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Wednesday, May 16, 2018

कुछ कविताएं



- गीताश्री
1.
जैसे चले जाते हैं असंख्य लोग
वैसे ही मैं यहाँ से प्रस्थान करना चाहती हूँ
मेरे बाद मेरा कुछ शेष नहीं बचा रहना चाहिए
उन्हें बहा देना मेरी अस्थियों के साथ
मेरी किताबें, मोबाइल और लैपटॉप भी मेरे साथ परलोक जाएँगी
मेरे साथ इनका भी प्रस्थान जरुरी
मैं यादों के ख़ज़ाने को किसी के लिए नहीं छोड़ना चाहती
सब भीतर से भरे हुए , जीवन से तरे हुए लोग हैं
सबके पास अपने जीने -मरने की कई कई वजहें हैं
उन्हें उसी से जूझने देना चाहिए
हीन-क्षीण आत्म ग्रंथियों से लदी फदी आत्माओं के लिए
मैं शोक की वजह नहीं बनना चाहती
जैसे किसी के सुख की वजह नहीं बन पाई
मेरी मुक्ति वैसे हो
जैसे पेड़ छोड़ देता है पत्ते को
बारिश छोड़ देती है बादलों को
मुक्ति की कामना ही मेरी अंतिम प्रार्थना है ...

2.
मैं अकेली नहीं रोती
मेरे भीतर रोती है ढेर सारी स्त्रियाँ एक साथ
मेरा रुदन काराओं में बंद असंख्य स्त्रियों का कोरस है,
मेरा विलाप सिर्फ मेरा नहीं
यह हाशिए पर छूट गयीं
अनगिनत स्त्रियों का लोकगीत है

मेरी हंसी सिर्फ़ मेरी नहीं ,
इसमें शामिल हैं असंख्य स्त्रियों का हास्य
मैं अकेली नहीं नाचती
मेरी हर मुद्रा में वंचित औरतो का लास्य भरा है,

मैं अकेली नहीं गाती
मेरे आलाप में गाती हैं वे सभी आवाज़ें
जिन्हें कोई सुन नहीं पाया
मेरे हर सुर में गुंजित है उनकी पीड़ा

मैं दर्द लिखती हूँ, विद्रोह लिखती हूँ, बग़ावत करती हूँ
और इनमें शामिल होता है
 असंख्य अदृश्य औरतों  का जुलूस,

मेरे हर पल में शामिल हैं
उन धड़कते सपनों की प्रेतात्माएं
जिन्हें हर बार बेरहमी से ज़िन्दा ही दफ़्न कर दिया गया है।

3.
न धरती न आकाश 
...........

तुम्हें उसने इतना अनुकूलित कर लिया है
कि तुम्हें कंकड़ - पत्थर में बदल कर
अपने दुश्मनों पर फेंकने के क़ाबिल बना दिया है
कायर राजा को फ़ौज चाहिए
नपुंसकों की
जो हमले के समय गगनभेदी -धरती फाड़ू तालियाँ बजा बजा कर
अपने समर्थन में कुछ लोग जुटा सके
तुम्हें पता ही नहीं धरती
कि तुम कब आकाश की बाँदी बन कर पैताने खड़ी हो
और बनो धरती धरणी
आकाश अपनी मर्जी से आकार दे रहा है तुम्हें...
तुम अपनी ही देह को नोंच नोंच खा जाओगी..
आकाश कई कई रुपो में तुम्हें लुभाता है...
अपने घर, दरवाज़े, खिड़कियाँ खोल कर
उन्हें बुलाती हो..
अपने घर को शरणस्थली में बदल कर रोमांच पाती हो
शरणागत बहुरूपिया आकाश
बाहर भांट की तरह गाता है
तुम्हारी माटी, खेत और सूखे उजड़े अरमानों और चाहतों का गान
दुनिया भर में बांट आता है तुम्हारी रातों के क़िस्से
मेहमाननवाज़ी की राजनीति
और रात्रि विश्राम की उत्तेजनाएं
ये सब महज़ उसके लिए चटखारे हैं...
एक अर्द्ध बीमार मेहमाननवाज़ का दरवाज़ा खुला रखना
कई फ़र्ज़ी आकाशों के लिए सिर्फ अचंभा है...
औसतपन को ढँकने का उपक्रम मानते हुए
कई कई शहरों के आकाश
धरती पर रात्रि विश्राम के क़िस्से बाँचते हैं... !!


4. मैं आत्माओं के झुंड से घिरी हुई हूँ ...
जाने कैसे आ जाती हैं  इन दिनों मेरे इर्द गिर्द
मुझसे ज़्यादा बेचैन
नींद की नदी में गोता लगाती हूँ कि
आत्माओं की चीख़ें आसमान सिर पर उठा लेती हैं
सुना है, आत्माएँ पेड़ों में रहा करती हैं
इसलिए खेतों में ढूँढती हूँ कोई घना वृक्ष
जिसके नीचे उन्हें जुटा सकूँ
बेमन से बनाया गया उनके हिस्से का भोजन दे सकूँ
मैं भेद नहीं कर पा रही
वे आत्माएँ हैं या प्रेत ?
कौन चीख़ता है जोर जोर से ?
क्या चाहिए उन्हें मुझसे ?
जब मेरे हिस्से कुछ बचा ही नहीं
फिर क्या माँगती हैं वे?
अधूरी कामनाओं का आवेग उन्हें बुलाता है बार बार
अतृप्ति एक अंधी बाबड़ी है
वहाँ इच्छाएँ जालों में लटकती हैं...
आत्माएँ क्या शोकग्रस्त हैं ?
किसकी आत्माएँ हैं?
मुक्ति की कामना में चीखती हैं ...
पंडितों के वाहियात मंत्रों में भी नहीं ताक़त
कि इनकी कामनाओं को समझ सके
इन्हें मुक्ति देने का दंभ और आत्म विश्वास लिए पंडित
हर शाम बड़बड़ाता रहता है मंत्र...