Tuesday, September 3, 2019

रचना प्रक्रिया



 ताकि मैं जिंदा रह सकूं...
                                                                        -गीताश्री

किसी आश्चर्यलोक में जाना और अपने भीतर लौट आना- कहानी की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही लगती है मुझे। किन गुफाओं-कंदराओं में कोई जीन छिपा बैठा है, बाहर आना चाहता है पर भय बेडिय़ों की तरह पैरों में पड़ा है...मैं उसे दुलराती हूं, पुचकारती हूं, फिर वह रूप बदलता चला जाता है बाहर रोशनी में आते-आते।
मेरी आंतरिक दुनिया में अंधड़ है। किरदारों के मेले हैं। वे सब जो छूट गए थे, वे सब जो साथ चलते-चलते गुम हो गए थे, वे सब अब दरवाजे खटखटा रहे हैं। मन की सांकल खनखना रही हैं। कुछ अदृश्य हाथ उन्हें उतार रहे हैं। एक मोर्चा फतह करने के बाद जैसे ही चित्त शांत हुआ, दीवार पर सिर टिका कर आराम की मुद्रा में आई कि भीतर से एक हिलोर आई। उसने मुझे हिला दिया। अंधड़ एक आंतरिक शोर में बदल गया था।
रचनात्मकता एक अंधड़ है मेरे लिए। वह मुझे टांग गई है धार पर। रचो या मरो। जो रचेगा, वहीं बचेगा। बाकी सब मरेंगे। हम ना मरिहें, मरिहें संसारा... मैं ऐसे कैसे मरूंगी। मैं घूरेकी आग को कैसे बुझने दूं। वो फिर से चटक गई है भीतर ही भीतर। सजीवन कक्का उदास हैं। उनकी लगाई आग को रचनात्मकता में बदलना होगा। अंधड़ ने खोल दिए जंग लगे सारे दरवाजे, खिड़कियां। भर-भराकर दीवारें गिरीं। मैंने साफ-साफ देखा उन किरदारों को, जो चाहते हैं- उन्हें रचा जाए। नहीं तो वे कह उठेंगे- चलो, मरा जाए। मैं बेचैन होती हूं। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं हुई। प्रेम करते हुए भी नहीं। कुछ रचते हुए भी नहीं। कुछ बोलते हुए भी नहीं। कुछ गुनगुनाते हुए भी नहीं। बेचैनी बढती जा रही है। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं हुई। प्रेम करते हुए भी नहीं। प्रेम में तो एक खुमारी थी, जो दर्द को लील लेती थी, पर इस बेचैनी में सिर्फ अकेलापन, लगातार अकेले होते जाने की नियति... पात्रों के साथ होने, उनका साथ पाने की छटपटाहट... यथार्थ दुनिया से बाहर... उनके दुख और उनके ही सुर्खो के बीच सांस लेती हूं मैं।

इन दिनों अजीब-सी बेचैनी सुरसुरा रही है रगों में। कुछ भी देखूं, कुछ भी सूनूं, महसूस करूं, मेरा एंटिना खुला रहता है। वह लगातार खबरों की तरह कहानियों का सिगनल पकड़ रहा है। कुछ लोग कहानियों वाले मिलते हैं अपनी कहानियां दे जाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो अव्यक्तसे हैं। मैं इस अव्यक्तको व्यक्तकरने का जरिया भर बन गई हूं। उनकी कहानियां, मेरी स्मृतियां और हम दोनों का वर्तमान, इनका घालमेल मेरी कहानियों में है।
एक  और जहान है उसी जहान की तलाश में मेरी आग चटक रही है। देर हो चुकी है। जहां ढेर सारे मठ-महंत पहले से पालथी मारे बैठे हैं। वहां मैं अब, बहुत देर से प्रवेश कर रही हूं। इस रचनात्मक यात्रा में क्या कभी देर हो सकती है जब उठ चलो तब ही यात्रा शुरू हो गई। मेरी विवशता है कि मुझे रचना है। ये रचना’ (प्रार्थना से बाहर की नायिका) ही है जिसने पहली बार कुंडी खोल दी थीं। रचना जैसी अनगिन स्त्रियां हैं, कुलबुलाती हुई, उन्हें अपनी कहानी खुद कहनी है। मैं माध्यम भर हूं। गांव, कस्बा और छोटे-छोटे शहर भी मेरे जेहन में अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। कुछ का कर्ज है मुझ पर। उन पर लिखना अपने कर्ज से मुक्त हो जाना है। कुछ पर लिखना, अपने फर्ज से मुक्त हो जाना है। शायद मुझे मुक्ति की तलाश है मुझे। उस मुक्ति के लिए चाहिए एक कहानी। एक नायक...और उस नायक से जुड़ी ढेर सारी यादें।
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बचपन की यादें और उनकी कुछ कतरनें इन दिनों कुछ ज्यादा ही जकड़ती हैं। यह जकडऩ सकारात्मक है। मुझे मेरी खोई हुई जमीन पर फिर से वापसी की कवायद है। जहां से मेरे बचपन ने सिर उठाया था, वह जमीन मैं हड़बड़ी के साहित्य यानी पत्रकारिता के धुंधलके में छोड़ आई थी। चकमक-चकमक दुनिया की रोशनी कपड़े की तरह लिपट गई थी पूरे अस्तित्व से।
हजार मील पीछे छूट गई वह ठंडी शाम, जहां घूरा (अलाव) तापते हुए, ओरहा (रहरे चने की झाड़) झोकाड़ते (भूनते) हुए रामसजीवन कक्का राजा-रानी और राजकुमारियों के किस्से नाटकीय तरीके से सुनाते थे। उनमें नाद और बिम्ब का समावेश होता था। कुछ उनके मौलिक होते थे तो कुछ किस्से कहानियों की किताबों से उड़ाए हुए। उसमें भी सजीवन कक्का की मौलिकता झलकती थी।
कस्बों, गांवों में बचपन बीता। थाने में तैनात किसी न किसी चौकीदार की शाम को घर पर ड्ïयूटी लगती थी। वे इधर-उधर से सूखी लकडिय़ां जुटाकर आग जलाते थे। जिसके इर्द-गिर्द सारे बच्चे, बूढ़े आग तापते थे। मैं सजीवन कक्का के पास बैठती थी। उनके पास किस्सों की फैक्ट्री थी जिसे वे शाम को हम बच्चों के सामने खोलते थे और फिर कई तरह के किरदार सामने आ कर खड़े हो जाते थे।
मेरी आंखें कहानियों के किरदारों के साथ चमकतीं और बुझतीं तो सजीवन कक्का ठहाके लगाते। इतना रस था उन कहानियो में कि मैं एक ही कहानी बार-बार सुनाने को कहती। उनकी कई कहानियां याद हो गईं। तब हालत ये हो गई थी कि प्रकृति का हर रंग बदल गया था हमारे लिए और हरेक चीज सीधे किस्सों से जुड़ जाती थी। राजा-रानी के प्रति प्रेम और भूतो का खौफ वहीं से पैदा हुआ। चाहे तोता मैना के किस्से हों, राक्षस की जान तोते वाली कहानी हो या सात राजकुमार और एक बहन राजकुमारी की कहानी हो। अंधेरे तब और गहरा जाते थे जब हम अकेले होते। दरवाजे चरमराते तो लगता कहानियों का कोई पात्र निकल कर चला आ रहा है। वे रोमांच के दिन थे। मन में कहानियों के घर बनाने के दिन थे।
एक बार याद नहीं कैसे एक लंबी नोट बुक मेरे हाथ लगी। तब मैं सातवीं कक्षा में थी। रातभर बैठकर मैंने सजीवन कक्का से सुनी हुई कहानियां नोटबुक में लिख डाली। अगली शाम आग के पास बैठे सजीवन कक्का समेत कई श्रोताओं को मैंने नोटबुक में लिखी कहानी पढकऱ सुना दी। कक्का दंग रह गए। वे ऐसे सुन रहे थे- जैसे पहली बार कहानी सुन रहे हों। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। उसके बाद जब भी वे कोई कहानी सुनाते, मैं नोट कर लेती। सिलसिला चलता रहा... फिर भीतर कुछ हलचल सी हुई। कुछ चमत्कार-सा हुआ। लिखना मेरी नजर में चमत्कार ही है। आश्चर्य लोक से भरी दुनिया, जिसके भीतर जाना और फिर बाहर आना, भीगी-भीगी-सी।
मैंने कुछ कहानियां गढ़ी। सजीवन कक्का मेरे श्रोता होते और मैं नोटबुक में अपनी लिखी कहानियां सुनाती। मैं नोट करती कि आग खूब चटकती थी तो कक्का विहंसते थे। शायद उन्हें अंदाजा था कि उनकी मेहनत किसी के भीतर कोई आग जला रही है। फिर छोटी-मोटी कविताएं भी बनीं और सुनाई गईं। यह सिलसिला तब थमा जब तबादला हो गया। कक्का वही छूट गए। मेरा काफिला बहुत आगे-आगे चलता गया- नोटबुक तबादले में कहीं गुम हो गई। होस्टल का रहन-सहन और कड़े अनुशासन ने बेफिक्री के वे दिन और घूरे से गरमाई हुई ठंडी शामें छीन लीं।
कहानियों के किरदार कहीं गुम हो गए। मैं काल्पनिक दुनिया से यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर खड़ी हो गई थी। इस जमीन ने फिर ढेर सारी कविताएं उगाईं। मैं अपनी छोटी-सी दुनिया में कविता लिखने वाली लडक़ीके नाम से जानी जाती थी। कहानियां कहीं पीछे छूट गईं। एक बार उसका सिरा मिला। कटरामुजफ्फरपुर जिले का एक कस्बा है। वहां एक कामवाली आती थी। उसका नाम था सरगट। गरमी की दोपहरी में वह अपने जीवन की दिलचस्प घटनाएं सुनाया करती थी। बीजू आम को ठंडे पानी की बाल्टी में डूबोती और अपने जीवन को पिचके हुए आम के छिलके से जोड़ती। मुझे उसकी बातें दिलचस्प लगतीं। उसका नाम जरा अटपटा सा था। कभी सुना नहीं। आज तक नहीं सुना।
सरगट’- अजीब सी ध्वनि आती। 40 वर्षीय उसी मरियल सी सरगटने बताया कि उसके इलाके में एक चिडिय़ां पाई जाती है। बेहद मरियल-सी, बेनूर चिडिय़ां। सरगट जब पैदा हुई तो बेहद मरियल और बदशक्ल थी। घरवालों ने प्यारसे उसका नाम उसी चिडिय़ा के नाम पर रख दिया।
मैं बहुत बाद तक उस इलाके में सरगटचिडिय़ों को तलाशती रही, नहीं दिखी। पता नहीं ऐसी कोई चिडिय़ा होती भी है या नहीं। सरगटकी कहानी मैंने होस्टल के दिनों में इसी नाम से लिखी। बदशक्ल होने के कारण सरगट का जीवन कैसे नरक में बदल गया था। इसकी दहला देने वाली दास्तान मुझे भीतर तक हिला गई थी। तभी मुझे लगा कि इस दुनिया में एक स्त्री का सुंदर होना कितना जरूरी होता है। खासकर कस्बाई इलाकों में। अब भले रूपरंग के मायने बदल गए हों। शहरों में स्मार्टनेस और सुंदरता के खांचे अलग-अलग बना दिए गए हैं। गांव-कस्बों में गोरी चमड़ी सुंदरता का पैमाना मानी जाती है पिछड़े इलाकों में आज भी। सरगट की कहानी पता नहीं कहां गई। तब कहां सोचा था कि इस जमीन पर दुबारा जीवन तलाशने आऊंगी। कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी लिए। फंतासी वो जिसे मैं अपने हिसाब से लिख सकूं। यथार्थ वह था- जो मेरे सामने खड़ा हो जाता है। जो मुझसे मुठभेड़ करता है। जो आईना दिखाता है। फंतासी के जादू को छिन्न-भिन्न करता हुआ यथार्थ। यकीनन, मुझे यथार्थ ने पकड़ लिया। जीवन के इस खरे सच से आंखे मिलाते हुए पया कि यही वह राह थी, जिसे मैं मुद्दतों से तलाश रही थी।
जौन लेनन कहते हैं-यथार्थ अदभुत होता है। वह हमारी कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है।
कविता की गीली-गीली जमीन अचानक कहानी की ठोस जमीन में बदल गई है। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि कहानी कैसे लिखने लगी। क्या स्मृतियों ने मुझ पर कब्जा जमा लिया है या धड़धड़ाते हुए आए जा रही हैं। मैं उन्हें समझ रही हूं,  जिन्हें उस वक्त नहीं समझ पाई थी, जब वे मेरे आस-पास थे। पात्रों की इस निरुपायता और घटनाओं की पारदर्शिता से ही शायद कहानी लिखने का आगाज हुआ।
शायद दूरीसमझ बढ़ा देती है। या किसी को तटस्थता से समझा जा सकता है। पूर्वाग्रह हमेशा हमारे पास रहता है। तटस्थता हमसे हमेशा दूर रहती है। पात्र और घटनाओं से ऐसे ही संबंध बने। मेरी कहानियों के कई पात्र बहुत दूर है। कुछ का पता नहीं। कुछ यहीं कहीं आस-पास। कुछ बदल गए है। कुछ अब भी वैसे हैं। रोज घटनाएं घट रही हैं। एक कहानी रोज बन रही है। जिंदगी का रूप एक पल में बदल जाता है। मेरे देखते-देखते भारत इंडिया बन गया। इस उत्तर आधुनिक समय में जीवन को दांव पर लगते देखती हैं। हम क्षणजीवी हो रहे हैं। लम्हों की बात करते हैं। मौज, मजा मस्ती ही मूलमंत्र है। इस नवधनाढय़ वर्ग की त्रासदी कोई क्या जाने। थोड़ा कुछ पाने के लालच में कितना कुछ छूट जाता है।

मैं इसी छूटतेजाने को रचनाओं में पकडऩे की कोशिश करती हूं। मेरे लिए यही अंतिम सत्य है। घटना-परिघटना कहानी नहीं बन सकती, मगर वह आपकी हथेली पर कहानी का एक सिरा छोड़ जाती है; अगर आप पकड़ सके। उसका मतलब समझ सके तो पार हो गए। मैं उन संकेतों को पकड़ती हूं। जब मेरी कहानियों की स्त्रियां वाचाल दिखाती है, तब उनकी इस वाचालता की तह में जाना जरूरी है। (चिडिय़ाएं जब ज्यादा चहचहाती है तो यह न समझिए कि वे उत्सव मना रही हैं। वे यातना में होती हैं। शायद उन्होंने किसी भयानक जानवर को देख लिया है। उनकी चहचहाहट में छिपी मौन यातना के अवशेषोंको रेखांकित करने की कोशिशें भी कहानियां बन जाती है।)
मेरी नजर में जो कुछ भी घट रहा है, वो व्यर्थ नहीं है। मुझे उसके पार चीजें दिखाई देती हैं। पता नहीं लोग मेरी इस दृष्टिको क्या कहेंगे, लेकिन मुझे चीजों को भेदने की शक्ति शायद अपने पेशे पत्रकारिता से मिली है। पत्रकारिता के अनुभवों का खासा योगदान है रचने की इस प्रक्रिया में।
पेशेवर जिंदगी में जो भी अनुभव मिले सब इसी की देन है। किसी भी सामान्य मनुष्य से ज्यादा देखा, समझा और गौर किया। मेरे लिए प्रकृति और जीवन में घट रही हर घटना का महत्व है। जो दिख रही है। वो खबर नहीं है जो छिपाई जा रही है, वो खबर है। हम अपने पेशे में जीवन भर उसी छिपीहुई खबर को तलाशते हैं। बाजार की भाषा में आप स्कूपभी कह सकते है। मुझे लगता है, मैं साहित्य में भी रहस्यात्मकता की खोज में हूं। जो छिपीहुई चीज। यही मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू है। यहीं से विचार उठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मार्खेज की रचनाओं का प्रारंभ हमेशा एक दृश्य से होता है। वे कोई दृश्य देखते हैं और यही उनकी रचना का प्रस्थान बिंदू बन जाता है लेकिन क्या जहां से कोई प्रस्थान करता है वो जगह किसी के लिए मंजिल भी तो हो सकती है। मंजिल अक्सर रास्ता मांगते हैं। रास्ते यादों से भी निकलते हैं। रास्ते अनुभवों से निकलते हैं। रास्ते आदर्श से भी निकलते हैं।
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मेरे आसपास कई लोग ऐसे हैं जिनकी जिंदगी मुझे प्रभावित करती है। अच्छी या बुरी। उन जिंदगियों में मुझे रास्ते की तलाश है लेकिन मूल्यों के मापदंड हमेशा उन रास्तों को गजों,मीलों और किलोमीटर में मापकर सबकुछ गड्ड-मड्ड कर देते हैं। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मूल्यों के बीच पीसती हुई स्त्रियां खुद कहानी बनती जा रही हैं। मुक्ति के लिए छटपटाती हुई स्त्रियों का विलाप शायद मुझे ज्यादा साफ सुनाई देता है। वर्जनाओं के प्रति उनकी नफरत का अहसास मुझे ज्यादा होता है। रिश्तों के जाल में उलझीं, सुरक्षा और सुविधाओं के नाम पर उम्रकैद की सजायाप्त औरतें मेरी चिंता का विषय हैं। हाशिए पर रखी गई कौम की खोखली उपलब्धियां झनझना रही हैं। दुनिया छोटी हुई, जो शोषण के तंत्र उजागर हुए। इससे जूझती हुई स्त्रियों ने विचारों की शक्ल में मुझे घेर लिया है। शायद मैं दूसरी औरतो के बहाने अपने दिल के गिरह खोल रही हूं। इसे कुंठा का नाम नहीं दिया जा सकता। कवि लीलाधर मंडलोई की पंक्तियां उधार लेते हुए कहती हूं- जिंदगी में दाखिल होने की मेरी कोशिश है मेरी कहानियां।
इसीलिए अपने समय में झांकने और कई बार उसके आगे झांकने का दुस्साहसिक सपना देखती हूं। पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता की परतें उधेडऩा चाहती हूं। घोर नैराश्य की स्थिति में भी एक जिद की तरह..।
कई बार मुझे लगता है कि कहानी हमेशा एकपक्षीय होती है और उपन्यास बहुपक्षीय। एकपक्षीय को बरतना ज्यादा आसान होता है। मेरी कहानी किसी एक पक्ष के गिरह ज्यादा खोलती है। कई बार ये अन्याय सा लगता है। इसके लिए मुझे बहुपक्षीय दुनिया में जाना होगा। नहीं तो एकपक्षीय दुखों और तकलीफों का एकालाप बन कर रह जाएगी मेरी रचनाएं। एकपक्षीय तकलीफें भी इतनी हैं कि उनका खुलासा सामाजिक ढांचे को उजागर कर सकता है।
मेरी कहानियों में एक तरह की हड़बड़ी दिखाई देती है। मेरे दोस्त मुझे गालियां देते हैं, कोसते हैं कि तुम अपनी कहानियों में इतनी हड़बड़ी में क्यों दिखाई देती है। अंत तक पहुंचने की ऐसी क्या जल्दी है कि समयको लांघ जाती हो।
मेरी नायिकाओं में भी वहीं हड़बड़ी, वही पलायन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एक दोस्त ने कहा कि तुम्हारी नायिकाएं क्या हमेशा भागती ही रहेंगी? कहीं डट कर उन्हें मुकाबला करने दो। वे सच कहते हैं। मेरी बौखलाहट, मेरा गुस्सा, आक्रोश बहुत ज्यादा है पर शायद बचपन में की गई संस्कारों की बुवाई भी जबर्दस्त है। इस द्वंद्व में कहानी की नायिकाएं  समयके अंधेरे से घबरा-घबरा कर भाग जाती हैं। लेकिन दोस्त या भागने कहां देते हैं। मेरी कहानियों के पहले पाठक समयके अंधेरे से जूझने का हौसला देते हैं। वे स्मृतियों के अंधे कुएं में ढकेल देते हैं। मैं छटपटाती हुई तह में जाने की कोशिश करती हूं। क्या इसीलिए मैं लगातार कहानी लिख रही हूं कि मैं समय से इस मुठभेड़ में एक दिन जीतकर दिखाऊंगी, एक दिन समय की पीठ पर धौल लगा ही दूंगी? इसीलिए मैं नायक पूजकदेश में कथित तौर पर अराजक नायिकाओं का गढ़ बना रही हूं जो धीरे-धीरे चीजें बदलने का इंतजार नहीं करती। वे तोड़ फोड़ मचाती हुई सामने आती हैं। यह अलग तरह की दृष्टि है। स्त्री-दृष्टिउम्मीदों और आकांक्षाओं को उनके निर्वासन से वापस लाने पर आमादा स्त्री-दृष्टिजीवन मूल्यों से टकराती, मुठभेड़ करती स्त्री-दृष्टि’, नैतिकता के नाम पर पाखंडियों के मंसूबे को तार-तार करती हुई।



मैं और मेरे पात्र



कंदराओं में सोई हुई आत्माओं के लिए नहीं है मेरी कहानियां
--गीताश्री

मेरी कहानियों के किरदार वैसे तो वास्तविक जिंदगी से आते हैं...वे लोग जिन्हें रोज अपने आसपास देखते हैं। जिनके साथ साथ चलते है, सांसे लेते हैं, हंसते रोते हैं..कभी कभी दूर से देखते हैं, तटस्थता से। कुछ वे लोग जो आपकी जिंदगी को झकझोर देते हैं। सन्न कर देते हैं। किसी किसी की जिंदगी इतनी औपन्यासिक होती है कि भ्रम होने लगता है, किताब जी उठी है या जिंदगी किताब बन गई थी। मैं यथार्थ को ज्यों का त्यों उठाती जरुर हूं लेकिन उन्हें वैसा बिल्कुल नहीं परोसती। आप वैसे परोस भी नहीं सकते। जौन लेनन के शब्दो में कहें तो यथार्थ अदभुत होता है। वह हमारी कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है। उस यथार्थ की कल्पनाशीलता मेरे भीतरी दुनिया की संपन्नता से निकलती है। एलिजाबेथ बेरेट ब्राउनिंग प्रेम के बारे में जो कहती हैं वहीं मैं अपनी कल्पना के बारे में कहती हूं कि..जितनी ऊंचाई, गहराई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं कल्पना करती हूं, मेरी कल्पनाशीलता जाती है...प्रेम की उस ऊंचाई तक। बहुत महान बात नहीं कह रही हूं।    

ये मेरा सच है, मेरी रचनाशीलता का सच है, मेरे पात्रों का सच है..जिन्हें मैं वैसे गढती हूं जैसी गढने की मैं ईश्वर से अपेक्षा कई बार रखती और कई बार नहीं रखती हूं।
मेरे सामने कुछ भी घटित होता है, मुझे उसमें एक विचार दिखाई देते हैं। विचार का सूत्र पकड़ कर मैं पात्रों के साथ साथ आगे बढती हूं। मैं वीडियो गेम की उस योद्धा की तरह होती हूं जिसे रास्ते में लड़ते भिड़ते अपनी कार को स्पीड में चलाना होता है। चाहे रास्ते में जितनी बाधाएं आएं। यू कहूं तो मार्खेज की तरह कोई एक छोटा-सा दृश्य भी मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू बन सकता है। मैं मार्खेज की जबरदस्त फैन हूं। उनकी रचनाओं के साथ साथ उनकी मान्यताओं को लेकर, जो शायद मुझे बेहद सूट करती हैं।
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कल्पना यथार्थ पैदा करने का एक साधन मात्र होती है। और अन्त्तत सृजन का उत्स हमेशा यथार्थ से ही होता है। मार्खेज अपने बारे में दावा करते थे कि मेरे उपन्यासों में एक भी पंक्ति आपको ऐसी नही मिलगी जो वास्तविकता पर आधारित न हो। मैं तो अभी रचने के दौर में हूं, अभी तक के आधार पर यह दावा मेरा भी है। शायद अंतिम दौर में भी यही होगा।

मेरे कुछ पात्र मेरी स्मृतियो की सुरंग में छिपे हैं। वहां की जब जब मैने अदृश्य यात्राएं की, वे वहां से बाहर आए। कल्पना ने उनमें रंग भरे और पंख दिए। मेरी स्मृतियां मेरे लिए ऊर्वर प्रदेश का काम करती हैं। वह मेरी भोगी और भागी हुई दुनिया का हिस्सा है।  
सिर्फ कल्पनालोक का सहारा लेकर आप कोई महान किरदार नहीं रच सकते। आपको बार बार यथार्थ की यात्रा करनी होगी। उसके पास जाना होगा। जैसे मैं जाती हूं..मैं यात्राओं में होती हूं, मैं बाजार में होती हूं, मैं पार्टी में होती हूं, मैं जहां भी हूं..कहीं कुछ घट रहा होता है, कहीं कोई कह रहा होता है..ये सारी चीजें दिमाग में फ्रिज हो जाती हैं। पात्र आते हैं, आकार लेते हैं, और दर्ज हो जाते हैं। और अगर एक बार रच दूं तो हेमिंग्वे की तरह मेरी रुचि उनमें खत्म हो जाती है।
मैं रच देने के बाद किसी पात्र से कोई लगाव नहीं रखती। उसे छोड़ देती हूं. उसे मुक्त कर देती हूं। आप मेरी कहानियों में एक बात गौर करेंगे कि महिला पात्र केंद्र में हैं और रहेंगी। मैं मौन को मुखर करने की हिमायती हूं। सो उनकी आवाज बन रही हूं। मेरी नायिकाएं कायर नहीं है, कमजोर नहीं है, लाचार हैं। उनके सामने वे सारे सवाल खड़े हैं जो जिंदगी में किसी भी महिला के सामने खड़े होते हैं। बाद में ये सारे सवाल विमर्श में बदल जाते हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री जहां खड़ी है वह जगह बेहद भयावह है, आज भी. विनर है तो भी लूजर है तो भी। जिस संकट के दौर से स्त्री अस्मिता आज गुजर रही है, उसे चिन्हित करने का काम कर रही हूं। मैं अपनी तपती ऊंगली रख रही हूं, कोई झुलस जाए तो मैं क्या करुं ? मैं असूर्यमपश्या महिलाओं को बाहर ला रही हूं। भले आपकी नजर में वे अश्लील लगें। मैं एसे निंदको की परवाह नहीं करती। मेरे प्रिय लेखक खलील जिब्रान की एक कहानी “ तूफान याद आती है जिसमें एक किरदार कहता है- कई मनुष्य ऐसे हैं जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किंतु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता है जैसे सड़ती हुई दलदल। कई एसे होते हैं जो अपने सिरो को पर्वत की चोटी से भी ऊपर उठाए चलते हैं किंतु उनकी आत्माएं कंदराओं के अंधकार में सोयी पड़ी रहती हैं...

मेरी सभी पात्र प्रार्थना के बाहर( हंस) की रचना हो या प्रार्थना, “उर्फ देवी जी( इंडिया न्यूज) की लाली यानी दिशा हो या खुद देवी जी, “इंद्रधुनष के पार(हंस) की आंचल हो या आशा,  “उदास पानी ( इंडिया टुडे) की सोनल हो या दो पन्नों की औरत(निकट) की आसावरी हो या चौपाल (नया ज्ञानोदय) की शिवांगी हो या मलाई (अणुक्षण) की सुरीली या मेकिंग औफ बबीता सोलंकी (कथादेश) की बबीता या सी यू (हंस) की सुषमा या कोन्हारा घाट(परिकथा) की बुढ़िया फुआ। सब बगावती, विद्रोही। मेरी सभी नायिकाएं ऐसे मनुष्यों की परवाह नही करती जिनकी आत्माएं कंदराओं में सोई पड़ी हों। जो छेड़ भर देने से हाहाकार कर उठते हैं।
जो कहानी में भी में स्त्री का नग्न होना सहन नहीं कर पाते।

मेरी सभी नायिकाएं मुझे पसंद है..खासकर आंचल जो ऐसी आत्माओं का इलाज अच्छे से करती है। जहां कहानी खत्म होती है वहां उसका काम खत्म नहीं होता। वह उसके मुक्ति अभियान का पहला चरण है। उसके बाद की चीजें पाठको के दिमाग में जब घटती है तो वे बिलबिला उठे और पत्थर दे मारा मेरे ऊपर। इससे मेरी नायिकाएं डरने वाली नहीं हैं। वे कोई  सोशलाइट (सामाजिकाएं) नहीं है कि अनचाहे आसूं की तरह इधर उधर लुढक जाएं। 
सारी नायिकाएं अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती हैं। कुछ शहरी हैं तो कुछ गांवो कस्बो से आई हैं। रचना छोटे शहर से आई है उसे शहरी मूल्य परेशान करते हैं। उसकी मुठभेड़ जब प्रार्थना से होती है तो उसके होश उड़ जाते हैं। मूल्य बोध से टकराती हुई नायिकाएं मुझे पसंद हैं। नैतिकता की धज्जी उड़ाती हुई स्त्रियां मुझे पसंद है। आंचलमुझे औरो की तुलना में ज्यादा पसंद है क्योकि उसका साहस अनूठा है। किसी भी स्त्री के लिए अचंभे की तरह। वह जिस तरह ड्रेसकोड के खिलाफ खड़ी होती है वह देखने लायक है। जब मेरी नायिका नैतिकता के पाखंडियों से टकरा रही होती हैं ठीक उसी वक्त देश में महिलाएं ड्रेसकोड के खिलाफ स्लटवाक करती हैं। एक स्त्री का साहस दुनिया भर की महिलाओं के एक खास आंदोलन से कैसे जुड़ता है, ये देखिए। गांव से शहर में आई एक लड़की का शहरी मोह भंग भी इस कहानी के पीछे है। अपना चुना हुआ आकाश भी उसके लिए एक धोखा साबित होता है।    
    -मर्दो की बनाई हुई दुनिया में एक आजाद औरत वैसे भी एक चुनौती से कम नहीं होती। मेरी हर महिला पात्र एक चुनौती की तरह है। जीत कर भी, हार कर भी.पाकर भी, खोकर भी। वह अपने हिस्से का सुख ले ही लेती है। अपनी शर्तो पर जिदंगी जी ही लेती है। ये जिंदगी कुछ पल की भी हो सकती है। इंद्रधनुष के पार की नायिका आंचल बहुत चैलेंजिंग हैं मेरे लिए। समाज के लिए भी। इस कहानी के हंस में छपने के बाद मैंने और संपादक राजेन्द्र यादव जी ने कितनी गालियां सुनी हैं, इसकी सबूत वहां छपी कई चिठ्ठियां हैं। पाठको की प्रतिक्रियाएं हैं। हालांकि जब प्रतिक्रियाएं आनी शुरु हुई तो राजेंद्र जी दुखी हुए। कहा- बड़ी तारीफ आ रही है, तेरी कहानी की। बात क्या है..ये अच्छी बात नहीं है। “
मैं भी तारीफ पर खुश हो रही थी। मुझे लगा कि हिंदी समाज बदल गया है। उसमें एक साहसी कहानी समझने स्वीकारने की समझ और हिम्मत दोनों आ गई है। राजेंद्र जी ने कहा –“ज्यादा खुश मत हो। ये अच्छी बात नहीं है। अगर आपकी रचना ने आपके समय को पाठको को झकजोरा नहीं, उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया तो तेरा लिखना बेकार। मुझे उम्मीद नहीं थी कि तारीफ में इतने पत्र आएंगे।“ 
मगर ये खुशियां जल्दी ही हवा हो गई। मेरे घर के पते पर, हंस के आफिस में, फेसबुक पर और ईमेल से मुझ पर जो गालियां बरसी कि पूछो मत। लोगों ने नाम छुपा छुपा कर गालियां दीं। मेरी समझ में आया कि कुछ तो अनजान पाठक और कुछ वे अपने जो मेरी तारीफ मुंह पर करते हैं और पीछे से मेरे लिए तरह तरह के विशेषणों का प्रयोग करते हैं। उनका भला हो। बीमार मानसिकता पर आप सिर्फ दया ही कर सकते हैं। सो उनकी गालियां सिर माथे। उनकी समझ ही इतनी है कि क्या करुं। मेरी उस वक्त की अनजान दोस्त, कहानीकार प्रज्ञा पांडे जिस तरह से मुझे मेरी कहानी के विस्तृत फलक के बारे में बताया,  वहां तक शायद मैंने सोचा नहीं था। उन्होंने मेरी कहानी को उस दौर में दुनिया भर में चल रहे ड्रेसकोड के खिलाफ आंदोलन से जोड़ दिया।

इसके अलावा कहानी की नायिका आंचल को लोगों ने अलग अलग तरीके से देखने की कोशिश की..सोचिए, जिस किरदार को पाठकों ने इतनी गालियां दीं, क्या उसे रचते हुए मुझे इसका अंदाजा नहीं रहा होगा ? अंदाजा था..और यही मेरी जिद है। मैं गुडी गुडी लिखने के लिए नहीं हूं। साहित्य प्रतिरोध रचता है, वह प्रतिपक्ष में खड़ा होता है।
 आपके समाज में जो हो रहा है उसे देखिए। एक स्त्री के आइने में ज्यादा साफ सफ्पाक दिखाई देगा। स्त्री के जरिए जब पोल खुलती है तो लोगों को मिर्ची लगती है। एक पाठक जो जिला अदालत में जज हैं वे अपने पत्रों में साफ साफ स्वीकारते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है और हम आज भी स्त्री को देह से अलग देख पाने को तैयार नहीं हैं। 
एक स्त्री का नग्न होना या नग्न कर देना मेरे लिए कठिन था। नायिका के न्यूड पार्टी में जाने से पहले मैंने बहुत सोचा कि वह भाग खड़ी हो...एक बार वह भागती भी है...उसके भीतर पलायन का खयाल आता है..उसकी कायरता थी, एसा सोचना...लेकिन लगा कि क्या स्त्रियां हमेशा भागती ही रहेंगी... मुकाबला नहीं करेंगी। नहीं..वह नहीं भागेगी...वह एक नंगे पुरुष की आंख में आंख डाल कर बात करेगी..शर्म स्त्री की आंखो में नहीं, पुरुष की आखो में हो...यही तो चुनौती है। 
मेरी कठिनाईयां और भी थीं..रचने के बाद, छपने की। हर मोड़ पर। हंस बोल्ड काहानियों को छापने का दावा करता रहा है..उनकी भी हिम्मत ना हो रही थी। लटकी रही कहानी। वहां भी कुछ संपादकीय साथियों को मेरी कहानी अश्लील लगी। मेरी कहानी का मर्म कोई नहीं पकड़ पा रहा था। मेरे लिए एक स्त्री को भरी महफिल में नग्न कर देना जितना मुश्किल था, इसका अंदाजा उन्हें नहीं था। उन्हें यकीन ही नहीं था कि कोई स्त्री ऐसा कर सकती है या समाज में न्यूज पार्टी का कोई अस्तित्व है। उन्हें यह गढा हुआ संसार लग रहा था। बाद में टाइम्स आफ इंडिया में इस तरह की पार्टी के बारे में डिटेल छपा था। मजेदार बात ये कि मध्यप्रदेश के मेरे एक पाठक ने छोटे शहर में न्यूड पार्टी की एक खबर की कटिंग के साथ पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि हमने तो अखबार में पढकर अब जाना कि समाज में ऐसा हो रहा है, आपने तो बहुत पहले ही इसका अनुसंधान कैसे कर डाला...। वह चकित होकर सवाल पूछ रहे थे। 
मेरे एक युवा आलोचक मित्र ने कहा—दरअसल आपने समय से बहुत पहले ये कहानी लिख दी। पत्थर तो बरसेंगे हीं। इसका मूल्यांकन होगा..कुछ साल बाद। मैं तो हिंदी पट्टी के लिए दुआ कर रही हूं कि वे अपनी समझ को और बोल्ड करें और अपने ही भीतर झांकें...नंगापन दिख जाएगा। 
और अब.....
भविष्य की रुपरेखा ठोस बनाई नहीं। पात्र तो खुद लेखक को चुनते हैं। वह आपको गढते हैं. पता नहीं कब क्या कौन पात्र मुझे अपने नियंत्रण में ले ले। अभी कुछ सोचूं और बाद में वह बदल जाए तो। पात्रों को लेकर समयानुकूल घोर आशंका बनी रहती है। एक बात जरुर है कि मैं अपने पात्रों में एकरसता से बचना चाहती हूं। उनमें वैविध्य देखना चाहती हूं। रेंज हो उनमें। वे जादुई भी हों और यथार्थवादी भी। मैं निराश पात्रों से या कहें बहुत ज्यादा निगेटिव पात्रों से बचना चाहती हूं। लेकिन क्या पता, कब कौन आ जाए और अपनी जगह ले ले आपकी रचनाओं में। सब अपनी जगह छेंक लेते हैं। मेरे लिए लिखना खुद को मुक्त करना है।
अब ये मुक्ति कैसी है, इस पर मैं अपनी रचना प्रक्रिया में बहुत बात कर चुकी हूं। इस मुक्ति की चाहत ने पात्रों की तलाश में हकासल-पियासल जैसी हालत कर दी है। पहले से ज्यादा चौकन्ना हूं। पात्र और मैं दोनों एक दूसरे की तलाश में हैं शायद। 

----गीताश्री
मो-9819246059