छोटे से दमघोंटू कमरे में घुस गई। यही वह अस्थायी पनाहगाह था जहां दोनों मां बेटी पिछले कुछ समय से छुपती चली आ रही थीं। इस वक्त यह पनाहगाह कितना सुकुनदायक था ये कोई इन दोनों से पूछे। मिताली का माथा घूम गया.
क्या..ओह..कहीं उसकी सलाह पर तो अमल नहीं कर लिया ? हे भगवान...बात तो पता चले..कोई और बात तो नहीं...।
घर में देर तक सन्नाटा छाया रहा। मेरी धड़कन बढी हुई थी। कोई तो बात हुई है जो नहीं होनी चाहिए थी। मेरी आंखों के सामने पूरी फिल्म घूमने लगी।
एक साल पहले ही सिल्बी अपनी जवान होती बेटी की ऊंगली थामे उसके पास आई थी, काम के लिए। उसकी संस्था ने भी कहीं भेजने से मना कर दिया था। सिल्बी की शर्त्त थी कि जहां भी जाएगी, अपनी बेटी के साथ जाएगी। उसे अकेली नहीं छोड़ेगी। सिल्बी का स्वभाव इतना मिलनसार था कि हर कोई घरेलू कामकाज के लिए उसकी मांग करता, उसे ले भी जाता, बेटी के साथ और कुछ ही दिन बाद दोनों मां बेटी लौट कर संस्था के होस्टल में वापस आ जातीं। संस्था वाले भी परेशान हो उठे थे। मां बेटी पर दवाब बन रहा था कि या तो वे गांव लौट जाएं या बेटी को कहीं छोड़ कर घरो में काम पर लग जाए। मिताली की नजर सिल्बी पर जब पड़ी, वो भीतर ही भीतर टूट चुकी थी। न वह अपने गांव लौटना चाहती थी न ही अकेली किसी घर में काम करने को तैयार थी। जहां जाएंगी, दोनों साथ। अजीब जिद है।
मिताली ने इन्हें देखा तो उम्मीद बंधी। अच्छा होगा, दोनों मां बेटी साथ रहेंगी, एक से दो भले। बहुत विचार कर मिताली ने जब अपने घर चलने का प्रस्ताव दिया तो सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। मिताली ने सबके चेहरे पर रहस्यमयी छाया आते जाते देखी। उसने नोटिस किया।
कोई बात है क्या ?”
ये दोनों आपके काम की नही हैं। हम आपके यहां इन्हें नहीं भेज सकते।
सिल्बी की आंखों में चिरौरी कौंधी। उसकी बेटी कोने में बैठी शायद साड़ी में फौल लगा रही थी। मिताली ने सिस्टर की तरफ सवालिया आंखों से देखा..
मैं इन दोनों को अपने पास ले जाऊंगी, फिर क्या प्रोब्लम..
फौल लगाते लगाते एलीना की नज़रें पहली बार मिताली की तरफ उठी. उनमें खौफ भरा था। वे आंखें अनगिन सवालो से लैस बंदूक की तरह दिख रही थीं, जिसका ट्रिगर कभी भी दब सकता है। मिताली सिहर गई। कभी देखी नहीं ऐसी आंखें..। घर पर रात दिन ये आंखें यूं ही दिखेंगी तो जीवन कठिन हो जाएगा। मिताली ने अपनी नजरें उधर से हटा लीं। सिल्वी ने जाकर जोर से एलीना का हाथ पकड़ कर उसे खड़ा कर दिया।
ये लोग तुम्हारे काम के नहीं हैं, मैं अब तक इन्हें तुम्हारे पास भेज चुकी होती। इन्हें नहीं भेजने के पीछे कोई वज़ह होगी। अब जब तुमने तय कर लिया है, इन्हें ले ही जाने का तो इनका सच बता देना चाहती हूँ।
सिस्टर गंभीर दिख रही थीं, चिंतित भी लगीं।  
मिताली सिस्टर के करीब आई...
आप जो भी कहें कृपया धीरे कहें, मैं नहीं चाहती की यहां बैठे सभी लोग सुनें।
मिताली को लगा था की ज़रूर कोई ऐसी-वैसी बात होगी जिसकी पर्देदारी ये लोग लंबे समय से करते आ रहे थे। वैसे वह सुन भी लेना चाहती थी की जिन्हें वह घर ले जाना चाहती थी, उनकी सचाई पता तो होनी ही चहिये।
सिस्टर वैसे तो स्वभाव से कोमल थी लेकिन उनकी आवाज़ कड़क थी। इसलिए मिताली के मना करने पर भी उनकी आवाज़ सिल्वी और एलीना दोनों तक पहुँच गई-
ये लड़की मिर्गियाह है .. इसे दौरे पड़ते हैं .. कभी भी ..कहीं भी ..किसी भी जगह ...इसलिए हम इन्हें न तो कहीं भेजते हैं न ही कोई इन दोनों माँ-बेटी को अपने यहाँ रखता है।
अगर संभव हो तो बेटी को आप संस्था के होस्टल में रख लीजिये, मैं माँ को ले जाती हूँ...सिल्बी मिलने आती रहेगी।
सिस्टर और मिताली दोनों ने सिल्बी की तरफ देखा, सिल्बी एलीना की तरफ झुकी हुई थी और एलीना ...जोर से उसके मुँह से चीत्कार निकल गई...एक ऐसी करुण चीत्कार जैसे किसी मेमने का गला दबा दिया गया हो. आँखें ऐसे पलट गयीं जैसे हलाल किये जाने वाले बकरे की कातर आँखें..हाथ पैर अकड़ने लगे उसके..न जाने किस दिशा में देख रही थी आंखे, मुंह से सफेद पानी की पतली धारा निकल रही थी। उसका पूरा चेहरा पहली बार देखा मिताली ने। चेहरा आधा जला हुआ, उसकी खाल सिकुड़ी हुई थी। एक तरफ चिकना, गोरा चेहरा दूसरी तरफ झुलसा हुआ। एलीना के कंठ से तरह तरह की करुण आवाजें फूट रही थीं। दोनों हाथों की ऊंगलियां ऐंठ गईं थी। ऐसा लगा कि वे उंगलियां कहीं इशारा करते करते ऐंठ गई थीं। वह कुछ दिखाना चाह रही थी। कुछ अदृश्य था, हवा में, जो सिर्फ एलीना को दिख रहा था। सिल्बी उसे सहजने में लगी थी। बाकी सारे लोग स्तब्ध थे।
अचानक सिस्टर मिताली की तरफ मुखातिब हुईं-
देखा, देख लो, इसलिए नहीं भेजती कहीं इन्हें..
मिताली डरी हुई थी। सिल्बी उसे खींच कर दूर ले गई। थोड़ी देर तक अदम्य शान्ति छाई रही वहां, सिस्टर, मिताली सब एकदम चुप्प...गहरा सन्नाटा छाया था। मिताली समझ नहीं पा रही थी की वह क्या करे..उसका चेहरा एक कशमकश में डूब-उतरा रहा था।
एलीना को लेकर एक छुपे कोने में सिल्बी ले गई थी।
अचानक सन्नाटे को चीरती सिल्बी की आवाज़ गूंजी-, मैडम आप हमें ले चलिए, मैं वादा करती हूँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी...इसे दौरे सिर्फ 5 मिनट के लिए आते हैं..वो मैं संभाल लूंगी। 
कभी कभी आवाज भी हथियार होती है। मन का मैल तो काटती ही हैं, दुविधाएं भी काट देती है। मिताली ने एक नज़र सिस्टर को देखा। अब भी अगर ले जाना चाहें तो हमें कोई दिक्कत नहीं। बट, प्लीज, डोंट ब्लेम अस, यूओर डिसीजन्स...हमें कहीं न कहीं सिल्बी को काम दिलाना ही है। इसकी जिंदगी का सवाल है। हम तलाश कर रहे हैं..पर आपको अपना फैसला खुद ही करना है।
मिताली सोच में थी। लेकिन फैसले पर पहुंच गई थी। सारी शंकाओं पर उसकी जरुरत हावी हो गई थी। सच यह था की मिताली भी बिना मेड के गंभीर समस्याओं का सामना कर रही थी. बिना मेड, घर और ऑफिस दोनों को संभालना बहुत दुष्कर होता जा रहा था।  
अब वे दोनों यानि सिल्बी और एलीना मिताली के घर पर थीं और मिताली न जाने किन झंझावातों से गुज़र रही थी. कभी ख्याल आता कि कहीं उसने इन दोनों को लाकर गलती तो नहीं की, कभी यह कि न जाने कैसी हैं ये दोनों, क्योंकि वे दोनों उसे थोड़ी सी रहस्यमयी भी लगी थीं, घर आने के बाद जब उसने सिल्बी से उसके पति के बारे में जानना चाहा तो सिल्बी ने एक निश्चित उत्तर नहीं दिया।. कभी वह कहती ...मेरा पति नहीं है ...कभी कहती ..वह हमें छोड़कर भाग गया और इस सवाल पर नज़रें चुराती या झेंप जाती। वह बचती थी इस सवाल से। कई बार जवाब देते देते कमरे से घुस जाती..। उसे पति से संबंधित सवाल बहुत नागवार लगते थे।
सिल्बी का मन होता कि मिताली से पूछे कि आपके पति कहां हैं। आप अकेली क्यों रहती हैं। आपकी बच्ची कभी अपने पापा का नाम क्यों नहीं लेती। मालकिन थी वो। कहीं बुरा ना मान जाए। पर मिताली की जीवन भी उसे कम रहस्यमय नहीं लगता। कुछ मामला यहां भी है जिसने मैम का जीवन भी दर्द से भर दिया है। दफ्तर से लौट कर खामोश मिताली आकाश निहारा करती है। दो दर्द एक छत के नीचे वक्त काट रहे थे।  
इधर मिताली के जेहन में उठते सवालों और सिल्बी के अनसुलझे जवाबों ने उसकी नज़र में सिल्बी को रहस्यमयी बना दिया था और एलीना इसलिए रहस्यमयी थी क्योंकि वह कुछ बोलती नहीं थी, बस अजीब सी नज़रों से कभी किसी चीज़ को, कभी किसी चीज़ को घूरती रहती। काम-धाम करना तो दूर की बात। सिल्बी जरुर दिनभर काम में जुटी रहती। बीच बीच में एलीना को देखती। उसकी रंगहीन आँखों से मिताली को बहुत डर भी लगता था। वे रंग बदलने वाली आंखें थीं। समय समय पर रंग बदलती हुईं। हमेशा पीछा करती हुई आंखें।
उसके मन में बुरे-बुरे ख्याल भी आते थे क्योंकि उसने सुन रखा था कि मिर्गी के पेशेंट दौरा पड़ने के क्रम में अजीब-सी हरकतें भी करते हैं, जैसे हाथ-पैर पटकना, गला दबाना...। एक पल को सिहर उठी वह कि कहीं वह घर पर न हो और इसे दौरा पड़े और इसने मेरी बच्ची का गला दबाने की कोशिश की तो...हाय मेरी फूल-सी बच्ची.। अब उसे लग रहा था कि उसने इन दोनों को लाकर गलती ही की। पर अब कर भी क्या सकती थी. रोने का, बहुत जोर-जोर से रोने का मन कर रहा था पर रोए किसके सामने। कोई ऐसा नहीं था जिसके सामने घरेलू-राग गा सके। इन्हीं झंझावातों से जूझते उसने हारकर सिस्टर को फ़ोन मिलाया-
‘हैलो सिस्टर, मैं मिताली ....आगे वह कुछ बोल नहीं पाई, आवाज भारी हो गई थी। ’
‘एनी प्रॉब्लम मिताली ...मैंने तुम्हें पहले ही कहा था ...सिस्टर बोल पडीं। ’
‘नो सिस्टर ...नथिंग...बस मैं सिल्बी के पति के बारे में जानना चाहती थी...मिताली ने खुद को संयत करते हुए कहा।
‘ओह..। देखो मिताली इसके पति के बारे में ठीक ठीक तो मुझे भी पता नहीं, पर हाँ उड़ती हुई एक बात पता चली थी कि वह कोई बड़ा मालिक है जिसके यहाँ सिल्बी काम करती थी और एलीना उसी की बेटी है। अब कौन है, कहां रहता है...ये सब हमें नहीं पता। हमने पूछा भी नहीं। संस्था में गांव का पता दर्ज है, जहां उसके घरवाले रहते हैं।’
‘ओके .. थैंक्स....कहकर मिताली ने फ़ोन रख दिया.
एकाध सप्ताह बीत गए. सिल्बी और एलीना दोनों का मन भी यहाँ लग गया था और मिताली कि समस्या भी सॉल्व हो गई थी. एलीना को यहाँ दौरे भी नहीं पड़े थे अबतक, लेकिन एक दिन किसी बात पर मिताली ने एलीना को जोर से डांट दिया। उस दिन उसे फिर से दौरा पड़ा। इस बात का मिताली को तो कुछ दिनों बाद पता चला क्योंकि उस दिन वह हड़बड़ी में थी और दफ्तर के लिए निकल गई थी।
एक बार फिर किसी बात पर मिताली ने जोर से एलीना को आवाज़ दी तो घबराती हुई सिल्बी आई-,‘मैडम इसे मत डांटिए प्लीज़...उस दिन जब आपने डांटा था तो उसे दौरा पड़ गया था, यहाँ जब से आई है तब से इसे उसी दिन पहली बार ही दौरा पड़ा था। जब से यहां आई है, दौरे कम पड़ने लगे हैं। किसी बात का तनाव होता है या किसी बात से डर जाती है तो जल्दी जल्दी पड़ते हैं।
मिताली ने सिल्बी से पूछा – ‘इसे दौरे कब से पड़ते हैं ..बचपन से, मेरा मतलब है जन्म से ही’...?
‘नहीं मैडम ...यह थोड़ी छोटी थी और मेरे मामा मामी के पास थी गाँव में। मैं शहर में थी काम पर। पैसे भेजती रहती थी। सोचा था वहां पल जाएगी, यहां का कहां मैं घर घर लेकर फिरती। बच्चों वाली मेड को कोई काम पर नहीं रखता। मुझे क्या पता था कि मेरे अपने ही मेरी बच्ची के साथ....सिल्बी कराही।
मेरा मामा बहुत बुरा आदमी था मैम। पता नहीं उसने क्या किया इसके साथ। मुझे कुछ पता नहीं चला। एक दिन खबर मिली कि यह बुरी तरह जल गई है। तब ये 10 साल की थी। उसके बाद ही इसे दौरे पड़ने लगे, शायद दिमाग कि कोई नस जल गई है, बहुत डाक्टरों को दिखाया। अब एम्स में भी दिखा रही हूँ। पर कोई फायदा नहीं. तबसे मैं इसे किसी के भी पास नहीं छोडती। अकेला कभी नहीं छोडती...’ भर्राई आवाज़ में सिल्बी बताती जा रही थी.
ओह....मिताली की आंखों में अखबारों की कतरने, खबरें घूमने लगी। ऐसी कितनी खबरें भरी होतीं है। तो ये बात है...एलीना भी...तभी किसी पुरुष की छाया से डर जाती है। शायद सिल्बी ने इसीलिए काम के लिए मर्दविहीन घर की तलाश करती है। मिताली को याद आया कि उसने संस्था में फार्म भरते समय घर के सदस्यो की डिटेल्स दी थी। उसमें दो सदस्य-मिताली और रेशमा दर्ज थे। इसका मतलब सिस्टर अंदर से चाहती थी कि सिल्बी मेरे घर आए..। सिल्बी का चेहरे पर उदासी, हताशा और नैराश्य की मिली जुली परछाई तैर रही थी। पहली बार गौर किया। जंगल मे तपे हुए चेहरे वक्त की मार खाकर कैसे बुझे हुए कंदील में बदल जाते हैं। कितनी घिसाई हुई होगी शहर में, बड़े मकानो में, कितने मालिक, कितने मालकिन..कितने कितने सितम..। कितनी आवाजें, कितना शोर इतने सालो में पचा कर सिल्बी का चितकबरा जिस्म तैयार हुआ होगा। सिल्बी सपनों की जमीन से उखड़ी हुई ठूंठ की तरह खड़ी थी, वहां। मिताली ने ठंडी सांस छोड़ी। दोनों मां बेटी के प्रति सहानूभूति और दिलचस्पी जगी। उसने धीरे-धीरे ऑबज़र्व करना शुरू किया।
एलीना तेज़ आवाज़ से डर जाती है और किसी पुरुष की उपस्थिति भी उसे डराती है। घर में कोई पुरुष गेस्ट आ जाए तो एलीना कभी पानी देने भी नहीं जाती, न ही सिल्बी उसको भेजती थी। दरवाजे की घंटी बजे तो सबसे धीमी चाल में चलती हुई एलीना जाती और ड्राईवर, धोबी या पेपरवाले को देखते ही तेज कदमों से लौट आती, बिना दरवाजा खोले। मिताली के यहाँ आये किसी पुरुष मेहमान को वह पानी तक देने जाने से घबराती थी। मिताली के दिमाग में एलीना को लेकर अब हर पल उधेड़बुन चलती रहती थी। वह एलीना के बीमारी के कारणों का अनुमान लगाती थी और हर बार उसकी आशंका एक ही जगह जाकर ठहर जाती- ‘क्या पता सिल्बी जब उसे अपने रिश्तेदारों के पास छोड़कर आई थी तब वहां बचपन में उसके साथ कोई हादसा हुआ हो.. शायद इसीलिए वह पुरुषों से डरती थी। वह जली कैसे, उसकी आंखों में इतना खौफ क्यों है, वह पुरुषों की छाया से भी डर क्यों जाती है। सिल्बी को शायद ज्यादा नहीं पता। उसकी बेटी का बचपन अंधेरे में रहा है। वह उसकी बीमारी के लक्षणों को ठीक से पकड़ नहीं पाई है आजतक। तभी तो वह बार बार एलीना की शादी को लेकर चिंतित दिखती है। एलीना मिताली की 3 वर्षीय बेटी रेशमा से जरुर हंसती खेलती दिख जाती है। एलीना को हंसते हुए तभी देखा था मिताली ने जब रेशमा उसके बाल खींच कर तालियां बजाती....हुर्रे...। मिताली चाहती भी नहीं कि वह उसकी बेटी से ज्यादा घुले मिले। क्या पता, कब अटैक आए और बच्ची डर जाएं। सिल्बी को साफ साफ बता दिया था कि एलीना को दूर रखे। सिल्बी भरसक कोशिश करती कि एलीना अपने कमरे में बैठी रहे। कभी कभार अपनी हेल्प के लिए आवाज लगा देती।
बारिश के दिन थे। ऊमस थी समूची फिजा में। शाम को दफ्तर से लौट कर मिताली अपने बालकनी में बैठी बाहर भीतर दोनों तरह से गीली हो रही थी। दूर ऊंची इमारतें बारिश की धुंध में खोई हुई दिखीं। जैसे उसकी जिंदगी धुंध से भर गई है, इमारतों की तरह। कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। यहां रहे या वापस लौट जाए, उसी भवन में, जहां सालों रहती आई है। इतनी मुश्किल से बच्चों समेत निकल पाई वहां से। कुछ छूट गया था, वहां, पटपड़गंज के उसी फ्लैट में। चलते समय कैसे दहाड़ा था अखिलेश-जाओ, जाओ.. तुम्हें मुक्ति चाहिए,  आजाद, पुरुषविहीन दुनिया तुम्हें लुभा रही है। तुम जैसी औरतों को ना पति चाहिए ना साथी। अकेली दुनिया बसाओ। कोई मर्द नहीं बना तुम्हारे लिए। तुम्हारे कहने पर हम साथ रहे, शादी नहीं की। तुम जिंदगी को प्रयोगशाला बना रही थी और मैं मूर्ख तुम्हारा साथ दे रहा था। तुम जानती थी कि शादी होती तो रिश्तों को झटकना इतना आसान नहीं होता तुम्हारे लिए...हमारे रास्ते अलग हुए...मुझे अपना पता भी मत देना..। अब मैं फिर से प्रेम करुंगा, शादी भी करुंगा...तुम देखना, घर कैसा होता है और समझौते कैसे होते हैं..।
मिताली ने अखिलेश के प्रलाप को रोका...लिव इन में रहने का फैसला एतकरफा नहीं था, मुझ पर इल्जाम न लगाओ। तुम भी शुरुआती दौर में शादी को लेकर कन्फयूज थे। हम दोनों चाहते थे कि कुछ वक्त साथ रह कर देखें, समझे और फिर...
और कितना वक्त चाहिए तुम्हे मिताली, बच्चा क्यों पैदा किया..., तुमने तो इतना ही समझा कि मुझे अपना दुश्मन मान लिया...साथ रहते हैं तो कुछ समझौते करने पड़ते हैं और तुम बिल्कुल तैयार नहीं हो..।
अखिलेश बौखला रहा था।
मिताली जैसे काठ की हो गई थी। उसका अपना फैसला था जो अलग राह लिए जा रहा था।
ये फैसला तो उसे बहुत पहले कर लेना चाहिए था। देर हुई। अखिलेश ने मान लिया था कि जिदंगी अब उसकी मुठ्ठी में है। मिताली की इच्छाएं, उसके सपने, उसका मोबाइल, उसकी कविताएं, उसका फेसबुक एकाउंट...हर जगह अखिलेश की छाय़ा। वही पतियों वाली टोकाटोकी, पतियों वाली धौंस, वही मोबाइल पर एसएमएस चेक करना और रिएक्ट करना और गुस्से में चीखना...ये सब यहां नहीं चलेगा...तुम मेरे घर में रहती हो, न भूलो..और एक दिन तो हद हो गई जब आधी रात को मोबाइल पर किसी दोस्त का भेजा एक शेर-ख्वाहिशो का काफिला भी अजीब है, कमबख्त गुजरता वहीं से है जहां रास्ते नहीं होते... पढ कर अखिलेश चीखा--.भठियारपन नहीं चलेगा यहां..समझी...। मिताली ने समझाना चाहा कि उसने दिन में ये शेर मांगा था, कहीं इस्तेमाल करने के लिए, जो दोस्त ने अब भेजा है...पर अतिशय प्रेम अंधा होने के साथ साथ बहरा भी हो जाता है, सुनता नहीं। ऐसा प्रेम नियंत्रित करना चाहता है और चीजों को अपने चश्मे से देखता है। अखिलेश भी बहरा हो चुका था। मिताली की बाहरी दुनिया में जैसे जैसे पुरुष मित्रों की संख्या बढ रही थी, अखिलेश उतना ही कुंठित होता चला जा रहा था। और उस रात...भठियारिन शब्द सुनकर घृणा की एक लहर उपर से नीचे तक दौड़ गई पूरी देह में। ये आखिरी कील थी रिश्ते की जो गहरे धंस गई थी। साथ रहने की नई और प्रायोगिक अवधारणा भी जब शादी की गति को प्राप्त हो गई तब क्या..?
जिंदगी की जैसे सवालों के धुंध में घिर गई थी। उसने दूर क्षितिज में छिटकते बादलो को देखा। हल्की फुहारें बरसने लगीं। उसे लगा शायद धुंध साफ होगी जल्दी। उसने हाथ बढाया, बारिश की बूंदे हथेलियों पर झरने लगीं। किसी नेमत की तरह। सिल्बी उसके पास न जाने कब आकर खड़ी हो गई थी। उसे पता नहीं चला। अपनी जिंदगी से जूझती हुई मिताली ने सिल्बी को अपने बारे में कोई भनक नहीं लगने दी थी।
बहुत उमस है, चिपचिपी गरमी वाली, धरती की गरमी अभी निकली नहीं, इसलिए,
सिल्बी एकदम पास आकर खड़ी हो गई थी। कुछ लेंगी, चाय बनाऊं..
आं..हां...नहीं...रहने दो...लिम्का है तो दे दो...गैस-सी बन रही है..इसे पी लूं तो शायद ठीक हो जाएं..
मिताली ने सिल्बी को जाते हुए रोका, इधर आओ...
एक बात बताओ..एलीना की हालत कभी ठीक नहीं होगी क्या...क्या जीवन भर ऐसी ही रहेगी..कुछ सोचा है..
डॉक्टर कहते हैं कि इसकी शादी कर दो यह ठीक हो जाएगी। अब कौन करेगा इससे शादी..कहां से लड़का लाऊं...गांव बिरादरी में सबने मना कर दिया है, तभी तो साथ लिए फिर रही हूं मैडम, जब तक हूं तब तक निर्वाह, आंख बंद, सारी चिंता खत्म..क्या कर सकती हूं..बताइए...
मिताली ने हैरानी से पूछा..लड़के नहीं मिल रहे, अच्छा..?? तुम बताओ ही मत, चुपचाप शादी कर दो, ठीक हो जाएगी, फिर क्या ।’
‘मैडम मैंने बहुत कोशिश की पर इसकी जली हुई शक्ल की वज़ह से कोई इससे शादी करना नहीं चाहता। मैंने तो इसके लिए बहुत से पैसे भी जमा कर रखे हैं, जो इससे शादी करेगा उसे पैसे भी दूँगी.’         
अब तो इसके लिए भी तैयार हूँ कि कोई पैसे लेकर भी इसके साथ कुछ कर ले...शायद ठीक हो जाए। कोई नहीं मिलता मैडम, अब तो जादू टोना ही करना पड़ेगा..सिल्बी आजिज आ चुकी थी। 
हरियाणा में बहुतेरे कुंवारे लड़के मिलते हैं..वही ढूंढे कोई...
सिल्बी मिताली की सलाह सुने बगैर लिम्का लाने चली गई। बारिश थम गई थी। सांझ की स्याही आकाश पर उतरने लगी थी।   
अचानक किकियाती हुई आवाज आई। मिताली उठकर दौड़ी। बच्चों वाला घर है। डर तो लगा ही रहता है। वैसे भी एक डर इस घर में रहता है। कुछ तो है जो अब तक सिल्बी छिपाती आ रही है। आवाज सिल्बी के कमरे से आ रही थी। परदा हटाया, एलीना अपने बिस्तर चित्त  पड़ी दोनों पैर, हाथ रगड़ रही थी। सपने में थी या अर्द्दचेतना, सारी चादर सिमट गई थी। आंखें मुंदी हुई। कंठ से आवाजें, किकियाने की। वह हिल रही थी और हाथ पैर उठाने की कोशिश कर रही थी।  
सिल्बी पास में खड़ी अजीब सी मुद्रा में दिखी।
क्या हो रहा है...जगाओ इसे..बुरा सपना देख रही होगी..मिताली अक्सर बुरे सपने देखते हुए चिंहुक कर जगती रही है। कई बारे उसकी आंखों से नींद में ही टपके आंसू से गाल गीले रहे हैं। उसकी कंठ से भी आवाजें निकलती रही हैं। बड़बड़ाई भी है...पर सुनने वाला कौन..अपनी ही आवाज कानों में पड़ी और नींद खुल गई झटके से।
नहीं मैडम..मत जगाइए..जब भी ये चित्त सोती है, ऐसे करती है। मना करती हूं, चित्त न सोया कर...कभी सोने नहीं देती। आज पता नहीं कैसे...
क्यों, चित्त सोने में क्या प्रोब्लम है ?”
हमारे गांव में कहते हैं, जिन्न फिदा हो जाता है कुंवारी लड़कियों पर और ऊपर से दबोच लेता है..मैं तो रात में इत्तर भी नहीं लगाने देती इसको...सरसराती हुई आवाज में सिल्बी जैसे कोई रहस्य खोल रही थी।
अच्छा...!!!
मिताली हो हो हो कर हंसी। कुछ पल के लिए एलीना की छटपटाहट का अहसास जाता रहा।
ये ट्राइबल भी ना...क्या क्या वहम पाले रखते हैं...बात कुछ और..और कारण कुछ और..ओ गौड..तभी एलीना की प्रोब्लम कुछ और इलाज कुछ और...।  
तभी तो मैडम जी...हम सोचते हैं इसकी शादी करा दें...शायद ये सब बंद हो जाए..
एलीना बेचैनी से बिस्तर पर अपनी पीठ रगड़ते रगड़ते शांत हो रही थी। मिताली को समझ में आया, ये किसी बुरे सपने का असर था। वह भी तो रातो में अखिलेश को तलाशते हुए बिस्तर पर ऐसे ही देह रगड़ लिया करती है। ठंडा बिस्तर भायं भायं करता है, वह नींद से जग कर बच्चो को अपने से चिपका लेती है। ये सपनो का जिन्न है, जो सोते जागते, डराता रहता है। इसका इलाज कुछ और है। मिताली को लगा सिल्बी कहीं न कहीं अपनी बेटी की बीमारी को गलत तरह से देख समझ रही है। वह मानसिक संताप को दैहिक ताप से जोड़ रही है। वह दोनों में फर्क नहीं कर पा रही है। कैसे समझाएं..मर्द के सिर्फ दैहिक स्पर्श से कौन-सी स्त्री का संताप दूर हुआ है। मर्दो के साथ कभी रही नहीं सिल्बी...कैसे समझेगी। खुद भी झेल रही है। अब बेटी की बीमारी का इलाज किस दिशा में ढूंढ रही है। ओह..  
और फिर एक दिन, दोनों मां बेटी डाक्टर से पास गईं। वक्त पर लौटी नहीं। इंतजार की बेचैनी में मिताली परेशान हो रही थी।
मिताली के सामने सिल्बी के यह वाक्य गूंज रहे थे- अब तो इसके लिए भी तैयार हूँ कि कोई पैसे लेकर भी इसके साथ कुछ कर ले लेकिन कोई नहीं मिलता मैडम...जादू टोना करना पड़ेगा...
फिर मिताली के सामने सिल्बी का आज का वाक्य – मैंने वो कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था...अनहोनी घटित करा दी...मैडम..अनहोनी..लेकिन हार गई...यह भी बेकार गया..अफसोस..।
मिताली को समझते देर नहीं लगी कि सिल्बी एलीना के साथ कहाँ से लौट रही है...मिताली ने सिल्बी के दोनों कन्धों को थामते हुए जैसे ही कुछ और कहना-पूछना चाहा। सिल्बी बिलख पड़ी ...मैडम इसके साथ कोई सोने को तैयार नहीं होता, शादी तो दूर की बात है। आज ऐसी ही एक कोशिश करके आ रही हूँ, जैसे ही वह लड़का इसके सामने आया, इसे दौरे पड़ने लगे और वह चीखता हुआ भाग खड़ा हुआ। न जाने यह कैसी किस्मत लेकर पैदा हुई है। मैं नहीं चाहती कि इसे अपने जैसी ज़िन्दगी दूं...बिनब्याही माँ बन जाये यह...फिर यह खुद का ख्याल नहीं रख सकती, बच्चे का ख्याल कैसे रखेगी...मैंने तो इसका ख्याल रख लिया मैडम पर मेरे बाद इसका कौन है...इसलिए चाहती हूँ कि इसकी शादी हो जाए किसी तरह पर इसके नसीब में तो सुख बदा ही नहीं है न ।
सुबकते हुए सिल्बी कहती जा रही थी और मिताली जो अब तक गरज रही थी अब उससे कुछ कहा नहीं जा रहा था। कैसी मां है ये औरत ? अपनी संतान के भविष्य के लिए हर मां सजग रहती है। बहुत कुछ करती है, किंतु इसने तो दुनिया के सारे पहाड़ अपनी छाती पर रख लिए। जीवन सुधारने की शुरुआत ही जब उसके उजड़ने से हो तो ? हारे को हरिनाम ही तो बचता है। इसके लिए हरिनाम यही था शायद, अंतिम उपाय, मगर कितना त्रासद।
मुझे कुछ तो करना पड़ेगा, सिल्बी ऐसे नहीं मानेगी। इस उम्र में समझाना मुश्किल है। मिताली को समझ में आ रहा था कुछ-कुछ...ये अंधेरा यूं ही नहीं किसी लड़की के जिस्म में भरता हैं। असुरक्षित बचपन के अंधेरे से जूझती हुई इस बच्ची का ठौर कहीं और है। एक नयी जमीन उग रही थी, उस घर में। मिताली को एलीना से बहुत बात करनी है अब। बहुत कुछ पूछना है, उसके भीतरी संसार को खंगालना है। भीतरी अंधेरे को उजाले से भरने वाले चिकित्सक की तलाश करनी होगी।    
मिताली की नम आवाज आई-,‘सिल्बी तुम चिंता मत करो, मैं जब तक जिंदा हूँ, एलीना का ख्याल रखूंगी, तुम निश्चिंत हो जाओ, कहीं ले जाने की जरुरत नहीं, मैं देखूंगी इसकी बीमारी को, मुझ पर छोड़ो, जैसा कहूं, मान जाओ। अपने वहम छोड़ दो। पर...
मिताली अटकी- तुम भी मुझसे एक वादा करो, अगर मैं तुमसे पहले चली गयी तो तुम मेरी बेटी का ख्याल रखोगी। बेटी की चिंता है, लड़की जात है, मेरे बाद उसका जीवन तबाह हो जाएगा।’
मिताली के सीने से धुंए का कोई गोला उठा, हलक में फंस गया।
अचानक सिल्बी के आंसू सूख गए..विस्फारित नेत्रों से उसने मिताली को देखा, आँखों में कई सवाल लिए और उनके जवाब भी उसे खुद-ब-खुद मिल गए। न उसने मिताली से कुछ पूछा न मिताली ने बताया..हाँ, दोनों के बीच कायम हुए आंसुओं के रिश्ते ने वो सबकुछ कह दिया था जो अनकहा था अबतक। अब दोनों के आंसू साथ-साथ बह रहे थे और एक कोने में खड़ी एलीना और उसके बालों से खेलती रेशमा अपनी-अपनी मांओं को चुपचाप देख रही थीं...।  .   

  
     

   

Wednesday, October 21, 2015

यात्रा-कोलाज
नदी की देह पर सदियों की परछाई और काफ्का
गीताश्री

वैसे भी यहां बहुत से कोने हैं, चांदनी रात में छिपे हुए, फीके, उजले, खामोश-माला—स्त्राणा की सदियों पुरानी, टेढी मेढी, गलियों में चलते हुए पांव खुद-ब-खुद धीमे हो जाते है। लगता है, रात के सन्नाटे में इस पुराने शहर की हर ईंट हमारे कदमों की गवाह है। उनकी पीली, जर्द आंखों में जब हमारी छाया पड़ जाती है तो कहीं कुछ सिहर-सा जाता है। मानो बीते समय की कोई परत धीमे से खुल गई हो...(चीड़ो पर चांदनी-निर्मल वर्मा) उस वक्त के प्राग की चांदनी रात थी।
मैं प्राग की चांदनी सुबह देख रही थी। हल्की बूंदाबांदी के बीच। नीली छतरी लिए हुए। यकीन नहीं होता कि किसी सपने का पीछा करते करते आप वहां तक पहुंच जाएं और सपने हथेलियों में किसी नरम चिड़ियां की तरह गुदगुदाते रहेंगे। भारतीयो के बीच प्राग उतना लोकप्रिय सैरगाह नहीं है। लेकिन जिन्होंने चीड़ो पर चांदनी पढी हो उनके लिए प्राग एक रुमानी शहर है। यूरोप की यात्रा के दौरान प्राग का विचार  मन में ऐसे ही नहीं आया। चीड़ो पर चांदनी दिमाग पर हावी थी। व्रत्लावा नदी, प्राग को दोनो छोर को जोड़ता हुआ चार्ल्स ब्रीज, रहस्यमयी कहानियों से भरी हुई माला-स्त्राणा की पथरीली गलियां, बीयर बार, घोस्ट टूर, लारोन्तो चैपल, जहां एक साथ 27 घंटियां बजती है अपनी मायावी धुन के साथ, ये सब कुछ स्मृतियों में घुसे थे, रुमानी किशोर मन के साथ। इसकी रुमानियत अभी बाकी थी कि मिलेना-काफ्का के प्रेम संबंधो ने मन में जादुई लय बना दी । प्राग जैसे अनदेखे ही धड़कता रहा। उसी प्राग के चार्ल्स ब्रीज पर खड़े होकर काफ्का का म्युयिजम तलाश रहे थे हम। आम सैलानी हैरान थे। उनकी नजर में वह जगह सैरगाह कैसे हो सकती है। प्राग वो शहर है जहां काफ्का का जन्म हुआ और जो अप्रत्यक्ष, अघोषित रुप से उनकी हर रचना में शामिल होता रहा। मेरे लिए सपने के सच होने का पल था। जब मैंने चहकते हुए पूछा तो चार्ल्स ब्रीज पर ठेले पर गिफ्ट का सामान बेचती हुई सुंदर सी चेक लड़की भी हैरान हुई...उसने इशारा किया...वो देखो...कोने पर, छोटी सी इमारत है, दस मिनट की वाकिंग है...। वह टूटी फूटी इंगलिश में बता रही थी जो उसने पर्यटको के लिए ही सीखी होगी।

मुझे अंदाजा भी नही था कि इतने पास है काफ्का की मौजूदगी...बूंदाबूंदी की ठंडक जैसे रगो में दौड़ी तो सिहरन हुई। पता नहीं, आंतरिक प्रतिक्रिया थी या मिलेना-काफ्का से मिलने का रोमांच। अपनी तो यात्रा इसके बाद संपन्न होती है। अपना शहर कहीं पीछे छूट जाता है। निर्मल वर्मा सिंड्रोम की शिकार मैं, उन्ही की तरह याद करती हूं, टाल्स्टाय की पंक्तियां—जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जाते हैं, आधी यात्रा पर पीछे छूटे हुए शहर की स्मृतियां मंडराती हैं, केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारे में सोच पाते हैं, जहां हम जा रहे हैं। अब सिर्फ प्राग है, मेरी चेतना में फड़फड़ाता हुआ। 
चार्ल्स ब्रीज पर, हल्की बूंदी बांदी के बीच वहां तक जाते हुए काफ्का और मिलेना के संबंधो, खतो किताबत, संस्मरणों की पंक्तियां कानों में जैसे बज रही हैं। जिंदगी से प्यार करने वाली एक निर्भीक पत्रकार मिलेना, और जिंदगी डरने वाला एक जर्मन-चेक लेखक फ्रांज काफ्का। मिलेना ने अपने मार्मिक स्मृतिलेख में लिखा है-एक बुधिमान आदमी, जिन्हें जिंदगी से डर लगता था।
ठीक उलट फ्रांज काफ्का ने मिलेना के बारे में कहा था कि वह जलती हुई आग है, ऐसी आग मैंने आजतक नहीं देखी। साथ ही साथ बेहद स्नेहमयी, बहादुर और समझदार, वह ये सारी चीजें अपने त्याग में उड़ेल देती है या आप यूं कह सकते हैं कि त्याग के जरिए उस तक आती है...।
मिलेना की दोस्त मार्गरेट बुबेर न्यूमान ने लिखा है कि मिलेना और काफ्का के बीच प्रणय संबंधो की शुरुआत मेरानो में सन 1920 में हुई। यह करुणा और अवसाद से भरा प्यार था। काफ्का के संस्मरणों के टुकड़े पढे तो उनके संबंधो की जटिलताएं स्पष्ट होती है। काफ्का लिखते हैं-प्रेम की राह हमेशा गंदगी और यातना से होकर गुजरती है.., वह हर चीज प्रेम है, जो जीवन को समृद्दि और विस्तार देती है..ऊंचाईयो और गहराईयों, दोनो में..(काफ्का के संस्मरण)
मिलेना की आवाज सुनाई देती है...मैं जिंदगी से प्यार करती हूं, इसके सभी प्रश्नो में, इसके सभी अर्थो में, रोजमर्रा की जिंदगी और छुट्टी की जिंदगी, इसकी सतह पर और उसकी गहराईयों को हर तरह से जादुई जिंदगी को प्यार करती हूं...।
नदी के ऊपर, 700 साल पुराने चार्ल्स ब्रीज पर चलते हुए मैं जिया और अजीत का हाथ जोर से कस लेती हूं। हम तीनों इस प्रेम के कुछ निशां देखने जा रहे थे।

काफ्का की जिंदगी को अपने आप में समेटे काफ्का म्यूजियम के बाहर खड़े होकर कुछ पल के लिए हम संबंधो की जटिल धागों से बाहर आ गए थे। बेहद दिलचस्प नजारा था। छोटी इमारत और बड़ा सा अहाता। बीचोबीच दो ब्रोंच मूर्तियां आमने सामने एक दूसरे के सामने पेशाब करती हुई। लगातार पानी की धारा उनके अंग से फूट रही थी। बताया गया कि सन 2004 में प्राग के मूर्तिकार डेविड केमे ने पीसिंग मैन स्ट्रीम जैसी हास्यास्पद मूर्ति बनाई।

कुछ पयर्टक खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे। मेरी सात वर्षीय बेटी जिया यह देखकर जोर से उछली। कौतूहल ने उसके भीतर हास्य पैदा कर दिया था। पेशाब का पानी छोटे से घेरे में तालाब की तरह भर रहा था। जहां कुछ स्थानीय लोग चेक सिक्के फेंकते हुए कुछ बुदबुदा रहे थे। हम अपलक कुछ देर देखते रहे। अचानक एक बूढा किसी कहानी से निकल कर आया हो जैसे, हाथ में छड़ी थी। उसने पानी में छड़ी डाली, सारे सिक्के उसमें चिपक गए। उन्हें हथेलियों में समेटता हुआ वह माला-स्त्राणा की गलियों में गुम हो गया। बाद में म्युजियम की लेडी केयर टेकर से पूछने पर पता चला कि लोग मनौती मानते हैं, सिक्के डाल कर। यह बूढा फकीर है, पैसे वह ले जाता है और शायद..उसने शायद पर जोर दिया..किसी बीयर बार में शामें बिताता है..दिन फक्कड़, शामें रंगीन।

ओल्ड टाउन से चार्ल्स ब्रिज पार करके जब इस म्यूजियम में घुसते हैं तो एक बार को लगता है कि आप इस दुनिया में हैं वो आपकी नहीं काफ्का की है। इसमें काफ्का का जिंदगीनामा है। हल्का अंधेरा तो कभी अंधेरे उजाले की लुका-छिपी, लगातार कानों में पड़ता कुछ अलग सा साउण्ड ट्रेक। बहुत से उत्तेजक चित्र, काफ्का द्वारा बनाए गए स्केचेज जैसे काफ्का का आमंत्रण हो कि आओ, कुछ तो कोशिश करो, मुझे जानने और समझने की। काफ्का की डायरी, उनकी रचनाओं की पहल प्रति। उनके वे प्रेम पत्र जो उन्होंने अपनी मंगेतर फेलिस बोउवार को 1912 से 1917 के बीच लिखें और दिखेंगी माइलेना जेसेन्सका जिनसे ना सिर्फ काफ्का को इश्क हुआ बल्कि जिसके साथ बर्लिन में वो कुछ साल रहे भी। भूतो के रुमानी और दारुण किस्से से भरे इस शहर में क्या काफ्का और मिलेना की आत्माएं यहां आती होंगी। कहते हैं कि माला-स्त्राणा की ही गलियों में एक सैनिक अपना कटा हुआ सिर टाट के बोरे में लेकर घूमता रहता है। या 16 वीं शताब्दी का एक जवान भूत प्राग की ऊंची इमारतो में हर पूर्णिमा की रात अपनी बेवफा प्रेमिका की याद में रोता है। पहले चार्ल्स ब्रीज पर दोनो तरफ बनी ऊंची ऊंची मूर्तियां, उसकी मायावी कथाएं, भूतहा सैरगाह और टावर क्लाक की घंटी का स्वर, ये सारी चीजें विस्मृत थी इस वक्त। ये काफ्का की जटिल दुनिया से गुजरते, मिलेना के निशां तलाशते हुए कुछ देर ठिठक गए हैं हम। मिलेना के चित्र और कुछ चिठ्ठियां वहां मौजूद हैं। काफ्का और मिलेना दोनो की हैंड राइटिग देर तक देखते रहे। मेटामाफोर्सिस और दी ट्रायल जैसी किताबो की पांडुलिपि देखी...कितने करेक्शन किए थे काफ्का ने तब। पन्नो पर काली स्याही से कई कई लाइनें कटी हुईं। रोमांच के क्षण थे। वैसा ही रोमांच हुआ जब मैंने महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्व विधालय के संग्रहालय में निराला के हाथो लिखी जूही की कली कविता देखी...स्नेह स्वप्न मग्न होकर...।
हालांकि अंदर जाकर अंग्रेजी में आपके लिए सब जानकारियां उपलब्ध हैं। पर अगर कहीं आपको जर्मन पढनी आती है तो समझिए कि आपकी पौ बारह हो गई। दो से ढाई घंटे का समय चाहिए अंदर सारी चीजें देखने के लिए। अंदर जाने का टिकट मिलता है, 180 चेक क्राउन्स का। यहां रिसेप्शन काउंटर पर ही एक मैप लगा है जिस पर काफ्का से जुड़ी हर जगह का पता हाईलाइट किया हुआ है।
म्युजियम में काफ्का से जुड़ी हर छोटी बड़ी चीज इस तरह से सहेज कर रखी गई है कि आपको लगने लगता है कि आप उनकी ही किसी किताब में विचरण के लिए निकल पड़े हैं। अपने जीवन काल में प्राग से अलग थलग रहने वाले लेखक की यादों को इस शहर ने जिस तरह अपने सीने से लगा रखा है वो काफ्का की ही पंक्तियों की याद दिला गई..
ए बिलिफ इज लाइक ए ग्यूलोटाइन जस्ट एज हैवी जस्ट एज लाइट (आस्था ग्यूलोटाइन की तरह है  जितनी भारी उतनी ही हल्की)
मलबे में बदलते हुए लेखकों के मकानों, मिट्टी में मिलते उनके निशां को देखते हुए क्या हम अपने देश, अपने शहर से लेखक-प्रेम की ऐसी उम्मीद कर सकते हैं ?

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Friday, October 16, 2015

यात्रा कोलाज - केरल

यात्रा कोलाज - केरल 

आश्चर्य का देवलोक

न जल्दी करो न परेशान हो। क्योंकि आप यहां एक छोटी-सी यात्रा पर हैं। इसीलिए निश्चिंत होकर रुकिए और फूलों की खूशबू का आनंद उठाइए...
                               (वाल्टर हेगन)

अथिरापल्ली झरना 
यही है ईश्वर, यही है ईश्वर...विराट है ईश्वर...और क्या है ईश्वर...यही तो है...विराट...

सामने विराट झरने को देखते हुए अल्का धनपत दोनों बांहे फैलाएं बुदबुदा रही थीं। शोर से भरा हुआ माहौल भी उनकी इस बुदबुदाहट को छिपा नहीं पाया। उनके चेहरे पर पानी की फुहिंयां पड़ रही थीं. वे गीलीं हो कर लगातार भव्यता के बयान में डूबी थीं।
यह नजारा वहां आम है....एक बार जो आता है, वह झरने के बाहुपाश में बंध जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया रीलीज फिल्म बाहूबली की भव्यता ने सिनेप्रेमियों को अपने मोहपाश में बांध लिया था। अल्का मारीशस से आईं थी, सेमिनार में भाग लेने। बहुत ही सुंदर द्वीप से आई हुईं विदुषी पर्यटक का चकित होकर इस तरह झरने को ईश्वरी रुप में स्वीकार लेना अनूठा अनुभव था हम सबके लिए।


केरल के त्रिशुर जिले का एक प्रसिद्ध ब्लाक कोंडुगलूर से पचास किलोमीटर दूर स्थित अथिरापल्ली के घने जंगलो में यह विराट झरना कई कारणों से प्रसिद्ध है। याद करिए...गुरु फिल्म में एक गाना---
गीताश्री
गीली चट्टान पर , बारिश में भींगते हुए ऐश्वर्या राय गा रही हैं....बरसो रे मेघा मेघा...बरसो रे..., यहीं है वो जगह जहां हजार मीटर ऊपर से झरना नीचे गिरता है और पत्थरों से टकरा कर पानी चारों तरफ धुंध की तरह छा जाता है। आप झरने के सामने मुंह करके खड़े हो तो पानी की छींटे भिंगो जाएंगे।  
बाहूबली फिल्म की याद तो ताजा होगी सबके जेहन में। बाहूबली इसी झरने की नीचे खड़ा होकर ऊपर की पहाड़ियों पर चढने का स्वप्न देखा करता था और झरने को पार करने के मंसूबे पाला करता था। जिसे एक दिन वह पार कर ही जाता है। इस विराट झरने को को कोई दैवीय शक्ति ही पार कर सकती है। बाहुबली की शूटिंग यही हुई थी।
झरने को पास से महसूसने के लिए, उसे चखने के लिए बहुत उतराई है और फिर उतनी ही चढाई भी है। दूर से भी देख सकते हैं लेकिन झरने के विराट स्वरुप को देखने और महसूस करने के लिए चढाई उतराई का कष्ट झेलना ही पड़ेगा। एक बार झरने का सामना होगा तो दुनिया ओझल हो जाएगी। सारी थकानें छूमंतर। सामने विराट स्वरुप और आप। दो विशिष्टों की मुलाकात और समयहीन होता समय। कभी अपने छोटे और निरीह होने का बोध तो कभी ईश्वरीय छटा देखने का गर्व। दोनों बांहे फैलाएं देर तक झरने को छू कर आती गीली हवा को अपने फेफड़ो में भर ताजादम हो सकते हैं। सारे विषाद धुल जाते हैं। झरने को एक निश्चत दूरी से देखते हैं। पास से देखने के कई खतरे। इतना खींचाव महसूस होता है कि पर्यटक रोक नहीं सकते खुद को। ठीक वैसे ही जैसे हल्के अंधेरे में समदंर खींचता है अपनी ओर।
केरल के पास प्राकृतिक सौंदर्य का अकूत खजाना है। अथिरापल्ली इलाके में ही दो और भव्य झरने हैं। पर्यटको का तांता लगा रहता है। कोंडुगुलूर ज्यादा लोकप्रिय पर्यटन स्थल नहीं है। इसीलिए अथिरापल्ली में स्थानीय पयर्टक ज्यादा दिखाई देते हैं। केरल आने वाले  पर्यटक सबसे ज्यादा दो जगहों पर जाना पसंद करते हैं। केरल का हिल स्टेशन मुन्नार और बैकवाटर के लिए फेसम एलेप्पी और कुमारकोम।  
जबकि केरल के चप्पे चप्पे पर प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, ऐतिहासिक और पौराणिक खजाना भी भरा पड़ा है। किसी शहर को रेशा रेशा खोलना (एक्सप्लोर) करना हो तो पोपुलर जगहों की नहीं, उसके सुदूर इलाको में जाना चाहिए। जहां जाकर आपके ज्ञान में बढोतरी ही होती है।
भरत मंदिर 
अगर कोंडुगुलर के अंदरुनी इलाके में हम न घूम रहे होते तो कैसे पता चलता कि देश का इकलौता भरत मंदिर यहां है। देश के किसी भाग में राम के भाईयों के मंदिर नहीं मिलेंगे। मगर कोंडुगुलूर के आसपास के इलाको में राम के अलावा सभी भाईयों के मंदिर मिलेंगे जहां उनको देवताओं की तरह पूजा जाता है।  बलुई पत्थरों से बना यह प्राचीनकालीन मंदिर हैं। इनका स्थापत्य ही उसकी प्राचीनता की ओर इंगित करता है। पांच किलोमीटर की दूरी पर भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न के नाम पर मंदिर हैं। ठीक वैसे ही जैसे देश भर में ब्रम्हा का एक ही मंदिर पुष्कर में है।
राम के तीसरे भाई भरत के नाम पर कोडलमनिक्यम मंदिर भी चेरा किंग सतनु रवि वर्मन के शासन काल में 854 ए डी में बना था। कोंडुगुलुर प्रखंड के इरींजालाकुड़ा गांव में स्थित इस मंदिर में भरत की छह फुटा मूर्ति है जिसका चेहरा पूरब की तरफ है।
अंदरुनी हिस्से में न घूमते तो यह भी पता न चलता कि मेथाला गांव में भारत की पहली मस्जिद की स्थापना हुई थी। जहां आज भी नमाज पढी जाती है। इस ऐतिहासिक धरोहर को प्रशासन ने आज तक सहेज संभाल कर रखा है और इसका विस्तार भी किया है। मस्जिद के साथ ही इसका संग्रहालय भी है जिसमें सदियों पुरानी धरोहरें दिखेंगीं। ऐतिहासिक दस्तावेजो के अनुसार इस मस्जिद की स्थापना 629 AD में हुई थी।

प्राचीन काल में भारत और अरब देशों के बीच व्यापारिक संबंध थे। अरब देशों के व्यापारी सुमद्गी रास्तों से भारत आते थे। वे जहां भी जाते, वहां अपने धर्म और संस्कृति को साथ ले कर जाते। बताते हैं कि अरब व्यापारियों का एक दल मालाबार क्षेत्र में आया तो उन्हें अपने धार्मिक स्थल की आवश्यकता महसूस हुई। इसी दौरान इस क्षेत्र के राजा चेरा , जिन्हें हजरत मौहम्मद का समकालीन माना जाता है, वे इनके संपर्क में आएं और इतने प्रभावित हुए कि इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। बाद में वे ताजुद्दीन नाम से मशहूर हुए।
राजा ने ही अरब के रहने वाले मलिक-बिन-दीनार को खत लिख कर यहां मस्जिद बनाने का आग्रह किया। 7वीं शताब्दी में अरब से व्यापारियों का एक दल मलिक बिन दीनार और मलिक बिन हबीब के नेतृत्व में केरल आया और इस मस्जिद की स्थापना की। उन्होंने राजा चेरा के नाम पर ही मस्जिद का नाम चेरामन मस्जिद रख दिया। 11वीं शताब्दी में इस मस्जिद का पुनरुद्धार हुआ और उसके बाद कई बार इसका परिसर बढाया गया। सांप्रदायिक सदभाव की प्रतीक मस्जिद आज भी चमकती है। इसके रखरखाव पर खासा जोर रहता है। क्योंकि यह मस्जिद गैर मुस्लिमों के बीच भी श्रद्धा का केंद्र बनी हुई है। हिंदू परिवार के लोग अपने बच्चे का विधारंभ उत्सव इसी मस्जिद में करते हैं।

भरत मंदिर परिसर 
केरल के छोटे छोटे विकसित गांवों में प्रकृति और इतिहास के कितने ही गौरवशाली पन्ने फड़फड़ाते मिलेंगे। कोंडुगुलूर का पचास साल पहले बना एम ई एस अस्माबी कालेज भी उतना ही गौरवशाली है। पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में अकेला राज्य है केरल जहां हिंदी के प्रति बैर का भाव नहीं, जहां हिंदी सबको समझ में आती है और थोड़ा बहुत सब बोल लेते हैं। खासकर टूरिज्म से, ड्राइविंग से और रेस्तरां से, अध्यापन से, किसी भी व्यवसाय से जुड़े लोग हिंदी अच्छी बोल लेते हैं। केरल के तन पर जितना पानी है उतना ही पानी केरल के लोगों और उनके मिलनसार स्वभाव में है। नारियल पानी की मिठास उनकी हंसी में मिलेगी और नेह उनके आतिथ्य में। केरल का खानपान भी लजीज है। कई प्रकार के व्यंजन है जिसका स्वाद सिर्फ वहीं जाकर लिया जा सकता है। कहते हैं न कि खाने का मौलिक स्वाद में उस जगह की हवा और पानी का भी योगदान होता है। सुखद ये कि जिस कालेज में हिंदी सेकेंड लैंगेवेज की तरह पढाई जाती है वहां हिंदी में एक अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आश्वस्तिदायक लगा। विषय भी ऐसा कि एकबारगी आप हैरान हो जाएं... हिंदी साहित्य में सेना-सिविल संबंध। अमेरिका ( देवी नागरानी) मारिशस (अल्का धनपत) के अलावा देशभर से प्रतिभागी, वक्ता यहां जुटे और दो दिन तक हिंदी ही हिंदी छाई रही। चलते समय इसीलिए आयोजन मंडल से जुड़े प्रो. रंजीत माधवन ने कहा—आप लोग चले जाएंगे पर हमलोग कई दिन तक हिंदी में ही हिंदी की बातें करते रहेंगे।
आत्मीयता की ऐसी मिठास देवों की धरती पर ही संभव है।  


गीताश्री @ भरत मंदिर