Wednesday, May 16, 2018

कुछ कविताएं



- गीताश्री
1.
जैसे चले जाते हैं असंख्य लोग
वैसे ही मैं यहाँ से प्रस्थान करना चाहती हूँ
मेरे बाद मेरा कुछ शेष नहीं बचा रहना चाहिए
उन्हें बहा देना मेरी अस्थियों के साथ
मेरी किताबें, मोबाइल और लैपटॉप भी मेरे साथ परलोक जाएँगी
मेरे साथ इनका भी प्रस्थान जरुरी
मैं यादों के ख़ज़ाने को किसी के लिए नहीं छोड़ना चाहती
सब भीतर से भरे हुए , जीवन से तरे हुए लोग हैं
सबके पास अपने जीने -मरने की कई कई वजहें हैं
उन्हें उसी से जूझने देना चाहिए
हीन-क्षीण आत्म ग्रंथियों से लदी फदी आत्माओं के लिए
मैं शोक की वजह नहीं बनना चाहती
जैसे किसी के सुख की वजह नहीं बन पाई
मेरी मुक्ति वैसे हो
जैसे पेड़ छोड़ देता है पत्ते को
बारिश छोड़ देती है बादलों को
मुक्ति की कामना ही मेरी अंतिम प्रार्थना है ...

2.
मैं अकेली नहीं रोती
मेरे भीतर रोती है ढेर सारी स्त्रियाँ एक साथ
मेरा रुदन काराओं में बंद असंख्य स्त्रियों का कोरस है,
मेरा विलाप सिर्फ मेरा नहीं
यह हाशिए पर छूट गयीं
अनगिनत स्त्रियों का लोकगीत है

मेरी हंसी सिर्फ़ मेरी नहीं ,
इसमें शामिल हैं असंख्य स्त्रियों का हास्य
मैं अकेली नहीं नाचती
मेरी हर मुद्रा में वंचित औरतो का लास्य भरा है,

मैं अकेली नहीं गाती
मेरे आलाप में गाती हैं वे सभी आवाज़ें
जिन्हें कोई सुन नहीं पाया
मेरे हर सुर में गुंजित है उनकी पीड़ा

मैं दर्द लिखती हूँ, विद्रोह लिखती हूँ, बग़ावत करती हूँ
और इनमें शामिल होता है
 असंख्य अदृश्य औरतों  का जुलूस,

मेरे हर पल में शामिल हैं
उन धड़कते सपनों की प्रेतात्माएं
जिन्हें हर बार बेरहमी से ज़िन्दा ही दफ़्न कर दिया गया है।

3.
न धरती न आकाश 
...........

तुम्हें उसने इतना अनुकूलित कर लिया है
कि तुम्हें कंकड़ - पत्थर में बदल कर
अपने दुश्मनों पर फेंकने के क़ाबिल बना दिया है
कायर राजा को फ़ौज चाहिए
नपुंसकों की
जो हमले के समय गगनभेदी -धरती फाड़ू तालियाँ बजा बजा कर
अपने समर्थन में कुछ लोग जुटा सके
तुम्हें पता ही नहीं धरती
कि तुम कब आकाश की बाँदी बन कर पैताने खड़ी हो
और बनो धरती धरणी
आकाश अपनी मर्जी से आकार दे रहा है तुम्हें...
तुम अपनी ही देह को नोंच नोंच खा जाओगी..
आकाश कई कई रुपो में तुम्हें लुभाता है...
अपने घर, दरवाज़े, खिड़कियाँ खोल कर
उन्हें बुलाती हो..
अपने घर को शरणस्थली में बदल कर रोमांच पाती हो
शरणागत बहुरूपिया आकाश
बाहर भांट की तरह गाता है
तुम्हारी माटी, खेत और सूखे उजड़े अरमानों और चाहतों का गान
दुनिया भर में बांट आता है तुम्हारी रातों के क़िस्से
मेहमाननवाज़ी की राजनीति
और रात्रि विश्राम की उत्तेजनाएं
ये सब महज़ उसके लिए चटखारे हैं...
एक अर्द्ध बीमार मेहमाननवाज़ का दरवाज़ा खुला रखना
कई फ़र्ज़ी आकाशों के लिए सिर्फ अचंभा है...
औसतपन को ढँकने का उपक्रम मानते हुए
कई कई शहरों के आकाश
धरती पर रात्रि विश्राम के क़िस्से बाँचते हैं... !!


4. मैं आत्माओं के झुंड से घिरी हुई हूँ ...
जाने कैसे आ जाती हैं  इन दिनों मेरे इर्द गिर्द
मुझसे ज़्यादा बेचैन
नींद की नदी में गोता लगाती हूँ कि
आत्माओं की चीख़ें आसमान सिर पर उठा लेती हैं
सुना है, आत्माएँ पेड़ों में रहा करती हैं
इसलिए खेतों में ढूँढती हूँ कोई घना वृक्ष
जिसके नीचे उन्हें जुटा सकूँ
बेमन से बनाया गया उनके हिस्से का भोजन दे सकूँ
मैं भेद नहीं कर पा रही
वे आत्माएँ हैं या प्रेत ?
कौन चीख़ता है जोर जोर से ?
क्या चाहिए उन्हें मुझसे ?
जब मेरे हिस्से कुछ बचा ही नहीं
फिर क्या माँगती हैं वे?
अधूरी कामनाओं का आवेग उन्हें बुलाता है बार बार
अतृप्ति एक अंधी बाबड़ी है
वहाँ इच्छाएँ जालों में लटकती हैं...
आत्माएँ क्या शोकग्रस्त हैं ?
किसकी आत्माएँ हैं?
मुक्ति की कामना में चीखती हैं ...
पंडितों के वाहियात मंत्रों में भी नहीं ताक़त
कि इनकी कामनाओं को समझ सके
इन्हें मुक्ति देने का दंभ और आत्म विश्वास लिए पंडित
हर शाम बड़बड़ाता रहता है मंत्र...







Saturday, June 10, 2017


आलेख

सोनमछरी 
--गीताश्री

जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
                                                                     
                                                                                          - डॉ. रेणु व्यास, असिस्टेंट फ्रोफेसर, 
                                                राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
                                                                
यह कहानी है गंगा नदी की,  उसके किनारे की तुर्शी वाली तेज़ हवा, उसमें उठे तूफ़ान की, और उस तूफ़ान से इंसान के संघर्ष की। यह कहानी है उस गंगा नदी की जो अपना रास्ता ख़ुद बनाती है। दुनिया की सबसे पहली सड़क इंसान ने नहीं, नदी ने बनाई है। ग्रांड ट्रंक रोड किसी लोककल्याणकारी शासक की नहीं, गंगा नदी की देन है। अपना रास्ता ख़ुद बनाने वाली गंगा इंसान को रास्ता दिखाती है पर मिज़ाज बदलने पर इंसान को तिनके की तरह दूर उछालकर रास्ता भटका भी सकती है। फिर भी इंसान तूफ़ानों से लड़ते हुए, झंझावातों का सामना करते हुए, अपनी इस माँ की छाती पर चढ़कर उसके सीने से अपना दाय लेने में झिझकता नहीं है। धरती हो या उसकी बेटी गंगा, कुपित होने पर इंसान उसके सामने असहाय नज़र आता है पर तुरंत ही सँभलकर वह पुनः अपने साहसिक  अभियान पर निकल पड़ता है। ऐसे ही एक साहसी मनुष्य की जिजीविषा की कहानी है सोनमछरी’, प्रसंगतः यह साहसी मनुष्य एक स्त्री है।
                गंगा किनारे के धुलियानगाँव में एक मछुआरे से बीड़ी-मज़दूर बने शंकर की नवविवाहिता है रुम्पा जो गीताश्री की कहानी सोनमछरीकी नायिका है। लेखिका ने इस कहानी में स्त्री और गंगा को समानान्तर रूप से अंकित किया है, लगभग रूपक की तरह।
                ‘‘अपने मन मिज़ाज की हवा कब बिगड़ जाए, कब सँवर जाए, दैवो न जानम। गंगई हवा का मिज़ाज किसी स्त्री की तरह लगा उसे।’’ (पृष्ठ 1)
                ‘त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं......उक्ति को नए रूप में प्रस्तुत किया है गीता श्री ने। अपने भाग्य का आप निर्धारण करने वाली स्त्री है रुम्पा और शंकर और अमित के जीवन को भी वही दिशा देती है। कभी मछुआरा रहा शंकर का पूरा गाँव बीड़ी बनाने के उद्योग में लगा है। रुम्पा अपने आपको और शंकर को तेंदुपत्ता और तंबाकू की गंध से दूर ले जाना चाहती है, जिस गंध से पूरा गाँव खाँस रहा है। टी.बी. अस्पताल में भर्ती राजू दाधुलियान के हर बीड़ी मज़दूर का भविष्य हैं। इस रुग्ण भविष्य से बचने का रास्ता चाहे सात पहाड़ों के पार हो, रुम्पा दृढ़संकल्प है पार जाने के लिए। कहानी के साथ-साथ चल रही लोककथा की रानी रुम्पा ही है और जिस सोन फूलको लाने के लिए वह राजा को बाध्य करती है, वह सोन फूलबीड़ी मज़दूर बनने की नियति से मुक्ति की आकांक्षा है।
जाल और नाव का इंतज़ाम करती रुम्पा शंकर को अपने पुश्तैनी व्यवसाय की ओर मोड़ती है। इस प्रयास में वह सफल भी होती है। हिल्सा, रोहू, सिंघी..... तक तो ठीक पर जब सारी मछलियाँ सोनमछरी की तरह दिखने लगें तो ? ‘सोनमछरीकी रुम्पा की चाह शंकर को ले डूबी। बिहार के किशनगंज की ज़िद्दी रानी रुम्पा गंगा का बदला मिज़ाज न भाँप सकी, शंकर के दिए संकेत के बावज़ूद! और उसने शंकर को उस दिन भी ज़बरदस्ती मछली पकड़ने भेज दिया जिस दिन भयानक तूफ़ान आना था। तूफ़ान आया गंगा में भी और रुम्पा के जीवन में भी। तम्बाकू की गंध से भी नफ़रत करने वाली रुम्पा को हालात ने सबसे तेज़ी से बीड़ी बनाने वाली मशीन में तब्दील कर दिया। पर नहीं! रुम्पा मशीन में नहीं बदली। तूफ़ान द्वारा तहस-नहस किए जाने के डर से उसने सपने देखना नहीं छोड़ा। भुट्टो दाई चोरनी के शाप से वह डरी नहीं, दुख से वह हारी नहीं, उसने फिर जीने की कोशिश की, अपना वही सपना, बीड़ी मज़दूर की नियति से मुक्ति पाने का, वह भी बीड़ी फैक्ट्री के मुंशी अमित दास का संबल मिलने पर। गाँव वालों और अपनी माँ के विरोध की भी परवाह न कर अमित ने रुम्पा का हाथ थामा। पोल्ट्री फार्म खोलने की रुम्पा और अमित की योजना लोककथा की रानी के सोन फूल की दिशा में फिर से सात पहाड़ लाँघना थी। पर फिर तूफ़ान आया, गंगा में नहीं, रुम्पा के जीवन में। शंकर लौट आया। गंगा की लहरों से बचा शंकर बांग्लादेश की जेल में पहुँच गया था। वहाँ से छूटा तो सीधा अपनी रानी के पास यह कहते हुए कि
                ‘‘रानी... स्वर्ण फूल ले आया हूँ ... सात पहाड़ पार कर गया... भीषण कष्ट झेला... अब तो कथा पूरी करो... ’’ (पृष्ठ 11)
कथा पूरी कैसे करे रुम्पा जब उसे उस कथा का अन्तनहीं मिल रहा हो! कथा के अन्त के पहले का क्लाइमैक्स रुम्पा के जीवन में आ पहुँचा। एक ओर पहला पति शंकर जो उसके लिए मृत्यु को भी पराजित कर आया है और दूसरी ओर बिना किसी प्रतिदान की आशा के संकट के समय सहारा देने वाला अमित, उसका दूसरा पति। गुलज़ार कहते हैं -
                ‘‘मैं तो बस ज़िन्दगी से डरता हूँ
                मौत तो एक बार आती है’’
रुम्पा के जीवन में मौत से भी गहरी यह पीड़ा दो बार आई। पहले गंगा की लहरों ने शंकर को लील कर रुम्पा को सताया, दूसरी बार उसे उगल कर। रुम्पा अपने अंतद्र्वंद्व पर विजय पाती है, अपनी जिजीविषा से। कितनी पढ़ी-लिखी है वह ? साक्षर भी है या नहीं, कहानी से पता नहीं चलता परन्तु अपनी सोच में वह एक आधुनिक स्त्री है। बिमल रॉय की बंदिनीकी नायिका की तरह वह पहले प्यार के रोमांस में डूबी अतीत की बंदिनी नहीं है, वह वर्तमान को यानी अमित को चुनती है। यहीं गीता श्री की नायिका बिमल रॉय की नायिका से एक क़दम आगे नज़र आती है। वह एक पीढ़ी आगे की स्त्री है। रुम्पा के चरित्र के जरिए गीता श्री स्त्री के खेतया ज़मीनहोने को नकारती है, जो पहली बार जोतने वाले का हक़ परम्परागत रूप से मानी जाती है। यहाँ नायिका रुम्पा एक इंसान है जीती-जागती, साँस लेती। अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का हक़ उसका है।
                कहानी की तिहरी बुनावट में रुम्पा की कथा, गंगा नदी के रूपक का प्रयोग और राजा को सात पहाड़ पार कर सोन फूल लाने के लिए बाध्य करने वाली रानी की कथा इस कहानी में साथ-साथ चलते हैं। लोककथा की रानी राजा को कहती है-
                ‘‘हमारी देह चाहिए तो हमारे मन की सुनो। सुनो कि मन क्या माँगता है। पहले मन को जीतो मेरे राजा, फिर मेरी देह तुम्हारी। मन के मार्ग से देह तक पहुँचो...’’ (पृष्ठ 2)
                रुम्पा शंकर को बहुत प्यार करती थी। पर शंकर की यात्रा देह से मन की ओर थी और अमित की मन से देह की ओर। लोककथा की रानी की तरह ही रुम्पा भी अमित को चुनती है जो मन के रास्ते देह तक पहुँचा है।
वातावरण निर्माण में गीताश्री ने इस कहानी में कुशलता दिखाई है। बांग्ला शब्दों को प्रयोग, गंगा नदी की हर गतिविधि का सूक्ष्म चित्रण, बीड़ी मज़दूरों की दयनीय स्थिति, सब मिलकर बंगाल के उस अनदेखे गाँव को हमारी आँखों के आगे मूर्त कर देते हैं। कथ्य में देश-काल की बारीकियाँ गीताश्री के पत्रकार रूप की देन है तो उसका सुगढ़ शिल्प लेखिका की पहचान। फ्लैश बैक का इस्तेमाल कहानी में बहुत रचनात्मक तरीके से किया गया है जहाँ पाठक रुम्पा के मानस में आते स्मृति-खंडों के माध्यम से कहानी से परिचित होता चलता है। इन स्मृति-खंडों में काल के पूर्वापर क्रम के बजाए भावों से उनकी संगति को प्राथमिकता दी गई है। कहानी में रचा गाँव इकहरा नहीं है। वहाँ राजू दा और रीना दास हैं तो नज़मा आपा भी हैं। जब शहरी पृष्ठभूमि की आज की हिन्दी कहानी में मुस्लिम चरित्र ग़ायब होते जा रहे हैं, तब यहाँ उनका कहानी के वातावरण में सहज रूप से आना राहत की बात है। पूरी कहानी में कोइ्र टिपीकल खलनायक नहीं है और न ही अतिमानवीय तरह के नायक-नायिका। सभी यहाँ इंसान हैं और खलनायक परिस्थितियों से संघर्ष करना नहीं छोड़ते। स्त्री-विमर्श भी यहाँ यांत्रिक या क़िताबी नहीं है। यहाँ स्वतंत्र व उदार सोच वाले स्त्री-पुरुष मिलकर स्त्री-विरोधी पुरानी सोच से लड़ते हैं। रीना दास की सोच पितृ-सत्तात्मकता से प्रभावित है तो नज़मा आपा की उससे मुक्त सहज मानवीय। अमित दास रुम्पा का पति है पर स्वामी नहीं। वह शंकर की तरह गुस्से से आँखें लाल नहीं करता। प्रेम की गहराई उसे रुम्पा के निर्णय का आदर करना सिखाती है।
‘‘मैं रोकूँगा तुम्हें...... एक बार..... उसके बाद जो तुम चाहो। मैं तुम्हारे रास्ते में कभी नहीं आऊँगा.... जेटा तुमि भालो बोझो, शेटे करो... तुम स्वतंत्र हो... लेकिन मैं नहीं भूल पाऊँगा तुम्हें... जी नहीं पाऊँगा... क्या करूँगा पता नहीं..., शायद यहाँ से दूर... बहुत दूर चला जाऊँ... बस तुम ख़ुश रहना... शंकर को फिर गंगा में नाव लेकर ना जाने देना... गंगा का माथा फिर गया तो... नहीं... मैं रोऊँगा नहीं... कोई अहसान न मानना... आमी तोमा के खूब भालो बाशी।’’ (पृष्ठ 9)
अमित के प्रेम में अपनेपन के साथ-साथ उत्तरदायित्व है, अभिभावकत्व है। उसकी यह परिपक्वता रुम्पा को उसके प्रति आकृष्ट करती है।
                कहानी में आने वाले प्रसंगों की झलक लेखिका पहले ही दे देती हैं। शंकर को मछली पकड़ने भेजते ही मौसम ख़राब होने के वर्णन से उस तूफ़ान की झलक पाठक को पहले ही मिल जाती है जो रुम्पा के जीवन में आने वाला है। साथ ही रुम्पा तूफ़ान में गिरेगी नहीं, टूटेगी नहीं सहारा पाकर फिर खड़ी होगी इसका संकेत भी लेखिका ने प्रकृति के माध्यम से पहले ही दे दिया है।
‘‘शंकर ओझल हुआ तो वह पलटी... हवा की तेज़ लहर उसे हिला गई। डगमगाई, जल्दी से कीचड़ में गड़े बाँस को पकड़ा। पीन पयोधर दुबरी गात वाली रुम्पा हवा का तेज़ झोंका भी कैसे सहती। वह जानती थी अपनी शक्ति को इसीलिए लड़खड़ाते हुए सबसे पहला सहारा पकड़ा। सामने जो दिखा।’’ (पृष्ठ 6)
लेखिका कहर बरपाते तूफ़ान का वर्णन करते हुए नज़मा आपा की आवाज़ में या ख़ुदा... रहम बरपा...इस्तेमाल कर गई हैं, पर यह चूक और भाषा की ऐसी कुछ और भूलें कहानी के व्यापक उदात्त को प्रभावित नहीं करतीं। भाषागत सावधानी लेखक के लिए अपेक्षित है यह मानते हुए भी टंकण की त्रुटियों की तरह इनकी उपेक्षा की जा सकती है।
रुम्पा के मन के झंझावात की अभिव्यक्ति कहानी में गंगा नदी के माध्यम से होती है। प्रकृति के साथ इंसानी हृदय का गहरा तादात्म्य इस कहानी की एक बड़ी विशेषता है। अजीज़ एज़ाज़ ने ठीक ही तो कहा है -
‘‘जैसा दर्द हो वैसा मंज़र होता है
मौसम तो इंसान के अंदर होता है’’
                गंगा नदी का नाम बांग्लादेश में पहुँचने पर पदमा हो जाता है, इस तथ्य के जरिए लेखिका ने स्त्री-जीवन की उस विडम्बना को रेखांकित किया है जब ससुराल में पहुँचने पर उसके नाम, उपनाम ही नहीं उसकी सम्पूर्ण पहचान बदल दिए जाने की कोशिश होती है।   
                ‘‘पदमा... गंगा ही तो है जो स्त्री की तरह दूसरे देश में जाकर नाम बदल लेती है। वे भूल गये थे कि गंगा कभी कभी अपना पाट भी बदल लेती है।’’
                स्त्री का नाम तक बदल देने वाला समाज उससे यह अपेक्षा नहीं करता कि वह नदी की तरह अपना पाट भी बदल लेगी। पर रुम्पा ने ऐसा कर दिखाया। धरती को अपनी धारा से काटते हुए लीक बनाने वाली नदी अपनी ही बनाई लीक को लाँघने की शक्ति रखती है।
                जिस घर में रुम्पा शंकर के साथ ब्याह कर आई, जो घर उसका आश्रय था, अमित से ब्याह के बाद भी, शंकर के लौट आते ही वह घर शंकर का हो गया, रुम्पा का नहीं रहा। उस घर को उसने छोड़ दिया। सारे सामान वहीं छोड़ दिए, बस अमित के प्रेम को साथ लिया। कहानी के अंतिम अंश में लेखिका गंगा के एक खूबसूरत बिंब के सहारे इस घटना को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाती हैं। यह खूबसूरत बिंब इस कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
                ‘‘गंगा शांत दिख रही थी। सूरज की मुलायम रोशनी में पानी की सतह चमचमा रही थी। जैसे किरणें सूरज से होती ही गंगा की आत्मा में पैठ रही हो और गंगा उसकी आभा में स्नेह, स्वप्न मग्न...। दो पानी पक्षी कहीं से उड़ते हुए आए, किर्र किर्र किर्रर... करते हुए पानी में चोंच मारा, पानी और सूरज दोनों लेकर उड़ गए।’’ (पृष्ठ 13)
                अब यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पक्षी रुम्पा और अमित हैं, पानी जीवन-रस या प्रेम है जिससे सूरज की रोशनी भी मुलायम बन गई है और सूरज बेहतर भविष्य का सपना। रुम्पा और नदी का रूपक इस खूबसूरत कहानी का प्राण है। रुम्पा की जिजीविषा और उसके स्वतंत्र निर्णय को देख बशीर बद्र का यह शेर याद आ जाता है -
                ‘‘हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
                जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा’’

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डाॅ. रेणु व्यास, ए-85-बी, शिवशक्ति नगर, मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर, मोबाइल – 9413887224


Friday, November 25, 2016




दिन जो पखेरु होते

--गीताश्री


दशहरा के नितांत निचाट से दिन में बचपन की बात ! न कोई उत्साह न ध्यान कि माँ और भाभी के आज खोइंछा भरने के दिन.  चावल, दूब, हल्दी की गाँठ, बताशे और कुछ पैसे डालेंगी. विदा से पहले की रस्म ! दुर्गा की आंख कल रात खुल गई होगी. सब पंडाल में एकत्र कि आँख खुले तो देवी की पहली नज़र उन पर पड़े. मुझ पर सालों पड़ती रही है. अष्टमी की रात भीड़ में सबसे आगे. वे आँखें नहीं भूलतीं. सबको लगता कि आँखें उनको ही देख रही हैं. निहाल सब ! देवी की विदाई होगी तो औरतें खोइंछा देंगी.यह प्रथा अब ख़त्म है, जीवन में. मगर देवी दुर्गा बिना लिए विदा न होंगी. पानी उनका ससुराल. मुझे याद है कि मैने उत्सुकतावश माय से पूछा था कि दुर्गा के पति कौन? किससे शादी हुई? कहावतों और क़िस्सों की खान मेरी माय का जवाब-
" दुर्गा इतनी शक्तिशाली थीं कि उनके ज़ोर का देवता पूरे ब्रम्हाण्ड में नहीं मिला. अब स्त्री बिना ब्याही कैसे रहे? तो दुर्गा जी के हाथ में लंबा तीरनुमा भाला है, उसी की नोंक से अपनी माँग खुद भर ली."

ससुराल कहाँ ? कोई भुवन नहीं. जलसमाधि लेंगी.
भंसा दी जाएँगी. मुझसे बस यही दृश्य नहीं देखा जाता. कोई भी मूर्ति भंसावन नहीं देख पाती मैं.
महानगरी जीवन ने दशहरे का आनंद छीन लिया. पिछले दशहरे में अपने शहर में थी. अष्टमी नवमी वहीं. पंडाल में भी गई. लेकिन....
कहीं कुछ स्फुरन न हुआ. रस का संचार नहीं. क्या वयस्कता रस भंग कर देती है या दूरियाँ तटस्थ !
आँखें मुझे देख रही थीं और मैं पंडाल की भीड़ से त्रस्त !
जीवन का आनंद बच्चा होने और बच्चा बने रहने में है, बड़े होने में नहीं.
अब अहसास होता है जब हम बड़े हो गए हैं उन चमकीले दिनों को याद कर रहे.
दिल्ली में उनींदे बचपन की याद कर रही हूँ और चिंहुक रही हूँ बार बार. गगन गिल की किताब है दिल्ली में उनींदे. जब भी दिल्ली में उनींदे फिरती हूँ, याद आती है... किताबें. लोग और एक मीठी नींद जो बेफ़िक्र दिनों की धरोहर होती है. बचपन की स्मृतियों में डूबते हुए गहरा आनंद आ रहा. संपादक जी ने स्मृतियों के गहरे तालाब में छपाक से फेंक दिया है. उनींदी सी कहीं जा रही हूँ...किसी यात्रा पर...स्मृतियों का बोझ लिए. पलकों पर कुछ रंग दे गई हैं तितलियाँ. ऊँगलियों में उनके पंख हमेशा छोड जाते थे कुछ रंग. फूल से चुराए और उड़ाए रंग.
 कितने चमकीले थे वे दिन जो याद आते ही मीठी नींद भर रहे ...!

नींद वैसे ही जरुरी आँखों के लिए जैसे कंठ के लिए पानी और कानों के लिए सुरीली पुकार...!
कुछ सखी सहेलियाँ पुकार रही हैं. कुछ हमउम्र लड़के भी जो मेरे साथ खेल कूद और शरारतों का हिस्सा थे. गली में कंचे खेले जा रहे हैं, गुल्ली डंडा और पिट्टो खेला जा रहा है...
काँच की चूड़ियों के टुकड़े तलाशे जा रहे, गुप्त स्थानों पर लकीरें खींच कर छिपाई जा रही है, उसे ढूँढना और काटते जाना है. आइस पाइस खेलते हुए पूरी ज़मीन नाप रही हूँ और आकाश बाँहों में भर रही हूँ. गुड़ियों के लिए घर बना रही हूँ, ईंटें जोड़ कर. घरौंदा बनाने का मन है पर हमें अनुमति नहीं. दूसरी सहेलियों के घरों की छतों पर घरौंदे बन रहे जिनमें हम अपनी गुड़िया का बसेरा बनाएँगे. गुड़ियाओं को भी घर चाहिए. फिर मैं घर के बाहर दीवार से सटा एक छोटा सा घर बना ही लेती हूँ. हम घरौंदा क्यों नहीं बनाते ? दीवाली पर पूरी दुनिया बनाती है, हम क्यो नहीं? ललक होती थी अपने हाथों मिट्टी और रंग से लीपपोत कर छोटा सा घर बनाऊँ. बाहर सजाऊँ. पर हमें हर बार मना.  मैं तड़प जाती कि क्यों नहीं ? ज़िद कर बैठी. फिर माई ने बताया कि अपशकुन होगा. वर्जित है. दीवाली के आसपास ही मेरे चचेरे भाई की हत्या हुई थी, प्रेम का मामला था. मान्यता है कि किसी उत्सव के दिन या आसपास कुछ बुरा घटे तो वे दिन अछूत हो जाते हैं उत्सव के लिए. घरौंदा दीवाली से एक दो दिन पहले बनाते थे. उन्हीं दिनों घटना घटी होगी और उसके बाद हम बहनों ने घरौंदे नहीं बनाए. तरस बची रही.
हाँ तो मैं यहाँ थी कि गुड़िया के लिए घर बनाया. अब घर बना तो अकेली औरत उसमें कैसे रहेगी ? तब सिंगल वीमेन की न अवधारणा थी न हम इस तरह सोचने के क़ाबिल थे. सो सहेलियों ने मिल कर मेरी गुड़िया के ब्याह  की योजना बनवाई.
जैसे होती है शादियाँ. शाम को वैसे ही बारात आई, बच्चों की तीन पहिया साइकिल पर. मिकी मेरी दोस्त की गुड्डी और मेरा गुड्डी . बारात में शामिल सारे मोहल्ले के बच्चे. मिकी की भाभी ने इतनी कृपा की कि बारातियों को पूरी सब्ज़ी खिलाई और हम गुड़िया को विदा कराके घर ले आए. घर बसाने की ज़िम्मेदारी मेरी. सो वही किया. घरौंदा बना नहीं सकती थी. घर के बाहर ईंटें जोड़ कर घर बनाया और ईंटों के ही दरवाज़े. नवदंपति के सोने के लिए पलंग का इंतज़ाम करना जरुरी था सो बाबूजी के टेबल से लकड़ी का पेन और पैड स्टैंड उठा लाई चुपके से जो चौड़ा था. छोटे पलंग की तरह दिखता था.
घर के अंदर बेड सजाए. दर्जियो के मोहल्ले से रंगीन कपड़ों की कतरने चुन कर लाई थी, उन्हें चादर और गद्दे की तरह यूज किया. दोनों का गृह प्रवेश हो गया. सारे बाराती लौट गए अपने अपने घरों में. मैं सुख में कि हमारे गुड्डे का परिवार बस गया.
सुबह जगते ही हम भागे गुड्डा घर की तरफ !
दुल्हन गुड़िया की अगले दिन पग फेरी होनी थी. मिकी आने वाली थी दोनों को लिवा ले जाने.
"ये क्या ? " घर तो खुला पड़ा था. दरवाज़ा ध्वस्त. घर ध्वस्त. ईंटें बिखरी हुई थीं इधर उधर. मानों भूचाल आया हो. गुड्डा गुड्डियाँ ग़ायब ! मेरा रोना निकल आया. पड़ोस में रहने वाली मेरी बेस्ट सहेली सीमा मेरा चीख़ना चिल्लाना सुन कर दौड़ी आई...

बात मिकी तक गई. मिकी बस सड़क पार सामने ही रहती थी. धनाढ़्य मारवाड़ी परिवार की लड़की थी. आज अभी होगी कहीं...
थोड़ी देर में हमारी मंडली जुट गई. हमने तलाश शुरु की. इतनी रात को कौन यह शरारत कर सकता है? कुछ समझ नहीं आ रहा था किसी को. कितनी हँसी ख़ुशी बारात निकली थी. मिकी की उदार और ख़ुशदिल भाभी ने शादी के गाने भी गाए थे बन्ना बन्नी वाले. कौन कर सकता है ऐसी दुष्टता ? किससे पूछे ? हम इधर उधर जंगल झाड़ियों में घुसे ! दूर नाले के पास गए. झाड़ियों में लटका अटका गुड्डा मिला. नुचा हुआ. शरीर से दुल्हे के कपड़े ग़ायब. गुड़िया की खोज जारी थी. मिकी दहाड़ने लगी--"मेरी गुड़िया खोज कर लाओ, हमें नहीं रखना यह संबंध. शादी तोड़ दो. तलाक़ कर लो....! "
सीमा ने अंतत गुड़िया खोज निकाली , धूल धूसरित. मिकी ने गुड़िया समेटी और लगभग रिश्ता तोड़ते हुए दफ़ा हो गई.
उसके बाद कई दिन तक हमारे बीच अबोला रहा. मैं गुड्डा लेकर बेबस सी बाहर घूमती और सड़क पार मिकी गुड़िया हिला हिला कर दिखाती और चिढ़ाती ! मेरा गुड्डा अकेला रह गया था.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह काम किसने किया ? पूरी बच्चा पार्टी पता करने में लगी थी और नतीजे तक नहीं पहुँच पाती थी.
गर्मी की उमस भरी शाम थी और हम सब बाहर चारपाई डाल कर बैठे थे. दूर कहीं से " हुंआ हुंआ" की आवाज़ आ रही थी. डरावनी आवाज़ थी.
पड़ोसन चाची ने बताया कि रात को घूमते घामते सियारों के झुंड  इधर आते हैं और छोटे बच्चों पर आक्रमण करके उठा ले जाते हैं. लगता है गुड्डे गुड़िया को मनुष्य का बच्चा समझ कर उठा ले गए होंगे. बाद में समझ आया होगा तो झाड़ियों में छोड गए होंगे.
उस शाम के बाद हर रात सपने में भी हुआं हुआं सुनाई देता और मैं चिंहुक कर उठ जाती. गर्मी की रातें आँगन में सोते सोते कटतीं. सो नींद खुलती फिर डर कर आँख बंद कर लेती.
फिर एक दिन सीमा के साथ मैं दर्जियो के मोहल्ले गई , जहाँ कपड़े की बनी बनाई गुड़ियाएं मिलती थीं. मैने कपड़े के टुकड़े चुने और खुद अपने हाथो गुड़िया बनाई. अपना नक़ली मोतियों का माला तोड़ कर उसके गहने बनाए. अनगढ़ ही सही पर गुड़िया बना कर गुड्डे का अकेलापन दूर कर दिया.
मिकी दोस्ती करना चाहती थी. हमने कर ली पर गुड्डे गुड़िया का संबंध बीच में नहीं आने दिया.
इन्हीं दिनों बालमन ने रिश्तों का महत्व समझा और घर का भी , जो आजतक मन से न गया. दोनों बचाए जाने कितने जरुरी कि सियारों की टोली भी ढाह न पाए.
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मेरे बचपन के सुनहरे दिन गोपालगंज में बीते. सो सबसे ज़्यादा सुनहरी यादें वहीं की. सखियाँ वहीं ज़्यादा मिली. बाद के शहरों क़स्बे में लड़के ज़्यादा दोस्त बने. लड़कियाँ कम मिली. मैं दोनों में समान अभाव से एडजस्ट हो जाती थी. अब बात फूलो की. फूल वाले भोर की.
हम लड़कियों की टोली रोज़ सुबह फूल लोढने जाती थी डलिया लेकर. गोपालगंज छोटा सा शहर है. हम फूल लोढने में इतने उस्ताद कि चहारदीवारी फाँद कर फूल तोड़ लाते. कई बार घरवाले दौड़ाते और हम फुर्र. एक रोज़ किसी के प्रांगण में घुस गए. अक्टूबर का महीना था. नवरात्रि के दिनों में माँ को बहुत फूल चाहिए थे पूजा के लिए. डलिया भर फूल लाना जरुरी था नहीं तो टोली की लड़कियाँ भी चिढ़ातीं कि फूल नहीं तोड़ पाई. सो डलिया भरा होना जरुरी. फूल लोढने का जुनून हमें दूसरे मोहल्ले तक ले जाता और रोज़ वहाँ से कांड करते करते बचते आते घर तक.
उस भोर हरसिंगार का भरा पूरा पेड़ दिखा. फांद गयी दीवार और हरसिंगार के घने पेड़ के नीचे उसकी ख़ुशबू में पागल. पेड़ को खूब हिलाते रहे, हरसिंगार झड़ते रहे...! दीवार की उस तरफ से सीमा फुसफुसाती रही कि भाग आ...
मैं मग्न ! हरसिंगार झर रहे थे मेरे ऊपर...,मेरी पूरी देह भर रही थी फूलो से....! ख़ुशबू से तर थी मैं. कोई बाहरी आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी. दरवाज़ा खुला और बूढ़े अंकल बाहर ! चश्मे के अंदर से मिचमिचाती आँखें मुझे घूर रही थीं. फिर क्या होता, कल्पना कर लें. अंकल ने कान पकड़े पकड़े मुझे घर पहुँचा कर खरी खोटी सुनाई. वे बच्चों के फूल लोढने की आदत से आजिज़ आ चुके थे. उनके पौधों में कोई फूल बचता ही नहीं था . वे ताक में थे और पकड़ी गई मैं. हरसिंगार के प्रेम ने मुझे पकड़वा दिया. इसके बाद मुझ पर दो असर हुए. माँ ने मालिन को फूल लाने का काम सौंपा और मैं हरसिंगार बोती रही ज़मीन से लेकर ख़यालों तक में. आज भी जहाँ तहाँ मेरे लगाए हरसिंगार मिल जाएँगे जिसके नीचे कोई बच्ची उसकी गंध में वहीं खड़ी होगी, उसके ऊपर झर रहे होंगे हरसिंगार. इससे बाहर वह आना ही नहीं चाहती.

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कितने क़िस्से कितनी यादें. दिलचस्प किताब बन सकती है. खुद ही हैरान होती हूँ सोच सोच के कि ये सब मैं करती थी ? कितने रंग थे जीवन में. कई बार बदरंग मौसम में वे रंग उदास नहीं होने देते.
मिकी की याद आती है. वह थोड़ी नकचढी लेकिन यारबाश थी. हमारे ग्रुप में सबसे अधिक पैसेवाली. हमें ख़र्च करने को सीमित पैसे मिलते थे और वह जितना चाहे उठा लाती थी. फिर हम तीन सहेलियाँ मिकी, किरण और मैं गर्ल्स स्कूल से टिफ़िन के बाद भाग जाते थे और दिन भर शहर के मिंज स्टेडियम के पास उसके पैसे से छोले चाट खाते, इमली के बगानो में चले जाते, इमली तोड़ते, ढेला मार मार के या खेलते रहते. हमें छुट्टी के समय का अंदाज़ा रहता. स्कूल घर से थोड़ी दूर था. सीधी सड़क आती थी. हम बीच सड़क पर आते और लड़कियों की भीड़ में मिल जाते. घर लौटते मानो दिन भर पढ़ाई करके थक गए हों. घरवाले समझते कि बच्चियाँ थकी हारी आई हैं. शाम की हमारी ख़ातिर होने लगती और हमें भूख ही नहीं. दिन भर मिकी के पैसे से चाट खा कर हम अघाए होते. माँ समझती कि हमें भूख कम लगने लगी है. वे चिंतित दिखती. हालाँकि मेरी सेहत पर कोई असर नहीं दिखा उन्हें.
लेकिन हर भांडा एक दिन फूटता ही है. इसे भी फूटना था. मेरे स्कूल के बग़ल में ही मंझली दीदी का गर्ल्स हाई स्कूल था. वे कभी कभार छुट्टी के समय मिल जाती थीं अपनी सहेलियों के संग. एक दिन उनकी छुट्टी जल्दी हो गई होगी. वे हमारे गेट के पास रुक कर मेरे निकलने का वेट करने लगीं. सोचा होगा कि साथ लेती जाऊँ. उस ज़माने में कोई बस नहीं चलती थी स्कूल की. हम सबको दूर दूर तक पैदल ही चल कर जाना होता था. मेरी सहेली सीमा सरस्वती एकेडमी में पढ़ती थी और स्कूल के बंद रिक्शे में जाया करती थी. उसको देख कर मैं तरसती पर उस वक़्त समझ नहीं पाई कि मैं इस स्कूल में क्यों नहीं पढ सकती. इंग्लिश मीडियम स्कूल था. महँगा होगा, मेरा छोटा भाई राजू उसमें पढ़ता था.
हाँ तो मंझली दीदी रुकी रहीं. लड़कियाँ सारी निकल गईं. हमीं तीनों उन्हें न दिखे. वे परेशान. गार्ड से पूछा. कुछ पता न चला. वे आशंकित घर लौटीं. उनके आगे आगे हम भी मिल गए. लौटते हुए. इसके आगे की कल्पना आसानी से की जा सकती है. उसके बाद क्या हुआ होगा. मिकी के पैसे आने बंद और हमारी जीभ पर ताला. चाट के लाले पड़ गए. टिफ़िन में स्कूल से निकलना बंद. बाबूजी ने स्कूल की प्रिंसिपल "झलकती राय " को बुलाया और हम सख़्त क़ैद में. हम बच्चे उनको "झलकती दुनिया " कहते. हमें लगता कि  स्कूल में उनकी आँखें हमीं तीनों को घूरती रहतीं. हमें लगता कि हम झलकती दुनिया के बाशिंदे बन गए हैं जहाँ से भागना संभव नहीं. सच है कि स्कूली पढ़ाई में बहुत मन नहीं लगता था सो हम टिफ़िन के बाद का समय पीछे बैठ कर चंपक, चंदा मामा पढने में बिताने लगे. मिकी कॉमिक्स लाती. हम उन्हें पढ़कर जादूगर मेंड्रेक और फैंटम के साथ काल्पनिक लोक में चले जाते. कुछ कुछ लिखने की आदत पड़ने लगी थी. पढे और सुने गए क़िस्सों को अपनी कॉपी में अपने अंदाज में लिखती.
बाद में शहर बदला. नयी जगह आई. वहाँ लड़के ज़्यादा थे. उन्हीं की संगत होती. अब खेल का रुप बदल गया था. गुड्डे गुड़िया पीछे छूटे और हाथों में कंचे, गुल्ली -डंडा, कबड्डी , डाल पात , पिट्टो टाइप खेल आ गए थे. लड़कों की संगत का असर दिखने लगा था. शुक्र है , बचपन के उन दिनों का कि पुरुषों के साथ दोस्ती में सहजता बनी रही . अन्यथा सामंती परिवेश में लड़कों से दोस्ती असंभव कल्पना थी.


जारी....