कंदराओं में सोई हुई आत्माओं के लिए नहीं है
मेरी कहानियां
--गीताश्री
मेरी कहानियों के किरदार
वैसे तो वास्तविक जिंदगी से आते हैं...वे लोग जिन्हें रोज अपने आसपास देखते हैं।
जिनके साथ साथ चलते है, सांसे लेते
हैं, हंसते रोते हैं..कभी कभी दूर से देखते हैं, तटस्थता से। कुछ वे लोग जो आपकी जिंदगी को झकझोर देते हैं। सन्न कर देते
हैं। किसी किसी की जिंदगी इतनी औपन्यासिक होती है कि भ्रम होने लगता है, किताब जी उठी है या जिंदगी किताब बन गई थी। मैं यथार्थ को ज्यों का त्यों उठाती जरुर हूं लेकिन उन्हें वैसा बिल्कुल नहीं परोसती। आप वैसे
परोस भी नहीं सकते। जौन लेनन के शब्दो में कहें तो यथार्थ अदभुत होता है। वह हमारी
कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है। उस यथार्थ की कल्पनाशीलता मेरे भीतरी
दुनिया की संपन्नता से निकलती है। एलिजाबेथ बेरेट
ब्राउनिंग प्रेम के बारे में जो कहती हैं वहीं मैं अपनी कल्पना के बारे में कहती
हूं कि..जितनी ऊंचाई, गहराई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं कल्पना करती हूं,
मेरी कल्पनाशीलता जाती है...प्रेम की उस ऊंचाई तक। बहुत महान बात नहीं कह रही हूं।
ये मेरा सच है, मेरी रचनाशीलता का सच है, मेरे पात्रों का सच है..जिन्हें मैं वैसे गढती हूं जैसी गढने की मैं ईश्वर
से अपेक्षा कई बार रखती और कई बार नहीं रखती हूं।
मेरे सामने कुछ भी घटित
होता है, मुझे उसमें एक विचार दिखाई देते
हैं। विचार का सूत्र पकड़ कर मैं पात्रों के साथ साथ आगे बढती हूं। मैं वीडियो गेम
की उस योद्धा की तरह होती हूं जिसे रास्ते में लड़ते भिड़ते अपनी कार को स्पीड में
चलाना होता है। चाहे रास्ते में जितनी बाधाएं आएं। यू कहूं तो मार्खेज की तरह कोई
एक छोटा-सा दृश्य भी मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू बन
सकता है। मैं मार्खेज की जबरदस्त फैन हूं। उनकी रचनाओं के साथ साथ उनकी मान्यताओं
को लेकर, जो शायद मुझे बेहद सूट
करती हैं।
एक साक्षात्कार में
उन्होंने कहा था कि कल्पना यथार्थ पैदा करने का एक साधन मात्र होती है। और अन्त्तत
सृजन का उत्स हमेशा यथार्थ से ही होता है। मार्खेज अपने बारे में दावा करते थे कि मेरे उपन्यासों में एक भी पंक्ति
आपको ऐसी नही मिलगी जो वास्तविकता पर आधारित न हो। मैं तो अभी रचने के दौर में हूं,
अभी तक के आधार पर यह दावा मेरा भी है। शायद अंतिम दौर में भी यही
होगा।
मेरे कुछ पात्र मेरी
स्मृतियो की सुरंग में छिपे हैं। वहां की जब जब मैने अदृश्य यात्राएं की, वे वहां से बाहर आए। कल्पना ने उनमें रंग
भरे और पंख दिए। मेरी स्मृतियां मेरे लिए ऊर्वर प्रदेश का काम करती हैं। वह मेरी
भोगी और भागी हुई दुनिया का हिस्सा है।
सिर्फ कल्पनालोक
का सहारा लेकर आप कोई महान किरदार नहीं रच सकते। आपको बार बार यथार्थ की यात्रा
करनी होगी। उसके पास जाना होगा। जैसे मैं जाती हूं..मैं यात्राओं में होती हूं, मैं बाजार में होती हूं, मैं पार्टी में होती हूं, मैं जहां भी हूं..कहीं कुछ
घट रहा होता है, कहीं कोई कह रहा होता है..ये सारी चीजें
दिमाग में फ्रिज हो जाती हैं। पात्र आते हैं, आकार लेते हैं,
और दर्ज हो जाते हैं। और अगर एक बार रच दूं तो हेमिंग्वे की तरह
मेरी रुचि उनमें खत्म हो जाती है।
मैं रच देने के बाद किसी
पात्र से कोई लगाव नहीं रखती। उसे छोड़ देती हूं. उसे मुक्त कर देती हूं। आप मेरी
कहानियों में एक बात गौर करेंगे कि महिला पात्र केंद्र में हैं और रहेंगी। मैं मौन
को मुखर करने की हिमायती हूं। सो उनकी आवाज बन रही हूं। मेरी नायिकाएं कायर नहीं
है, कमजोर नहीं है, लाचार हैं। उनके सामने वे सारे सवाल खड़े हैं जो जिंदगी में किसी भी महिला
के सामने खड़े होते हैं। बाद में ये सारे सवाल विमर्श में बदल जाते हैं। पुरुष
सत्तात्मक समाज में स्त्री जहां खड़ी है वह जगह बेहद भयावह है, आज भी. विनर है तो भी लूजर है तो भी। जिस संकट के दौर से स्त्री अस्मिता
आज गुजर रही है, उसे चिन्हित करने का काम कर रही हूं। मैं
अपनी तपती ऊंगली रख रही हूं, कोई झुलस जाए तो मैं क्या करुं
? मैं असूर्यमपश्या महिलाओं को बाहर ला रही हूं। भले आपकी नजर में
वे अश्लील लगें। मैं एसे निंदको की परवाह नहीं करती। मेरे प्रिय लेखक खलील जिब्रान की एक कहानी “ तूफान “ याद आती है जिसमें एक किरदार कहता है- “कई मनुष्य ऐसे हैं जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किंतु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता
है जैसे सड़ती हुई दलदल। कई एसे होते हैं जो अपने सिरो को पर्वत की चोटी से भी ऊपर
उठाए चलते हैं किंतु उनकी आत्माएं कंदराओं के अंधकार में सोयी पड़ी रहती हैं...”
मेरी सभी पात्र “प्रार्थना के बाहर”(
हंस) की रचना हो या प्रार्थना, “उर्फ देवी जी”( इंडिया न्यूज) की लाली यानी दिशा हो या खुद देवी
जी, “इंद्रधुनष के पार” (हंस) की आंचल
हो या आशा, “उदास पानी” ( इंडिया
टुडे) की सोनल हो या “दो पन्नों की औरत” (निकट) की आसावरी हो या “चौपाल” (नया ज्ञानोदय) की शिवांगी हो या “मलाई” (अणुक्षण) की सुरीली या “मेकिंग औफ बबीता सोलंकी”
(कथादेश) की बबीता या सी यू (हंस)
की सुषमा या कोन्हारा घाट(परिकथा) की बुढ़िया फुआ। सब बगावती, विद्रोही। मेरी सभी
नायिकाएं ऐसे मनुष्यों की परवाह नही करती जिनकी आत्माएं कंदराओं में सोई पड़ी हों।
जो छेड़ भर देने से हाहाकार कर उठते हैं।
जो कहानी में भी में स्त्री का नग्न
होना सहन नहीं कर पाते।
मेरी सभी नायिकाएं मुझे
पसंद है..खासकर “आंचल” जो ऐसी आत्माओं का इलाज अच्छे से करती है। जहां कहानी खत्म होती है वहां
उसका काम खत्म नहीं होता। वह उसके मुक्ति अभियान का
पहला चरण है। उसके बाद की चीजें पाठको के दिमाग में जब
घटती है तो वे बिलबिला उठे और पत्थर दे मारा मेरे ऊपर। इससे
मेरी नायिकाएं डरने वाली नहीं हैं। वे कोई सोशलाइट (सामाजिकाएं) नहीं है कि
अनचाहे आसूं की तरह इधर उधर लुढक जाएं।
सारी नायिकाएं अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती हैं। कुछ शहरी हैं तो
कुछ गांवो कस्बो से आई हैं। रचना छोटे शहर से आई है उसे
शहरी मूल्य परेशान करते हैं। उसकी मुठभेड़ जब प्रार्थना से होती है तो उसके होश उड़ जाते हैं। मूल्य बोध से टकराती हुई नायिकाएं मुझे
पसंद हैं। नैतिकता की धज्जी उड़ाती हुई स्त्रियां मुझे
पसंद है। “आंचल” मुझे औरो की तुलना में
ज्यादा पसंद है क्योकि उसका साहस अनूठा है। किसी भी स्त्री के लिए अचंभे की तरह।
वह जिस तरह ड्रेसकोड के खिलाफ खड़ी होती है वह देखने लायक है। जब मेरी नायिका
नैतिकता के पाखंडियों से टकरा रही होती हैं ठीक उसी वक्त देश में महिलाएं ड्रेसकोड के खिलाफ स्लटवाक करती हैं। एक स्त्री
का साहस दुनिया भर की महिलाओं के एक खास आंदोलन से कैसे
जुड़ता है, ये देखिए। गांव से शहर में आई एक लड़की का शहरी मोह भंग भी इस कहानी के पीछे है। अपना चुना हुआ आकाश भी उसके लिए एक धोखा साबित होता है।
-मर्दो
की बनाई हुई दुनिया में एक आजाद औरत वैसे भी एक चुनौती से कम नहीं होती। मेरी हर
महिला पात्र एक चुनौती की तरह है। जीत कर भी, हार कर भी.पाकर
भी, खोकर भी। वह अपने हिस्से का सुख ले ही लेती है। अपनी
शर्तो पर जिदंगी जी ही लेती है। ये जिंदगी कुछ पल की भी हो सकती है। “इंद्रधनुष के पार ” की नायिका आंचल बहुत चैलेंजिंग
हैं मेरे लिए। समाज के लिए भी। इस कहानी के “हंस ” में छपने के बाद मैंने और संपादक राजेन्द्र यादव जी ने कितनी गालियां
सुनी हैं, इसकी सबूत वहां छपी कई चिठ्ठियां हैं। पाठको की
प्रतिक्रियाएं हैं। हालांकि जब प्रतिक्रियाएं आनी शुरु हुई तो राजेंद्र जी दुखी
हुए। कहा- “बड़ी तारीफ आ रही है, तेरी
कहानी की। बात क्या है..ये अच्छी बात नहीं है। “
मैं भी तारीफ पर खुश हो रही
थी। मुझे लगा कि हिंदी समाज बदल गया है। उसमें एक साहसी कहानी समझने स्वीकारने की
समझ और हिम्मत दोनों आ गई है। राजेंद्र जी ने कहा –“ज्यादा खुश मत हो। ये अच्छी बात नहीं है। अगर आपकी रचना ने आपके समय को
पाठको को झकजोरा नहीं, उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया तो तेरा
लिखना बेकार। मुझे उम्मीद नहीं थी कि तारीफ में इतने पत्र आएंगे।“
मगर ये खुशियां जल्दी ही
हवा हो गई। मेरे घर के पते पर, हंस के
आफिस में, फेसबुक पर और ईमेल से मुझ पर जो गालियां बरसी कि
पूछो मत। लोगों ने नाम छुपा छुपा कर गालियां दीं। मेरी समझ में आया कि कुछ तो अनजान
पाठक और कुछ वे अपने जो मेरी तारीफ मुंह पर करते हैं और पीछे से मेरे लिए तरह तरह
के विशेषणों का प्रयोग करते हैं। उनका भला हो। बीमार मानसिकता पर आप सिर्फ दया ही
कर सकते हैं। सो उनकी गालियां सिर माथे। उनकी समझ ही इतनी है कि क्या करुं। मेरी
उस वक्त की अनजान दोस्त, कहानीकार प्रज्ञा पांडे जिस तरह से मुझे मेरी कहानी के
विस्तृत फलक के बारे में बताया, वहां तक
शायद मैंने सोचा नहीं था। उन्होंने मेरी कहानी को उस दौर में दुनिया भर में चल रहे
ड्रेसकोड के खिलाफ आंदोलन से जोड़ दिया।
इसके अलावा कहानी की नायिका
आंचल को लोगों ने अलग अलग तरीके से देखने की कोशिश की..सोचिए, जिस किरदार को पाठकों ने इतनी गालियां दीं,
क्या उसे रचते हुए मुझे इसका अंदाजा नहीं रहा होगा ? अंदाजा
था..और यही मेरी जिद है। मैं “गुडी गुडी” लिखने के लिए नहीं हूं। साहित्य प्रतिरोध रचता है, वह प्रतिपक्ष में खड़ा
होता है।
आपके समाज में जो हो रहा है उसे देखिए। एक
स्त्री के आइने में ज्यादा साफ सफ्पाक दिखाई देगा। स्त्री के जरिए जब पोल खुलती है
तो लोगों को मिर्ची लगती है। एक पाठक जो जिला अदालत में जज हैं वे अपने पत्रों में
साफ साफ स्वीकारते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है और हम आज भी स्त्री को देह से
अलग देख पाने को तैयार नहीं हैं।
एक स्त्री का नग्न होना या
नग्न कर देना मेरे लिए कठिन था। नायिका के न्यूड पार्टी में जाने से पहले मैंने
बहुत सोचा कि वह भाग खड़ी हो...एक बार वह भागती भी है...उसके भीतर पलायन का खयाल
आता है..उसकी कायरता थी, एसा
सोचना...लेकिन लगा कि क्या स्त्रियां हमेशा भागती ही रहेंगी... मुकाबला नहीं
करेंगी। नहीं..वह नहीं भागेगी...वह एक नंगे पुरुष की आंख में आंख डाल कर बात
करेगी..शर्म स्त्री की आंखो में नहीं, पुरुष की आखो में
हो...यही तो चुनौती है।
मेरी कठिनाईयां और भी
थीं..रचने के बाद, छपने की।
हर मोड़ पर। “हंस” बोल्ड काहानियों को
छापने का दावा करता रहा है..उनकी भी हिम्मत ना हो रही थी। लटकी रही कहानी। वहां भी
कुछ संपादकीय साथियों को मेरी कहानी अश्लील लगी। मेरी कहानी का मर्म कोई नहीं पकड़
पा रहा था। मेरे लिए एक स्त्री को भरी महफिल में नग्न कर देना जितना मुश्किल था,
इसका अंदाजा उन्हें नहीं था। उन्हें यकीन ही नहीं था कि कोई स्त्री
ऐसा कर सकती है या समाज में न्यूज पार्टी का कोई अस्तित्व है। उन्हें यह गढा हुआ
संसार लग रहा था। बाद में टाइम्स आफ इंडिया में इस तरह की पार्टी के बारे में
डिटेल छपा था। मजेदार बात ये कि मध्यप्रदेश के मेरे एक पाठक ने छोटे शहर में न्यूड
पार्टी की एक खबर की कटिंग के साथ पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि हमने तो अखबार में
पढकर अब जाना कि समाज में ऐसा हो रहा है, आपने तो बहुत पहले
ही इसका अनुसंधान कैसे कर डाला...। वह चकित होकर सवाल पूछ रहे थे।
मेरे एक युवा आलोचक मित्र
ने कहा—“दरअसल आपने समय से बहुत पहले ये कहानी लिख दी।
पत्थर तो बरसेंगे हीं। इसका मूल्यांकन होगा..कुछ साल बाद। मैं तो हिंदी पट्टी के
लिए दुआ कर रही हूं कि वे अपनी समझ को और बोल्ड करें और अपने ही भीतर
झांकें...नंगापन दिख जाएगा। “
और अब.....
भविष्य की
रुपरेखा ठोस बनाई नहीं। पात्र तो खुद लेखक को चुनते हैं। वह आपको गढते हैं. पता
नहीं कब क्या कौन पात्र मुझे अपने नियंत्रण में ले ले। अभी कुछ सोचूं और बाद में
वह बदल जाए तो। पात्रों को लेकर समयानुकूल घोर आशंका बनी रहती है। एक बात जरुर है
कि मैं अपने पात्रों में एकरसता से बचना चाहती हूं। उनमें वैविध्य देखना चाहती
हूं। रेंज हो उनमें। वे जादुई भी हों और यथार्थवादी भी। मैं निराश पात्रों से या
कहें बहुत ज्यादा निगेटिव पात्रों से बचना चाहती हूं। लेकिन क्या पता, कब कौन आ जाए और अपनी जगह ले ले आपकी
रचनाओं में। सब अपनी जगह छेंक लेते हैं। मेरे लिए लिखना खुद को मुक्त करना है।
अब ये मुक्ति
कैसी है, इस पर मैं अपनी रचना प्रक्रिया
में बहुत बात कर चुकी हूं। इस मुक्ति की चाहत ने पात्रों की तलाश में हकासल-पियासल
जैसी हालत कर दी है। पहले से ज्यादा चौकन्ना हूं। पात्र और मैं दोनों एक दूसरे की
तलाश में हैं शायद।
----गीताश्री
मो-9819246059
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