-गीताश्री
किसी आश्चर्यलोक में जाना और अपने भीतर
लौट आना- कहानी की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही लगती है मुझे। किन गुफाओं-कंदराओं में कोई
जीन छिपा बैठा है, बाहर आना चाहता है पर भय बेडिय़ों की तरह पैरों
में पड़ा है...मैं उसे दुलराती हूं, पुचकारती
हूं, फिर वह रूप बदलता चला जाता है बाहर रोशनी में आते-आते।
मेरी आंतरिक दुनिया में अंधड़ है।
किरदारों के मेले हैं। वे सब जो छूट गए थे, वे सब जो साथ चलते-चलते गुम हो गए थे, वे सब अब
दरवाजे खटखटा रहे हैं। मन की सांकल खनखना रही हैं। कुछ अदृश्य हाथ उन्हें उतार रहे
हैं। एक मोर्चा फतह करने के बाद जैसे ही चित्त शांत हुआ, दीवार पर सिर टिका कर आराम की मुद्रा में आई कि भीतर से एक हिलोर आई। उसने
मुझे हिला दिया। अंधड़ एक आंतरिक शोर में बदल गया था।
रचनात्मकता एक अंधड़ है मेरे लिए। वह
मुझे टांग गई है धार पर। रचो या मरो। जो रचेगा, वहीं बचेगा। बाकी सब मरेंगे। हम ना मरिहें, मरिहें संसारा... मैं ऐसे कैसे मरूंगी। मैं ‘घूरे’ की आग को कैसे बुझने दूं। वो फिर से चटक
गई है भीतर ही भीतर। सजीवन कक्का उदास हैं। उनकी लगाई आग को रचनात्मकता में बदलना
होगा। अंधड़ ने खोल दिए जंग लगे सारे दरवाजे, खिड़कियां। भर-भराकर दीवारें गिरीं। मैंने साफ-साफ देखा उन किरदारों को,
जो चाहते हैं- उन्हें रचा जाए। नहीं तो वे कह उठेंगे- चलो,
मरा जाए। मैं बेचैन होती हूं। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं
हुई। प्रेम करते हुए भी नहीं। कुछ रचते हुए भी नहीं। कुछ बोलते हुए भी नहीं। कुछ
गुनगुनाते हुए भी नहीं। बेचैनी बढती जा रही है। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं हुई।
प्रेम करते हुए भी नहीं। प्रेम में तो एक खुमारी थी, जो दर्द को लील लेती थी, पर इस बेचैनी में
सिर्फ अकेलापन, लगातार अकेले होते जाने की नियति...
पात्रों के साथ होने, उनका साथ पाने की छटपटाहट... यथार्थ
दुनिया से बाहर... उनके दुख और उनके ही सुर्खो के बीच सांस लेती हूं मैं।
इन दिनों अजीब-सी बेचैनी सुरसुरा रही है
रगों में। कुछ भी देखूं, कुछ भी सूनूं,
महसूस करूं, मेरा एंटिना खुला
रहता है। वह लगातार खबरों की तरह कहानियों का सिगनल पकड़ रहा है। कुछ लोग कहानियों
वाले मिलते हैं अपनी कहानियां दे जाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो ‘अव्यक्त’ से हैं। मैं इस ‘अव्यक्त’ को ‘व्यक्त’ करने का जरिया भर
बन गई हूं। उनकी कहानियां, मेरी स्मृतियां और
हम दोनों का वर्तमान, इनका घालमेल मेरी कहानियों में है।
एक
और जहान है उसी जहान की तलाश में मेरी आग चटक रही है। देर हो चुकी है। जहां
ढेर सारे मठ-महंत पहले से पालथी मारे बैठे हैं। वहां मैं अब, बहुत देर से प्रवेश कर रही हूं। इस रचनात्मक यात्रा में
क्या कभी देर हो सकती है जब उठ चलो तब ही यात्रा शुरू हो गई। मेरी विवशता है कि
मुझे रचना है। ये ‘रचना’ (प्रार्थना से बाहर की नायिका) ही है जिसने पहली बार कुंडी खोल दी थीं। रचना
जैसी अनगिन स्त्रियां हैं, कुलबुलाती हुई,
उन्हें अपनी कहानी खुद कहनी है। मैं माध्यम भर हूं। गांव,
कस्बा और छोटे-छोटे शहर भी मेरे जेहन में अपनी पुख्ता
मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। कुछ का कर्ज है मुझ पर। उन पर लिखना अपने कर्ज से मुक्त
हो जाना है। कुछ पर लिखना, अपने फर्ज से
मुक्त हो जाना है। शायद मुझे मुक्ति की तलाश है मुझे। उस मुक्ति के लिए चाहिए एक
कहानी। एक नायक...और उस नायक से जुड़ी ढेर सारी यादें।
*****
बचपन की यादें और उनकी कुछ कतरनें इन
दिनों कुछ ज्यादा ही जकड़ती हैं। यह जकडऩ सकारात्मक है। मुझे मेरी खोई हुई जमीन
पर फिर से वापसी की कवायद है। जहां से मेरे बचपन ने सिर उठाया था, वह जमीन मैं हड़बड़ी के साहित्य यानी पत्रकारिता के धुंधलके
में छोड़ आई थी। चकमक-चकमक दुनिया की रोशनी कपड़े की तरह लिपट गई थी पूरे अस्तित्व
से।
हजार मील पीछे छूट गई वह ठंडी शाम, जहां घूरा (अलाव) तापते हुए, ओरहा (रहरे चने की झाड़) झोकाड़ते (भूनते) हुए रामसजीवन कक्का राजा-रानी और
राजकुमारियों के किस्से नाटकीय तरीके से सुनाते थे। उनमें नाद और बिम्ब का समावेश
होता था। कुछ उनके मौलिक होते थे तो कुछ किस्से कहानियों की किताबों से उड़ाए हुए।
उसमें भी सजीवन कक्का की मौलिकता झलकती थी।
कस्बों, गांवों में बचपन बीता। थाने में तैनात किसी न किसी चौकीदार की शाम को घर पर ड्ïयूटी लगती थी। वे इधर-उधर से सूखी लकडिय़ां जुटाकर आग जलाते
थे। जिसके इर्द-गिर्द सारे बच्चे, बूढ़े आग तापते
थे। मैं सजीवन कक्का के पास बैठती थी। उनके पास किस्सों की फैक्ट्री थी जिसे वे
शाम को हम बच्चों के सामने खोलते थे और फिर कई तरह के किरदार सामने आ कर खड़े हो
जाते थे।
मेरी आंखें कहानियों के किरदारों के साथ
चमकतीं और बुझतीं तो सजीवन कक्का ठहाके लगाते। इतना रस था उन कहानियो में कि मैं
एक ही कहानी बार-बार सुनाने को कहती। उनकी कई कहानियां याद हो गईं। तब हालत ये हो
गई थी कि प्रकृति का हर रंग बदल गया था हमारे लिए और हरेक चीज सीधे किस्सों से
जुड़ जाती थी। राजा-रानी के प्रति प्रेम और भूतो का खौफ वहीं से पैदा हुआ। चाहे
तोता मैना के किस्से हों, राक्षस की जान
तोते वाली कहानी हो या सात राजकुमार और एक बहन राजकुमारी की कहानी हो। अंधेरे तब
और गहरा जाते थे जब हम अकेले होते। दरवाजे चरमराते तो लगता कहानियों का कोई पात्र
निकल कर चला आ रहा है। वे रोमांच के दिन थे। मन में कहानियों के घर बनाने के दिन
थे।
एक बार याद नहीं कैसे एक लंबी नोट बुक
मेरे हाथ लगी। तब मैं सातवीं कक्षा में थी। रातभर बैठकर मैंने सजीवन कक्का से सुनी
हुई कहानियां नोटबुक में लिख डाली। अगली शाम आग के पास बैठे सजीवन कक्का समेत कई
श्रोताओं को मैंने नोटबुक में लिखी कहानी पढकऱ सुना दी। कक्का दंग रह गए। वे ऐसे
सुन रहे थे- जैसे पहली बार कहानी सुन रहे हों। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था।
उसके बाद जब भी वे कोई कहानी सुनाते, मैं नोट कर
लेती। सिलसिला चलता रहा... फिर भीतर कुछ हलचल सी हुई। कुछ चमत्कार-सा हुआ। लिखना
मेरी नजर में चमत्कार ही है। आश्चर्य लोक से भरी दुनिया, जिसके भीतर जाना और फिर बाहर आना, भीगी-भीगी-सी।
मैंने कुछ कहानियां गढ़ी। सजीवन कक्का
मेरे श्रोता होते और मैं नोटबुक में अपनी लिखी कहानियां सुनाती। मैं नोट करती कि
आग खूब चटकती थी तो कक्का विहंसते थे। शायद उन्हें अंदाजा था कि उनकी मेहनत किसी
के भीतर कोई आग जला रही है। फिर छोटी-मोटी कविताएं भी बनीं और सुनाई गईं। यह
सिलसिला तब थमा जब तबादला हो गया। कक्का वही छूट गए। मेरा काफिला बहुत आगे-आगे
चलता गया- नोटबुक तबादले में कहीं गुम हो गई। होस्टल का रहन-सहन और कड़े अनुशासन
ने बेफिक्री के वे दिन और घूरे से गरमाई हुई ठंडी शामें छीन लीं।
कहानियों के किरदार कहीं गुम हो गए। मैं
काल्पनिक दुनिया से यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर खड़ी हो गई थी। इस जमीन ने फिर ढेर
सारी कविताएं उगाईं। मैं अपनी छोटी-सी दुनिया में ‘कविता लिखने वाली लडक़ी’ के नाम से जानी
जाती थी। कहानियां कहीं पीछे छूट गईं। एक बार उसका सिरा मिला। ‘कटरा’ मुजफ्फरपुर जिले
का एक कस्बा है। वहां एक कामवाली आती थी। उसका नाम था ‘सरगट’। गरमी की दोपहरी में वह अपने जीवन की
दिलचस्प घटनाएं सुनाया करती थी। बीजू आम को ठंडे पानी की बाल्टी में डूबोती और
अपने जीवन को पिचके हुए आम के छिलके से जोड़ती। मुझे उसकी बातें दिलचस्प लगतीं।
उसका नाम जरा अटपटा सा था। कभी सुना नहीं। आज तक नहीं सुना।
‘सरगट’- अजीब सी ध्वनि आती। 40 वर्षीय उसी मरियल
सी ‘सरगट’ ने बताया कि उसके
इलाके में एक चिडिय़ां पाई जाती है। बेहद मरियल-सी, बेनूर चिडिय़ां। सरगट जब पैदा हुई तो बेहद मरियल और बदशक्ल थी। घरवालों ने ‘प्यार’ से उसका नाम उसी
चिडिय़ा के नाम पर रख दिया।
मैं बहुत बाद तक उस इलाके में ‘सरगट’ चिडिय़ों को तलाशती
रही, नहीं दिखी। पता नहीं ऐसी कोई चिडिय़ा होती भी है या नहीं। ‘सरगट’ की कहानी मैंने
होस्टल के दिनों में इसी नाम से लिखी। बदशक्ल होने के कारण सरगट का जीवन कैसे नरक
में बदल गया था। इसकी दहला देने वाली दास्तान मुझे भीतर तक हिला गई थी। तभी मुझे
लगा कि इस दुनिया में एक स्त्री का सुंदर होना कितना जरूरी होता है। खासकर कस्बाई
इलाकों में। अब भले रूपरंग के मायने बदल गए हों। शहरों में स्मार्टनेस और सुंदरता
के खांचे अलग-अलग बना दिए गए हैं। गांव-कस्बों में गोरी चमड़ी सुंदरता का पैमाना
मानी जाती है पिछड़े इलाकों में आज भी। सरगट की कहानी पता नहीं कहां गई। तब कहां
सोचा था कि इस जमीन पर दुबारा जीवन तलाशने आऊंगी। कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी लिए।
फंतासी वो जिसे मैं अपने हिसाब से लिख सकूं। यथार्थ वह था- जो मेरे सामने खड़ा हो
जाता है। जो मुझसे मुठभेड़ करता है। जो आईना दिखाता है। फंतासी के जादू को
छिन्न-भिन्न करता हुआ यथार्थ। यकीनन, मुझे
यथार्थ ने पकड़ लिया। जीवन के इस खरे सच से आंखे मिलाते हुए पया कि यही वह राह थी,
जिसे मैं मुद्दतों से तलाश रही थी।
जौन लेनन कहते हैं-यथार्थ अदभुत होता है।
वह हमारी कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है।
कविता की गीली-गीली जमीन अचानक कहानी की
ठोस जमीन में बदल गई है। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि कहानी कैसे लिखने लगी।
क्या स्मृतियों ने मुझ पर कब्जा जमा लिया है या धड़धड़ाते हुए आए जा रही हैं। मैं
उन्हें समझ रही हूं, जिन्हें उस वक्त नहीं समझ पाई थी, जब वे मेरे आस-पास थे। पात्रों की इस निरुपायता और घटनाओं की पारदर्शिता से ही
शायद कहानी लिखने का आगाज हुआ।
शायद ‘दूरी’ समझ बढ़ा देती है। या किसी को तटस्थता से
समझा जा सकता है। पूर्वाग्रह हमेशा हमारे पास रहता है। तटस्थता हमसे हमेशा दूर
रहती है। पात्र और घटनाओं से ऐसे ही संबंध बने। मेरी कहानियों के कई पात्र बहुत
दूर है। कुछ का पता नहीं। कुछ यहीं कहीं आस-पास। कुछ बदल गए है। कुछ अब भी वैसे
हैं। रोज घटनाएं घट रही हैं। एक कहानी रोज बन रही है। जिंदगी का रूप एक पल में बदल
जाता है। मेरे देखते-देखते भारत इंडिया बन गया। इस उत्तर आधुनिक समय में जीवन को
दांव पर लगते देखती हैं। हम क्षणजीवी हो रहे हैं। लम्हों की बात करते हैं। मौज,
मजा मस्ती ही मूलमंत्र है। इस नवधनाढय़ वर्ग की त्रासदी कोई
क्या जाने। थोड़ा कुछ पाने के लालच में कितना कुछ छूट जाता है।
मैं इसी ‘छूटते’ जाने को रचनाओं में पकडऩे की कोशिश करती
हूं। मेरे लिए यही अंतिम सत्य है। घटना-परिघटना कहानी नहीं बन सकती, मगर वह आपकी हथेली पर कहानी का एक सिरा छोड़ जाती है;
अगर आप पकड़ सके। उसका मतलब समझ सके तो पार हो गए। मैं उन
संकेतों को पकड़ती हूं। जब मेरी कहानियों की स्त्रियां वाचाल दिखाती है, तब उनकी इस वाचालता की तह में जाना जरूरी है। (चिडिय़ाएं जब
ज्यादा चहचहाती है तो यह न समझिए कि वे उत्सव मना रही हैं। वे यातना में होती हैं।
शायद उन्होंने किसी भयानक जानवर को देख लिया है। उनकी चहचहाहट में छिपी ‘मौन यातना के अवशेषों’ को रेखांकित करने की कोशिशें भी कहानियां बन जाती है।)
मेरी नजर में जो कुछ भी घट रहा है,
वो व्यर्थ नहीं है। मुझे उसके पार चीजें दिखाई देती हैं।
पता नहीं लोग मेरी इस ‘दृष्टि’ को क्या कहेंगे, लेकिन मुझे
चीजों को भेदने की शक्ति शायद अपने पेशे पत्रकारिता से मिली है। पत्रकारिता के
अनुभवों का खासा योगदान है रचने की इस प्रक्रिया में।
पेशेवर जिंदगी में जो भी अनुभव मिले सब
इसी की देन है। किसी भी सामान्य मनुष्य से ज्यादा देखा, समझा और गौर किया। मेरे लिए प्रकृति और जीवन में घट रही हर घटना का महत्व है।
जो दिख रही है। वो खबर नहीं है जो छिपाई जा रही है, वो खबर है। हम अपने पेशे में जीवन भर उसी ‘छिपी’ हुई खबर को तलाशते हैं। बाजार की भाषा
में आप ‘स्कूप’ भी कह सकते है। मुझे लगता है, मैं साहित्य में
भी रहस्यात्मकता की खोज में हूं। जो ‘छिपी’
हुई चीज। यही मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू है। यहीं से
विचार उठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मार्खेज की रचनाओं का प्रारंभ हमेशा एक दृश्य से
होता है। वे कोई दृश्य देखते हैं और यही उनकी रचना का प्रस्थान बिंदू बन जाता है
लेकिन क्या जहां से कोई प्रस्थान करता है वो जगह किसी के लिए मंजिल भी तो हो सकती
है। मंजिल अक्सर रास्ता मांगते हैं। रास्ते यादों से भी निकलते हैं। रास्ते
अनुभवों से निकलते हैं। रास्ते आदर्श से भी निकलते हैं।
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मेरे आसपास कई लोग ऐसे हैं जिनकी जिंदगी
मुझे प्रभावित करती है। अच्छी या बुरी। उन जिंदगियों में मुझे रास्ते की तलाश है
लेकिन मूल्यों के मापदंड हमेशा उन रास्तों को गजों,मीलों और किलोमीटर में मापकर सबकुछ गड्ड-मड्ड कर देते हैं। पता नहीं क्यों
मुझे लगता है कि मूल्यों के बीच पीसती हुई स्त्रियां खुद कहानी बनती जा रही हैं।
मुक्ति के लिए छटपटाती हुई स्त्रियों का विलाप शायद मुझे ज्यादा साफ सुनाई देता
है। वर्जनाओं के प्रति उनकी नफरत का अहसास मुझे ज्यादा होता है। रिश्तों के जाल
में उलझीं, सुरक्षा और सुविधाओं के नाम पर उम्रकैद
की सजायाप्त औरतें मेरी चिंता का विषय हैं। हाशिए पर रखी गई कौम की खोखली उपलब्धियां
झनझना रही हैं। दुनिया छोटी हुई, जो शोषण के तंत्र
उजागर हुए। इससे जूझती हुई स्त्रियों ने विचारों की शक्ल में मुझे घेर लिया है।
शायद मैं दूसरी औरतो के बहाने अपने दिल के गिरह खोल रही हूं। इसे कुंठा का नाम
नहीं दिया जा सकता। कवि लीलाधर मंडलोई की पंक्तियां उधार लेते हुए कहती हूं- जिंदगी
में दाखिल होने की मेरी कोशिश है मेरी कहानियां।
इसीलिए अपने समय में झांकने और कई बार
उसके आगे झांकने का दुस्साहसिक सपना देखती हूं। पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता की परतें
उधेडऩा चाहती हूं। घोर नैराश्य की स्थिति में भी एक जिद की तरह..।
कई बार मुझे लगता है कि कहानी हमेशा
एकपक्षीय होती है और उपन्यास बहुपक्षीय। एकपक्षीय को बरतना ज्यादा आसान होता है।
मेरी कहानी किसी एक पक्ष के गिरह ज्यादा खोलती है। कई बार ये अन्याय सा लगता है।
इसके लिए मुझे बहुपक्षीय दुनिया में जाना होगा। नहीं तो एकपक्षीय दुखों और तकलीफों
का एकालाप बन कर रह जाएगी मेरी रचनाएं। एकपक्षीय तकलीफें भी इतनी हैं कि उनका
खुलासा सामाजिक ढांचे को उजागर कर सकता है।
मेरी कहानियों में एक तरह की हड़बड़ी
दिखाई देती है। मेरे दोस्त मुझे गालियां देते हैं, कोसते हैं कि तुम अपनी कहानियों में इतनी हड़बड़ी में क्यों दिखाई देती है।
अंत तक पहुंचने की ऐसी क्या जल्दी है कि ‘समय’
को लांघ जाती हो।
मेरी नायिकाओं में भी वहीं हड़बड़ी,
वही पलायन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एक दोस्त ने कहा कि
तुम्हारी नायिकाएं क्या हमेशा भागती ही रहेंगी? कहीं डट कर उन्हें मुकाबला करने दो। वे सच कहते हैं। मेरी बौखलाहट, मेरा गुस्सा, आक्रोश
बहुत ज्यादा है पर शायद बचपन में की गई संस्कारों की बुवाई भी जबर्दस्त है। इस द्वंद्व
में कहानी की नायिकाएं ‘समय’ के अंधेरे से
घबरा-घबरा कर भाग जाती हैं। लेकिन दोस्त या भागने कहां देते हैं। मेरी कहानियों के
पहले पाठक ‘समय’ के अंधेरे से जूझने का हौसला देते हैं। वे स्मृतियों के अंधे कुएं में ढकेल
देते हैं। मैं छटपटाती हुई तह में जाने की कोशिश करती हूं। क्या इसीलिए मैं लगातार
कहानी लिख रही हूं कि मैं समय से इस मुठभेड़ में एक दिन जीतकर दिखाऊंगी, एक दिन समय की पीठ पर धौल लगा ही दूंगी? इसीलिए मैं ‘नायक पूजक’
देश में कथित तौर पर अराजक नायिकाओं का गढ़ बना रही हूं जो
धीरे-धीरे चीजें बदलने का इंतजार नहीं करती। वे तोड़ फोड़ मचाती हुई सामने आती
हैं। यह अलग तरह की दृष्टि है। ‘स्त्री-दृष्टि’ उम्मीदों और आकांक्षाओं को उनके निर्वासन से वापस लाने पर आमादा ‘स्त्री-दृष्टि’ जीवन
मूल्यों से टकराती, मुठभेड़ करती ‘स्त्री-दृष्टि’,
नैतिकता के नाम पर पाखंडियों के मंसूबे को तार-तार करती
हुई।
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