Friday, July 24, 2020

आर्ट-कॉर्नर


सभ्यता की पुर्नखोज में अर्चना के चित्र

-गीताश्री


समकालीन चितेरी अर्चना सिन्हा के चित्रों से इसी काल में गुजरी हूं। बड़ा गुमान था कि कला पर लिखती हूं और कलाकारो को जानती हूं। पिछले 25 वर्षों से चित्रकारी कर रही अर्चना के चित्रों को कैसे न देख पाई थी। वो छुपी थीं या मैं बेपरवाह थी। दोनों के कदमों में हिचकिचाहट थी। नाम से जानते थे, काम से नहीं। जब काम यानी कला पास आती है तब काल भूल जाते हैं। मैं काल लांघ कर चित्र-यात्रा कर रही हूं।
बरसात की सिंदूरी सांझ में मैं अर्चना के सिंदूरी चित्रों से गुजर रही हूं...और हरेक शय पर उसकी छाप पड़ती जा रही है।
छाप से याद आया...अर्चना छापा कला की कलाकार थीं। सालो तक छापा कला में खूब काम किया, अपना मुकाम हासिल किया, फिर पिछले एक दशक से पेंटिंग की तरफ मुड़ी और तो साथ लाई सिंदूरी रंग। ब्याहता स्त्रियों की पहचान का रंग। उनकी मांग से होते हुए सिंदूर कैनवस पर उपस्थित हो गया, एक पावरफुल प्रतीक के रुप में।  
छापा कला से बहुत से लोग परिचित होंगे। भारत में पुर्तगीज मिशनरियों के लकड़ी के प्रिंटिंग प्रेस के साथ यह कला आई और ब्रिटिश काल में छा गई। भारतीय कलाकारों ने इस माध्यम की संभावनाओं को पहचान कर इसे अपनाया और इससे बड़े बड़े कलाकार जुड़े। आर एन चक्रवर्ती, नन्दलाल बोस, सोमनाथ होर, विनोदबिहारी मुखर्जी, हरेन दास जैसे बड़े नामी कलाकारो के छापा चित्रों ने कला जगत में धूम मचाई। चितेरी अर्चना उसी परंपरा से जुड़ी थीं। छापा कला में सहजता है, जो संप्रेषणीयता है, वो उन्हें आकर्षित करती होगी।
आज बात करेंगे उनकी पेंटिंग्स की। गौर से देखिएगा-
रंग और रुपाकार बहुत कुछ कहते हैं। मूर्तिकार मृणालिनी मुखर्जी अपने चित्रों के बारे में कहती थीं- ये मेरे निजी देवता हैं।
अर्चना की पेंटिंग्स भी उनके निजी देवता की तरह दिखाई देते हैं जिनके लिए वे मंत्रों का पाठ करती दिखाई देती हैं। जिनके लिए वे भारतीय वांग्मय से मंत्रों की खोज करती हैं। चित्रों में सिंदूर को लेकर अनेक प्रयोग किए हैं और चितेरी को भारतीय मिथको में गहरी आस्था दिखाई देती है। जो अपने लोक में गहरे धंसा हो वो जीवन भर अपनी कला में उसकी पुनर्खोज करता है या नये सिरे से अविष्कार भी करता है। कैनवस पर मंत्रों की लिपियां हैं। उसके पारंपरिक रंग हैं। छापा कला में भी वे अपने लोक को चित्रित करती थीं, यहां वे थोड़ा आगे बढ़ कर मंत्रों तक जा पहुंचती हैं। उनकी ताकत पहचानने की कोशिश करती हैं। हो सकता है चित्रकार का मंत्रों पर गहरी आस्था हो।
इतने बड़े आर्थिक, सामाजिक संघर्षों और दबावों के बावजूद यदि कुछ चीजें जिंदा हैं तो यही उसकी शक्ति है। उसी शक्ति की शिनाख्त करती हैं अर्चना।
एक स्त्री जब पेंट करती है तब वह दुनिया को अपने रंग में रंग देना चाहती है। दुनिया का रंग-रुप अपने हिसाब से, अपनी स्वैर कल्पना सरीखा कर देना चाहती है। इनके चित्रों में उस फंतासी को देखा जा सकता है जो मंत्रों की ताकत को खोजने से मिलती है।
मंत्रों पर विश्वास-अविश्वास के वाबजूद भारतीय चेतना में , एक बड़े वर्ग में इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है। सिंदूरी रंग उसी चेतना से निकला हुआ रंग है। यहां एक स्त्री चित्रकार को महसूस कर सकते हैं जो अपने परिवेश से रंग उठा लेती है। ये अनुभव का आवेग है, जिसे दबाया नहीं जा सकता। और अनुभव का आवेग दर्ज होकर रहता है, उसमें झिझक नहीं होती।
अर्चना नालंदा जिले के अपने गांव सरमेरा से चली थीं, पटना की ओर, शहर में बस गईं मगर गांव छूटा नहीं। उनकी चेतना में गांव बसा रहा, आज तक बसा हुआ है, अपनी विभिन्न छवियों के साथ। छापा कला में भी गांव चित्रित होता रहा। एक गंवई लड़की भला कैसे छोड़ सकती है, झुग्गी, झोपड़ी, खेत-खलिहान । अपनी चित्र-भाषा में तलाशती रही गांव। रचती रही वे घर, कच्चे पक्के, धूल भरी पगंडंडियां, जिन्हें पीछे छोड़ आई थी।
भूगोल विषय में अच्छे नंबर लाने वाली अर्चना को गांव का भूगोल कभी भूलता नहीं। बचपन से पढ़ने में मन न लगे। मन तो रमता था दृश्यों को रचने में। जो दृश्य देखें उनकी छाप दिल दिमाग पर छप जाए। बाकी सारे विषय उन्हें अरुचिकर लगते थे। अमृता शेरगिल से प्रभावित अर्चना उन्हीं की तरह अपने परिवेश को चित्रित करना चाहती थी। उसकी चिंताओं से, सरोकारो से कभी दूर नहीं जा पाईं।
गांव की स्मृतियों से निकल कर वे भारतीय मिथको की ओर रुख करती हैं, मंत्रों की ताकत को सिंदूरी रंगों की आभा में ढूंढती हैं। अमूर्तन में एक निरंतर खोज और स्मृतियों का झोंका है यहां।
अर्चना की एक पेंटिग देखते हुए मुझे प्रसिद्ध चित्रकार जे. स्वामीनाथन का एक कथन याद आता है- नयी कला की सबसे बड़ी जरुरत यह है कि कलाकार , कैनवस के सम्मुख उस तरह खड़ा हो, जैसे कि आर्य लोग प्रात:कालीन सूर्य के सामने खड़े होते थे।
एक चित्र में धुंधली-सी आकृति (सेमी आब्सट्रैक्ट) सूर्य के सामने वैसे ही खड़ी है। अर्चना इस सीरीज के चित्रों में आर्य सभ्यता के रहस्यों को खंगालती हैं।

  

 
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Tuesday, September 3, 2019

रचना प्रक्रिया



 ताकि मैं जिंदा रह सकूं...
                                                                        -गीताश्री

किसी आश्चर्यलोक में जाना और अपने भीतर लौट आना- कहानी की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही लगती है मुझे। किन गुफाओं-कंदराओं में कोई जीन छिपा बैठा है, बाहर आना चाहता है पर भय बेडिय़ों की तरह पैरों में पड़ा है...मैं उसे दुलराती हूं, पुचकारती हूं, फिर वह रूप बदलता चला जाता है बाहर रोशनी में आते-आते।
मेरी आंतरिक दुनिया में अंधड़ है। किरदारों के मेले हैं। वे सब जो छूट गए थे, वे सब जो साथ चलते-चलते गुम हो गए थे, वे सब अब दरवाजे खटखटा रहे हैं। मन की सांकल खनखना रही हैं। कुछ अदृश्य हाथ उन्हें उतार रहे हैं। एक मोर्चा फतह करने के बाद जैसे ही चित्त शांत हुआ, दीवार पर सिर टिका कर आराम की मुद्रा में आई कि भीतर से एक हिलोर आई। उसने मुझे हिला दिया। अंधड़ एक आंतरिक शोर में बदल गया था।
रचनात्मकता एक अंधड़ है मेरे लिए। वह मुझे टांग गई है धार पर। रचो या मरो। जो रचेगा, वहीं बचेगा। बाकी सब मरेंगे। हम ना मरिहें, मरिहें संसारा... मैं ऐसे कैसे मरूंगी। मैं घूरेकी आग को कैसे बुझने दूं। वो फिर से चटक गई है भीतर ही भीतर। सजीवन कक्का उदास हैं। उनकी लगाई आग को रचनात्मकता में बदलना होगा। अंधड़ ने खोल दिए जंग लगे सारे दरवाजे, खिड़कियां। भर-भराकर दीवारें गिरीं। मैंने साफ-साफ देखा उन किरदारों को, जो चाहते हैं- उन्हें रचा जाए। नहीं तो वे कह उठेंगे- चलो, मरा जाए। मैं बेचैन होती हूं। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं हुई। प्रेम करते हुए भी नहीं। कुछ रचते हुए भी नहीं। कुछ बोलते हुए भी नहीं। कुछ गुनगुनाते हुए भी नहीं। बेचैनी बढती जा रही है। ऐसी बेचैनी पहले कभी नहीं हुई। प्रेम करते हुए भी नहीं। प्रेम में तो एक खुमारी थी, जो दर्द को लील लेती थी, पर इस बेचैनी में सिर्फ अकेलापन, लगातार अकेले होते जाने की नियति... पात्रों के साथ होने, उनका साथ पाने की छटपटाहट... यथार्थ दुनिया से बाहर... उनके दुख और उनके ही सुर्खो के बीच सांस लेती हूं मैं।

इन दिनों अजीब-सी बेचैनी सुरसुरा रही है रगों में। कुछ भी देखूं, कुछ भी सूनूं, महसूस करूं, मेरा एंटिना खुला रहता है। वह लगातार खबरों की तरह कहानियों का सिगनल पकड़ रहा है। कुछ लोग कहानियों वाले मिलते हैं अपनी कहानियां दे जाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो अव्यक्तसे हैं। मैं इस अव्यक्तको व्यक्तकरने का जरिया भर बन गई हूं। उनकी कहानियां, मेरी स्मृतियां और हम दोनों का वर्तमान, इनका घालमेल मेरी कहानियों में है।
एक  और जहान है उसी जहान की तलाश में मेरी आग चटक रही है। देर हो चुकी है। जहां ढेर सारे मठ-महंत पहले से पालथी मारे बैठे हैं। वहां मैं अब, बहुत देर से प्रवेश कर रही हूं। इस रचनात्मक यात्रा में क्या कभी देर हो सकती है जब उठ चलो तब ही यात्रा शुरू हो गई। मेरी विवशता है कि मुझे रचना है। ये रचना’ (प्रार्थना से बाहर की नायिका) ही है जिसने पहली बार कुंडी खोल दी थीं। रचना जैसी अनगिन स्त्रियां हैं, कुलबुलाती हुई, उन्हें अपनी कहानी खुद कहनी है। मैं माध्यम भर हूं। गांव, कस्बा और छोटे-छोटे शहर भी मेरे जेहन में अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। कुछ का कर्ज है मुझ पर। उन पर लिखना अपने कर्ज से मुक्त हो जाना है। कुछ पर लिखना, अपने फर्ज से मुक्त हो जाना है। शायद मुझे मुक्ति की तलाश है मुझे। उस मुक्ति के लिए चाहिए एक कहानी। एक नायक...और उस नायक से जुड़ी ढेर सारी यादें।
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बचपन की यादें और उनकी कुछ कतरनें इन दिनों कुछ ज्यादा ही जकड़ती हैं। यह जकडऩ सकारात्मक है। मुझे मेरी खोई हुई जमीन पर फिर से वापसी की कवायद है। जहां से मेरे बचपन ने सिर उठाया था, वह जमीन मैं हड़बड़ी के साहित्य यानी पत्रकारिता के धुंधलके में छोड़ आई थी। चकमक-चकमक दुनिया की रोशनी कपड़े की तरह लिपट गई थी पूरे अस्तित्व से।
हजार मील पीछे छूट गई वह ठंडी शाम, जहां घूरा (अलाव) तापते हुए, ओरहा (रहरे चने की झाड़) झोकाड़ते (भूनते) हुए रामसजीवन कक्का राजा-रानी और राजकुमारियों के किस्से नाटकीय तरीके से सुनाते थे। उनमें नाद और बिम्ब का समावेश होता था। कुछ उनके मौलिक होते थे तो कुछ किस्से कहानियों की किताबों से उड़ाए हुए। उसमें भी सजीवन कक्का की मौलिकता झलकती थी।
कस्बों, गांवों में बचपन बीता। थाने में तैनात किसी न किसी चौकीदार की शाम को घर पर ड्ïयूटी लगती थी। वे इधर-उधर से सूखी लकडिय़ां जुटाकर आग जलाते थे। जिसके इर्द-गिर्द सारे बच्चे, बूढ़े आग तापते थे। मैं सजीवन कक्का के पास बैठती थी। उनके पास किस्सों की फैक्ट्री थी जिसे वे शाम को हम बच्चों के सामने खोलते थे और फिर कई तरह के किरदार सामने आ कर खड़े हो जाते थे।
मेरी आंखें कहानियों के किरदारों के साथ चमकतीं और बुझतीं तो सजीवन कक्का ठहाके लगाते। इतना रस था उन कहानियो में कि मैं एक ही कहानी बार-बार सुनाने को कहती। उनकी कई कहानियां याद हो गईं। तब हालत ये हो गई थी कि प्रकृति का हर रंग बदल गया था हमारे लिए और हरेक चीज सीधे किस्सों से जुड़ जाती थी। राजा-रानी के प्रति प्रेम और भूतो का खौफ वहीं से पैदा हुआ। चाहे तोता मैना के किस्से हों, राक्षस की जान तोते वाली कहानी हो या सात राजकुमार और एक बहन राजकुमारी की कहानी हो। अंधेरे तब और गहरा जाते थे जब हम अकेले होते। दरवाजे चरमराते तो लगता कहानियों का कोई पात्र निकल कर चला आ रहा है। वे रोमांच के दिन थे। मन में कहानियों के घर बनाने के दिन थे।
एक बार याद नहीं कैसे एक लंबी नोट बुक मेरे हाथ लगी। तब मैं सातवीं कक्षा में थी। रातभर बैठकर मैंने सजीवन कक्का से सुनी हुई कहानियां नोटबुक में लिख डाली। अगली शाम आग के पास बैठे सजीवन कक्का समेत कई श्रोताओं को मैंने नोटबुक में लिखी कहानी पढकऱ सुना दी। कक्का दंग रह गए। वे ऐसे सुन रहे थे- जैसे पहली बार कहानी सुन रहे हों। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। उसके बाद जब भी वे कोई कहानी सुनाते, मैं नोट कर लेती। सिलसिला चलता रहा... फिर भीतर कुछ हलचल सी हुई। कुछ चमत्कार-सा हुआ। लिखना मेरी नजर में चमत्कार ही है। आश्चर्य लोक से भरी दुनिया, जिसके भीतर जाना और फिर बाहर आना, भीगी-भीगी-सी।
मैंने कुछ कहानियां गढ़ी। सजीवन कक्का मेरे श्रोता होते और मैं नोटबुक में अपनी लिखी कहानियां सुनाती। मैं नोट करती कि आग खूब चटकती थी तो कक्का विहंसते थे। शायद उन्हें अंदाजा था कि उनकी मेहनत किसी के भीतर कोई आग जला रही है। फिर छोटी-मोटी कविताएं भी बनीं और सुनाई गईं। यह सिलसिला तब थमा जब तबादला हो गया। कक्का वही छूट गए। मेरा काफिला बहुत आगे-आगे चलता गया- नोटबुक तबादले में कहीं गुम हो गई। होस्टल का रहन-सहन और कड़े अनुशासन ने बेफिक्री के वे दिन और घूरे से गरमाई हुई ठंडी शामें छीन लीं।
कहानियों के किरदार कहीं गुम हो गए। मैं काल्पनिक दुनिया से यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर खड़ी हो गई थी। इस जमीन ने फिर ढेर सारी कविताएं उगाईं। मैं अपनी छोटी-सी दुनिया में कविता लिखने वाली लडक़ीके नाम से जानी जाती थी। कहानियां कहीं पीछे छूट गईं। एक बार उसका सिरा मिला। कटरामुजफ्फरपुर जिले का एक कस्बा है। वहां एक कामवाली आती थी। उसका नाम था सरगट। गरमी की दोपहरी में वह अपने जीवन की दिलचस्प घटनाएं सुनाया करती थी। बीजू आम को ठंडे पानी की बाल्टी में डूबोती और अपने जीवन को पिचके हुए आम के छिलके से जोड़ती। मुझे उसकी बातें दिलचस्प लगतीं। उसका नाम जरा अटपटा सा था। कभी सुना नहीं। आज तक नहीं सुना।
सरगट’- अजीब सी ध्वनि आती। 40 वर्षीय उसी मरियल सी सरगटने बताया कि उसके इलाके में एक चिडिय़ां पाई जाती है। बेहद मरियल-सी, बेनूर चिडिय़ां। सरगट जब पैदा हुई तो बेहद मरियल और बदशक्ल थी। घरवालों ने प्यारसे उसका नाम उसी चिडिय़ा के नाम पर रख दिया।
मैं बहुत बाद तक उस इलाके में सरगटचिडिय़ों को तलाशती रही, नहीं दिखी। पता नहीं ऐसी कोई चिडिय़ा होती भी है या नहीं। सरगटकी कहानी मैंने होस्टल के दिनों में इसी नाम से लिखी। बदशक्ल होने के कारण सरगट का जीवन कैसे नरक में बदल गया था। इसकी दहला देने वाली दास्तान मुझे भीतर तक हिला गई थी। तभी मुझे लगा कि इस दुनिया में एक स्त्री का सुंदर होना कितना जरूरी होता है। खासकर कस्बाई इलाकों में। अब भले रूपरंग के मायने बदल गए हों। शहरों में स्मार्टनेस और सुंदरता के खांचे अलग-अलग बना दिए गए हैं। गांव-कस्बों में गोरी चमड़ी सुंदरता का पैमाना मानी जाती है पिछड़े इलाकों में आज भी। सरगट की कहानी पता नहीं कहां गई। तब कहां सोचा था कि इस जमीन पर दुबारा जीवन तलाशने आऊंगी। कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी लिए। फंतासी वो जिसे मैं अपने हिसाब से लिख सकूं। यथार्थ वह था- जो मेरे सामने खड़ा हो जाता है। जो मुझसे मुठभेड़ करता है। जो आईना दिखाता है। फंतासी के जादू को छिन्न-भिन्न करता हुआ यथार्थ। यकीनन, मुझे यथार्थ ने पकड़ लिया। जीवन के इस खरे सच से आंखे मिलाते हुए पया कि यही वह राह थी, जिसे मैं मुद्दतों से तलाश रही थी।
जौन लेनन कहते हैं-यथार्थ अदभुत होता है। वह हमारी कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है।
कविता की गीली-गीली जमीन अचानक कहानी की ठोस जमीन में बदल गई है। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि कहानी कैसे लिखने लगी। क्या स्मृतियों ने मुझ पर कब्जा जमा लिया है या धड़धड़ाते हुए आए जा रही हैं। मैं उन्हें समझ रही हूं,  जिन्हें उस वक्त नहीं समझ पाई थी, जब वे मेरे आस-पास थे। पात्रों की इस निरुपायता और घटनाओं की पारदर्शिता से ही शायद कहानी लिखने का आगाज हुआ।
शायद दूरीसमझ बढ़ा देती है। या किसी को तटस्थता से समझा जा सकता है। पूर्वाग्रह हमेशा हमारे पास रहता है। तटस्थता हमसे हमेशा दूर रहती है। पात्र और घटनाओं से ऐसे ही संबंध बने। मेरी कहानियों के कई पात्र बहुत दूर है। कुछ का पता नहीं। कुछ यहीं कहीं आस-पास। कुछ बदल गए है। कुछ अब भी वैसे हैं। रोज घटनाएं घट रही हैं। एक कहानी रोज बन रही है। जिंदगी का रूप एक पल में बदल जाता है। मेरे देखते-देखते भारत इंडिया बन गया। इस उत्तर आधुनिक समय में जीवन को दांव पर लगते देखती हैं। हम क्षणजीवी हो रहे हैं। लम्हों की बात करते हैं। मौज, मजा मस्ती ही मूलमंत्र है। इस नवधनाढय़ वर्ग की त्रासदी कोई क्या जाने। थोड़ा कुछ पाने के लालच में कितना कुछ छूट जाता है।

मैं इसी छूटतेजाने को रचनाओं में पकडऩे की कोशिश करती हूं। मेरे लिए यही अंतिम सत्य है। घटना-परिघटना कहानी नहीं बन सकती, मगर वह आपकी हथेली पर कहानी का एक सिरा छोड़ जाती है; अगर आप पकड़ सके। उसका मतलब समझ सके तो पार हो गए। मैं उन संकेतों को पकड़ती हूं। जब मेरी कहानियों की स्त्रियां वाचाल दिखाती है, तब उनकी इस वाचालता की तह में जाना जरूरी है। (चिडिय़ाएं जब ज्यादा चहचहाती है तो यह न समझिए कि वे उत्सव मना रही हैं। वे यातना में होती हैं। शायद उन्होंने किसी भयानक जानवर को देख लिया है। उनकी चहचहाहट में छिपी मौन यातना के अवशेषोंको रेखांकित करने की कोशिशें भी कहानियां बन जाती है।)
मेरी नजर में जो कुछ भी घट रहा है, वो व्यर्थ नहीं है। मुझे उसके पार चीजें दिखाई देती हैं। पता नहीं लोग मेरी इस दृष्टिको क्या कहेंगे, लेकिन मुझे चीजों को भेदने की शक्ति शायद अपने पेशे पत्रकारिता से मिली है। पत्रकारिता के अनुभवों का खासा योगदान है रचने की इस प्रक्रिया में।
पेशेवर जिंदगी में जो भी अनुभव मिले सब इसी की देन है। किसी भी सामान्य मनुष्य से ज्यादा देखा, समझा और गौर किया। मेरे लिए प्रकृति और जीवन में घट रही हर घटना का महत्व है। जो दिख रही है। वो खबर नहीं है जो छिपाई जा रही है, वो खबर है। हम अपने पेशे में जीवन भर उसी छिपीहुई खबर को तलाशते हैं। बाजार की भाषा में आप स्कूपभी कह सकते है। मुझे लगता है, मैं साहित्य में भी रहस्यात्मकता की खोज में हूं। जो छिपीहुई चीज। यही मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू है। यहीं से विचार उठते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मार्खेज की रचनाओं का प्रारंभ हमेशा एक दृश्य से होता है। वे कोई दृश्य देखते हैं और यही उनकी रचना का प्रस्थान बिंदू बन जाता है लेकिन क्या जहां से कोई प्रस्थान करता है वो जगह किसी के लिए मंजिल भी तो हो सकती है। मंजिल अक्सर रास्ता मांगते हैं। रास्ते यादों से भी निकलते हैं। रास्ते अनुभवों से निकलते हैं। रास्ते आदर्श से भी निकलते हैं।
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मेरे आसपास कई लोग ऐसे हैं जिनकी जिंदगी मुझे प्रभावित करती है। अच्छी या बुरी। उन जिंदगियों में मुझे रास्ते की तलाश है लेकिन मूल्यों के मापदंड हमेशा उन रास्तों को गजों,मीलों और किलोमीटर में मापकर सबकुछ गड्ड-मड्ड कर देते हैं। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मूल्यों के बीच पीसती हुई स्त्रियां खुद कहानी बनती जा रही हैं। मुक्ति के लिए छटपटाती हुई स्त्रियों का विलाप शायद मुझे ज्यादा साफ सुनाई देता है। वर्जनाओं के प्रति उनकी नफरत का अहसास मुझे ज्यादा होता है। रिश्तों के जाल में उलझीं, सुरक्षा और सुविधाओं के नाम पर उम्रकैद की सजायाप्त औरतें मेरी चिंता का विषय हैं। हाशिए पर रखी गई कौम की खोखली उपलब्धियां झनझना रही हैं। दुनिया छोटी हुई, जो शोषण के तंत्र उजागर हुए। इससे जूझती हुई स्त्रियों ने विचारों की शक्ल में मुझे घेर लिया है। शायद मैं दूसरी औरतो के बहाने अपने दिल के गिरह खोल रही हूं। इसे कुंठा का नाम नहीं दिया जा सकता। कवि लीलाधर मंडलोई की पंक्तियां उधार लेते हुए कहती हूं- जिंदगी में दाखिल होने की मेरी कोशिश है मेरी कहानियां।
इसीलिए अपने समय में झांकने और कई बार उसके आगे झांकने का दुस्साहसिक सपना देखती हूं। पुरुष वर्चस्ववादी सत्ता की परतें उधेडऩा चाहती हूं। घोर नैराश्य की स्थिति में भी एक जिद की तरह..।
कई बार मुझे लगता है कि कहानी हमेशा एकपक्षीय होती है और उपन्यास बहुपक्षीय। एकपक्षीय को बरतना ज्यादा आसान होता है। मेरी कहानी किसी एक पक्ष के गिरह ज्यादा खोलती है। कई बार ये अन्याय सा लगता है। इसके लिए मुझे बहुपक्षीय दुनिया में जाना होगा। नहीं तो एकपक्षीय दुखों और तकलीफों का एकालाप बन कर रह जाएगी मेरी रचनाएं। एकपक्षीय तकलीफें भी इतनी हैं कि उनका खुलासा सामाजिक ढांचे को उजागर कर सकता है।
मेरी कहानियों में एक तरह की हड़बड़ी दिखाई देती है। मेरे दोस्त मुझे गालियां देते हैं, कोसते हैं कि तुम अपनी कहानियों में इतनी हड़बड़ी में क्यों दिखाई देती है। अंत तक पहुंचने की ऐसी क्या जल्दी है कि समयको लांघ जाती हो।
मेरी नायिकाओं में भी वहीं हड़बड़ी, वही पलायन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एक दोस्त ने कहा कि तुम्हारी नायिकाएं क्या हमेशा भागती ही रहेंगी? कहीं डट कर उन्हें मुकाबला करने दो। वे सच कहते हैं। मेरी बौखलाहट, मेरा गुस्सा, आक्रोश बहुत ज्यादा है पर शायद बचपन में की गई संस्कारों की बुवाई भी जबर्दस्त है। इस द्वंद्व में कहानी की नायिकाएं  समयके अंधेरे से घबरा-घबरा कर भाग जाती हैं। लेकिन दोस्त या भागने कहां देते हैं। मेरी कहानियों के पहले पाठक समयके अंधेरे से जूझने का हौसला देते हैं। वे स्मृतियों के अंधे कुएं में ढकेल देते हैं। मैं छटपटाती हुई तह में जाने की कोशिश करती हूं। क्या इसीलिए मैं लगातार कहानी लिख रही हूं कि मैं समय से इस मुठभेड़ में एक दिन जीतकर दिखाऊंगी, एक दिन समय की पीठ पर धौल लगा ही दूंगी? इसीलिए मैं नायक पूजकदेश में कथित तौर पर अराजक नायिकाओं का गढ़ बना रही हूं जो धीरे-धीरे चीजें बदलने का इंतजार नहीं करती। वे तोड़ फोड़ मचाती हुई सामने आती हैं। यह अलग तरह की दृष्टि है। स्त्री-दृष्टिउम्मीदों और आकांक्षाओं को उनके निर्वासन से वापस लाने पर आमादा स्त्री-दृष्टिजीवन मूल्यों से टकराती, मुठभेड़ करती स्त्री-दृष्टि’, नैतिकता के नाम पर पाखंडियों के मंसूबे को तार-तार करती हुई।



मैं और मेरे पात्र



कंदराओं में सोई हुई आत्माओं के लिए नहीं है मेरी कहानियां
--गीताश्री

मेरी कहानियों के किरदार वैसे तो वास्तविक जिंदगी से आते हैं...वे लोग जिन्हें रोज अपने आसपास देखते हैं। जिनके साथ साथ चलते है, सांसे लेते हैं, हंसते रोते हैं..कभी कभी दूर से देखते हैं, तटस्थता से। कुछ वे लोग जो आपकी जिंदगी को झकझोर देते हैं। सन्न कर देते हैं। किसी किसी की जिंदगी इतनी औपन्यासिक होती है कि भ्रम होने लगता है, किताब जी उठी है या जिंदगी किताब बन गई थी। मैं यथार्थ को ज्यों का त्यों उठाती जरुर हूं लेकिन उन्हें वैसा बिल्कुल नहीं परोसती। आप वैसे परोस भी नहीं सकते। जौन लेनन के शब्दो में कहें तो यथार्थ अदभुत होता है। वह हमारी कल्पना के लिए बहुत गुंजाइश छोड़ जाता है। उस यथार्थ की कल्पनाशीलता मेरे भीतरी दुनिया की संपन्नता से निकलती है। एलिजाबेथ बेरेट ब्राउनिंग प्रेम के बारे में जो कहती हैं वहीं मैं अपनी कल्पना के बारे में कहती हूं कि..जितनी ऊंचाई, गहराई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं कल्पना करती हूं, मेरी कल्पनाशीलता जाती है...प्रेम की उस ऊंचाई तक। बहुत महान बात नहीं कह रही हूं।    

ये मेरा सच है, मेरी रचनाशीलता का सच है, मेरे पात्रों का सच है..जिन्हें मैं वैसे गढती हूं जैसी गढने की मैं ईश्वर से अपेक्षा कई बार रखती और कई बार नहीं रखती हूं।
मेरे सामने कुछ भी घटित होता है, मुझे उसमें एक विचार दिखाई देते हैं। विचार का सूत्र पकड़ कर मैं पात्रों के साथ साथ आगे बढती हूं। मैं वीडियो गेम की उस योद्धा की तरह होती हूं जिसे रास्ते में लड़ते भिड़ते अपनी कार को स्पीड में चलाना होता है। चाहे रास्ते में जितनी बाधाएं आएं। यू कहूं तो मार्खेज की तरह कोई एक छोटा-सा दृश्य भी मेरी रचना का प्रस्थान बिंदू बन सकता है। मैं मार्खेज की जबरदस्त फैन हूं। उनकी रचनाओं के साथ साथ उनकी मान्यताओं को लेकर, जो शायद मुझे बेहद सूट करती हैं।
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कल्पना यथार्थ पैदा करने का एक साधन मात्र होती है। और अन्त्तत सृजन का उत्स हमेशा यथार्थ से ही होता है। मार्खेज अपने बारे में दावा करते थे कि मेरे उपन्यासों में एक भी पंक्ति आपको ऐसी नही मिलगी जो वास्तविकता पर आधारित न हो। मैं तो अभी रचने के दौर में हूं, अभी तक के आधार पर यह दावा मेरा भी है। शायद अंतिम दौर में भी यही होगा।

मेरे कुछ पात्र मेरी स्मृतियो की सुरंग में छिपे हैं। वहां की जब जब मैने अदृश्य यात्राएं की, वे वहां से बाहर आए। कल्पना ने उनमें रंग भरे और पंख दिए। मेरी स्मृतियां मेरे लिए ऊर्वर प्रदेश का काम करती हैं। वह मेरी भोगी और भागी हुई दुनिया का हिस्सा है।  
सिर्फ कल्पनालोक का सहारा लेकर आप कोई महान किरदार नहीं रच सकते। आपको बार बार यथार्थ की यात्रा करनी होगी। उसके पास जाना होगा। जैसे मैं जाती हूं..मैं यात्राओं में होती हूं, मैं बाजार में होती हूं, मैं पार्टी में होती हूं, मैं जहां भी हूं..कहीं कुछ घट रहा होता है, कहीं कोई कह रहा होता है..ये सारी चीजें दिमाग में फ्रिज हो जाती हैं। पात्र आते हैं, आकार लेते हैं, और दर्ज हो जाते हैं। और अगर एक बार रच दूं तो हेमिंग्वे की तरह मेरी रुचि उनमें खत्म हो जाती है।
मैं रच देने के बाद किसी पात्र से कोई लगाव नहीं रखती। उसे छोड़ देती हूं. उसे मुक्त कर देती हूं। आप मेरी कहानियों में एक बात गौर करेंगे कि महिला पात्र केंद्र में हैं और रहेंगी। मैं मौन को मुखर करने की हिमायती हूं। सो उनकी आवाज बन रही हूं। मेरी नायिकाएं कायर नहीं है, कमजोर नहीं है, लाचार हैं। उनके सामने वे सारे सवाल खड़े हैं जो जिंदगी में किसी भी महिला के सामने खड़े होते हैं। बाद में ये सारे सवाल विमर्श में बदल जाते हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री जहां खड़ी है वह जगह बेहद भयावह है, आज भी. विनर है तो भी लूजर है तो भी। जिस संकट के दौर से स्त्री अस्मिता आज गुजर रही है, उसे चिन्हित करने का काम कर रही हूं। मैं अपनी तपती ऊंगली रख रही हूं, कोई झुलस जाए तो मैं क्या करुं ? मैं असूर्यमपश्या महिलाओं को बाहर ला रही हूं। भले आपकी नजर में वे अश्लील लगें। मैं एसे निंदको की परवाह नहीं करती। मेरे प्रिय लेखक खलील जिब्रान की एक कहानी “ तूफान याद आती है जिसमें एक किरदार कहता है- कई मनुष्य ऐसे हैं जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किंतु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता है जैसे सड़ती हुई दलदल। कई एसे होते हैं जो अपने सिरो को पर्वत की चोटी से भी ऊपर उठाए चलते हैं किंतु उनकी आत्माएं कंदराओं के अंधकार में सोयी पड़ी रहती हैं...

मेरी सभी पात्र प्रार्थना के बाहर( हंस) की रचना हो या प्रार्थना, “उर्फ देवी जी( इंडिया न्यूज) की लाली यानी दिशा हो या खुद देवी जी, “इंद्रधुनष के पार(हंस) की आंचल हो या आशा,  “उदास पानी ( इंडिया टुडे) की सोनल हो या दो पन्नों की औरत(निकट) की आसावरी हो या चौपाल (नया ज्ञानोदय) की शिवांगी हो या मलाई (अणुक्षण) की सुरीली या मेकिंग औफ बबीता सोलंकी (कथादेश) की बबीता या सी यू (हंस) की सुषमा या कोन्हारा घाट(परिकथा) की बुढ़िया फुआ। सब बगावती, विद्रोही। मेरी सभी नायिकाएं ऐसे मनुष्यों की परवाह नही करती जिनकी आत्माएं कंदराओं में सोई पड़ी हों। जो छेड़ भर देने से हाहाकार कर उठते हैं।
जो कहानी में भी में स्त्री का नग्न होना सहन नहीं कर पाते।

मेरी सभी नायिकाएं मुझे पसंद है..खासकर आंचल जो ऐसी आत्माओं का इलाज अच्छे से करती है। जहां कहानी खत्म होती है वहां उसका काम खत्म नहीं होता। वह उसके मुक्ति अभियान का पहला चरण है। उसके बाद की चीजें पाठको के दिमाग में जब घटती है तो वे बिलबिला उठे और पत्थर दे मारा मेरे ऊपर। इससे मेरी नायिकाएं डरने वाली नहीं हैं। वे कोई  सोशलाइट (सामाजिकाएं) नहीं है कि अनचाहे आसूं की तरह इधर उधर लुढक जाएं। 
सारी नायिकाएं अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती हैं। कुछ शहरी हैं तो कुछ गांवो कस्बो से आई हैं। रचना छोटे शहर से आई है उसे शहरी मूल्य परेशान करते हैं। उसकी मुठभेड़ जब प्रार्थना से होती है तो उसके होश उड़ जाते हैं। मूल्य बोध से टकराती हुई नायिकाएं मुझे पसंद हैं। नैतिकता की धज्जी उड़ाती हुई स्त्रियां मुझे पसंद है। आंचलमुझे औरो की तुलना में ज्यादा पसंद है क्योकि उसका साहस अनूठा है। किसी भी स्त्री के लिए अचंभे की तरह। वह जिस तरह ड्रेसकोड के खिलाफ खड़ी होती है वह देखने लायक है। जब मेरी नायिका नैतिकता के पाखंडियों से टकरा रही होती हैं ठीक उसी वक्त देश में महिलाएं ड्रेसकोड के खिलाफ स्लटवाक करती हैं। एक स्त्री का साहस दुनिया भर की महिलाओं के एक खास आंदोलन से कैसे जुड़ता है, ये देखिए। गांव से शहर में आई एक लड़की का शहरी मोह भंग भी इस कहानी के पीछे है। अपना चुना हुआ आकाश भी उसके लिए एक धोखा साबित होता है।    
    -मर्दो की बनाई हुई दुनिया में एक आजाद औरत वैसे भी एक चुनौती से कम नहीं होती। मेरी हर महिला पात्र एक चुनौती की तरह है। जीत कर भी, हार कर भी.पाकर भी, खोकर भी। वह अपने हिस्से का सुख ले ही लेती है। अपनी शर्तो पर जिदंगी जी ही लेती है। ये जिंदगी कुछ पल की भी हो सकती है। इंद्रधनुष के पार की नायिका आंचल बहुत चैलेंजिंग हैं मेरे लिए। समाज के लिए भी। इस कहानी के हंस में छपने के बाद मैंने और संपादक राजेन्द्र यादव जी ने कितनी गालियां सुनी हैं, इसकी सबूत वहां छपी कई चिठ्ठियां हैं। पाठको की प्रतिक्रियाएं हैं। हालांकि जब प्रतिक्रियाएं आनी शुरु हुई तो राजेंद्र जी दुखी हुए। कहा- बड़ी तारीफ आ रही है, तेरी कहानी की। बात क्या है..ये अच्छी बात नहीं है। “
मैं भी तारीफ पर खुश हो रही थी। मुझे लगा कि हिंदी समाज बदल गया है। उसमें एक साहसी कहानी समझने स्वीकारने की समझ और हिम्मत दोनों आ गई है। राजेंद्र जी ने कहा –“ज्यादा खुश मत हो। ये अच्छी बात नहीं है। अगर आपकी रचना ने आपके समय को पाठको को झकजोरा नहीं, उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया तो तेरा लिखना बेकार। मुझे उम्मीद नहीं थी कि तारीफ में इतने पत्र आएंगे।“ 
मगर ये खुशियां जल्दी ही हवा हो गई। मेरे घर के पते पर, हंस के आफिस में, फेसबुक पर और ईमेल से मुझ पर जो गालियां बरसी कि पूछो मत। लोगों ने नाम छुपा छुपा कर गालियां दीं। मेरी समझ में आया कि कुछ तो अनजान पाठक और कुछ वे अपने जो मेरी तारीफ मुंह पर करते हैं और पीछे से मेरे लिए तरह तरह के विशेषणों का प्रयोग करते हैं। उनका भला हो। बीमार मानसिकता पर आप सिर्फ दया ही कर सकते हैं। सो उनकी गालियां सिर माथे। उनकी समझ ही इतनी है कि क्या करुं। मेरी उस वक्त की अनजान दोस्त, कहानीकार प्रज्ञा पांडे जिस तरह से मुझे मेरी कहानी के विस्तृत फलक के बारे में बताया,  वहां तक शायद मैंने सोचा नहीं था। उन्होंने मेरी कहानी को उस दौर में दुनिया भर में चल रहे ड्रेसकोड के खिलाफ आंदोलन से जोड़ दिया।

इसके अलावा कहानी की नायिका आंचल को लोगों ने अलग अलग तरीके से देखने की कोशिश की..सोचिए, जिस किरदार को पाठकों ने इतनी गालियां दीं, क्या उसे रचते हुए मुझे इसका अंदाजा नहीं रहा होगा ? अंदाजा था..और यही मेरी जिद है। मैं गुडी गुडी लिखने के लिए नहीं हूं। साहित्य प्रतिरोध रचता है, वह प्रतिपक्ष में खड़ा होता है।
 आपके समाज में जो हो रहा है उसे देखिए। एक स्त्री के आइने में ज्यादा साफ सफ्पाक दिखाई देगा। स्त्री के जरिए जब पोल खुलती है तो लोगों को मिर्ची लगती है। एक पाठक जो जिला अदालत में जज हैं वे अपने पत्रों में साफ साफ स्वीकारते हैं कि समाज में ऐसा हो रहा है और हम आज भी स्त्री को देह से अलग देख पाने को तैयार नहीं हैं। 
एक स्त्री का नग्न होना या नग्न कर देना मेरे लिए कठिन था। नायिका के न्यूड पार्टी में जाने से पहले मैंने बहुत सोचा कि वह भाग खड़ी हो...एक बार वह भागती भी है...उसके भीतर पलायन का खयाल आता है..उसकी कायरता थी, एसा सोचना...लेकिन लगा कि क्या स्त्रियां हमेशा भागती ही रहेंगी... मुकाबला नहीं करेंगी। नहीं..वह नहीं भागेगी...वह एक नंगे पुरुष की आंख में आंख डाल कर बात करेगी..शर्म स्त्री की आंखो में नहीं, पुरुष की आखो में हो...यही तो चुनौती है। 
मेरी कठिनाईयां और भी थीं..रचने के बाद, छपने की। हर मोड़ पर। हंस बोल्ड काहानियों को छापने का दावा करता रहा है..उनकी भी हिम्मत ना हो रही थी। लटकी रही कहानी। वहां भी कुछ संपादकीय साथियों को मेरी कहानी अश्लील लगी। मेरी कहानी का मर्म कोई नहीं पकड़ पा रहा था। मेरे लिए एक स्त्री को भरी महफिल में नग्न कर देना जितना मुश्किल था, इसका अंदाजा उन्हें नहीं था। उन्हें यकीन ही नहीं था कि कोई स्त्री ऐसा कर सकती है या समाज में न्यूज पार्टी का कोई अस्तित्व है। उन्हें यह गढा हुआ संसार लग रहा था। बाद में टाइम्स आफ इंडिया में इस तरह की पार्टी के बारे में डिटेल छपा था। मजेदार बात ये कि मध्यप्रदेश के मेरे एक पाठक ने छोटे शहर में न्यूड पार्टी की एक खबर की कटिंग के साथ पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि हमने तो अखबार में पढकर अब जाना कि समाज में ऐसा हो रहा है, आपने तो बहुत पहले ही इसका अनुसंधान कैसे कर डाला...। वह चकित होकर सवाल पूछ रहे थे। 
मेरे एक युवा आलोचक मित्र ने कहा—दरअसल आपने समय से बहुत पहले ये कहानी लिख दी। पत्थर तो बरसेंगे हीं। इसका मूल्यांकन होगा..कुछ साल बाद। मैं तो हिंदी पट्टी के लिए दुआ कर रही हूं कि वे अपनी समझ को और बोल्ड करें और अपने ही भीतर झांकें...नंगापन दिख जाएगा। 
और अब.....
भविष्य की रुपरेखा ठोस बनाई नहीं। पात्र तो खुद लेखक को चुनते हैं। वह आपको गढते हैं. पता नहीं कब क्या कौन पात्र मुझे अपने नियंत्रण में ले ले। अभी कुछ सोचूं और बाद में वह बदल जाए तो। पात्रों को लेकर समयानुकूल घोर आशंका बनी रहती है। एक बात जरुर है कि मैं अपने पात्रों में एकरसता से बचना चाहती हूं। उनमें वैविध्य देखना चाहती हूं। रेंज हो उनमें। वे जादुई भी हों और यथार्थवादी भी। मैं निराश पात्रों से या कहें बहुत ज्यादा निगेटिव पात्रों से बचना चाहती हूं। लेकिन क्या पता, कब कौन आ जाए और अपनी जगह ले ले आपकी रचनाओं में। सब अपनी जगह छेंक लेते हैं। मेरे लिए लिखना खुद को मुक्त करना है।
अब ये मुक्ति कैसी है, इस पर मैं अपनी रचना प्रक्रिया में बहुत बात कर चुकी हूं। इस मुक्ति की चाहत ने पात्रों की तलाश में हकासल-पियासल जैसी हालत कर दी है। पहले से ज्यादा चौकन्ना हूं। पात्र और मैं दोनों एक दूसरे की तलाश में हैं शायद। 

----गीताश्री
मो-9819246059


Wednesday, May 16, 2018

कुछ कविताएं



- गीताश्री
1.
जैसे चले जाते हैं असंख्य लोग
वैसे ही मैं यहाँ से प्रस्थान करना चाहती हूँ
मेरे बाद मेरा कुछ शेष नहीं बचा रहना चाहिए
उन्हें बहा देना मेरी अस्थियों के साथ
मेरी किताबें, मोबाइल और लैपटॉप भी मेरे साथ परलोक जाएँगी
मेरे साथ इनका भी प्रस्थान जरुरी
मैं यादों के ख़ज़ाने को किसी के लिए नहीं छोड़ना चाहती
सब भीतर से भरे हुए , जीवन से तरे हुए लोग हैं
सबके पास अपने जीने -मरने की कई कई वजहें हैं
उन्हें उसी से जूझने देना चाहिए
हीन-क्षीण आत्म ग्रंथियों से लदी फदी आत्माओं के लिए
मैं शोक की वजह नहीं बनना चाहती
जैसे किसी के सुख की वजह नहीं बन पाई
मेरी मुक्ति वैसे हो
जैसे पेड़ छोड़ देता है पत्ते को
बारिश छोड़ देती है बादलों को
मुक्ति की कामना ही मेरी अंतिम प्रार्थना है ...

2.
मैं अकेली नहीं रोती
मेरे भीतर रोती है ढेर सारी स्त्रियाँ एक साथ
मेरा रुदन काराओं में बंद असंख्य स्त्रियों का कोरस है,
मेरा विलाप सिर्फ मेरा नहीं
यह हाशिए पर छूट गयीं
अनगिनत स्त्रियों का लोकगीत है

मेरी हंसी सिर्फ़ मेरी नहीं ,
इसमें शामिल हैं असंख्य स्त्रियों का हास्य
मैं अकेली नहीं नाचती
मेरी हर मुद्रा में वंचित औरतो का लास्य भरा है,

मैं अकेली नहीं गाती
मेरे आलाप में गाती हैं वे सभी आवाज़ें
जिन्हें कोई सुन नहीं पाया
मेरे हर सुर में गुंजित है उनकी पीड़ा

मैं दर्द लिखती हूँ, विद्रोह लिखती हूँ, बग़ावत करती हूँ
और इनमें शामिल होता है
 असंख्य अदृश्य औरतों  का जुलूस,

मेरे हर पल में शामिल हैं
उन धड़कते सपनों की प्रेतात्माएं
जिन्हें हर बार बेरहमी से ज़िन्दा ही दफ़्न कर दिया गया है।

3.
न धरती न आकाश 
...........

तुम्हें उसने इतना अनुकूलित कर लिया है
कि तुम्हें कंकड़ - पत्थर में बदल कर
अपने दुश्मनों पर फेंकने के क़ाबिल बना दिया है
कायर राजा को फ़ौज चाहिए
नपुंसकों की
जो हमले के समय गगनभेदी -धरती फाड़ू तालियाँ बजा बजा कर
अपने समर्थन में कुछ लोग जुटा सके
तुम्हें पता ही नहीं धरती
कि तुम कब आकाश की बाँदी बन कर पैताने खड़ी हो
और बनो धरती धरणी
आकाश अपनी मर्जी से आकार दे रहा है तुम्हें...
तुम अपनी ही देह को नोंच नोंच खा जाओगी..
आकाश कई कई रुपो में तुम्हें लुभाता है...
अपने घर, दरवाज़े, खिड़कियाँ खोल कर
उन्हें बुलाती हो..
अपने घर को शरणस्थली में बदल कर रोमांच पाती हो
शरणागत बहुरूपिया आकाश
बाहर भांट की तरह गाता है
तुम्हारी माटी, खेत और सूखे उजड़े अरमानों और चाहतों का गान
दुनिया भर में बांट आता है तुम्हारी रातों के क़िस्से
मेहमाननवाज़ी की राजनीति
और रात्रि विश्राम की उत्तेजनाएं
ये सब महज़ उसके लिए चटखारे हैं...
एक अर्द्ध बीमार मेहमाननवाज़ का दरवाज़ा खुला रखना
कई फ़र्ज़ी आकाशों के लिए सिर्फ अचंभा है...
औसतपन को ढँकने का उपक्रम मानते हुए
कई कई शहरों के आकाश
धरती पर रात्रि विश्राम के क़िस्से बाँचते हैं... !!


4. मैं आत्माओं के झुंड से घिरी हुई हूँ ...
जाने कैसे आ जाती हैं  इन दिनों मेरे इर्द गिर्द
मुझसे ज़्यादा बेचैन
नींद की नदी में गोता लगाती हूँ कि
आत्माओं की चीख़ें आसमान सिर पर उठा लेती हैं
सुना है, आत्माएँ पेड़ों में रहा करती हैं
इसलिए खेतों में ढूँढती हूँ कोई घना वृक्ष
जिसके नीचे उन्हें जुटा सकूँ
बेमन से बनाया गया उनके हिस्से का भोजन दे सकूँ
मैं भेद नहीं कर पा रही
वे आत्माएँ हैं या प्रेत ?
कौन चीख़ता है जोर जोर से ?
क्या चाहिए उन्हें मुझसे ?
जब मेरे हिस्से कुछ बचा ही नहीं
फिर क्या माँगती हैं वे?
अधूरी कामनाओं का आवेग उन्हें बुलाता है बार बार
अतृप्ति एक अंधी बाबड़ी है
वहाँ इच्छाएँ जालों में लटकती हैं...
आत्माएँ क्या शोकग्रस्त हैं ?
किसकी आत्माएँ हैं?
मुक्ति की कामना में चीखती हैं ...
पंडितों के वाहियात मंत्रों में भी नहीं ताक़त
कि इनकी कामनाओं को समझ सके
इन्हें मुक्ति देने का दंभ और आत्म विश्वास लिए पंडित
हर शाम बड़बड़ाता रहता है मंत्र...







Saturday, June 10, 2017


आलेख

सोनमछरी 
--गीताश्री

जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
                                                                     
                                                                                          - डॉ. रेणु व्यास, असिस्टेंट फ्रोफेसर, 
                                                राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
                                                                
यह कहानी है गंगा नदी की,  उसके किनारे की तुर्शी वाली तेज़ हवा, उसमें उठे तूफ़ान की, और उस तूफ़ान से इंसान के संघर्ष की। यह कहानी है उस गंगा नदी की जो अपना रास्ता ख़ुद बनाती है। दुनिया की सबसे पहली सड़क इंसान ने नहीं, नदी ने बनाई है। ग्रांड ट्रंक रोड किसी लोककल्याणकारी शासक की नहीं, गंगा नदी की देन है। अपना रास्ता ख़ुद बनाने वाली गंगा इंसान को रास्ता दिखाती है पर मिज़ाज बदलने पर इंसान को तिनके की तरह दूर उछालकर रास्ता भटका भी सकती है। फिर भी इंसान तूफ़ानों से लड़ते हुए, झंझावातों का सामना करते हुए, अपनी इस माँ की छाती पर चढ़कर उसके सीने से अपना दाय लेने में झिझकता नहीं है। धरती हो या उसकी बेटी गंगा, कुपित होने पर इंसान उसके सामने असहाय नज़र आता है पर तुरंत ही सँभलकर वह पुनः अपने साहसिक  अभियान पर निकल पड़ता है। ऐसे ही एक साहसी मनुष्य की जिजीविषा की कहानी है सोनमछरी’, प्रसंगतः यह साहसी मनुष्य एक स्त्री है।
                गंगा किनारे के धुलियानगाँव में एक मछुआरे से बीड़ी-मज़दूर बने शंकर की नवविवाहिता है रुम्पा जो गीताश्री की कहानी सोनमछरीकी नायिका है। लेखिका ने इस कहानी में स्त्री और गंगा को समानान्तर रूप से अंकित किया है, लगभग रूपक की तरह।
                ‘‘अपने मन मिज़ाज की हवा कब बिगड़ जाए, कब सँवर जाए, दैवो न जानम। गंगई हवा का मिज़ाज किसी स्त्री की तरह लगा उसे।’’ (पृष्ठ 1)
                ‘त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यं......उक्ति को नए रूप में प्रस्तुत किया है गीता श्री ने। अपने भाग्य का आप निर्धारण करने वाली स्त्री है रुम्पा और शंकर और अमित के जीवन को भी वही दिशा देती है। कभी मछुआरा रहा शंकर का पूरा गाँव बीड़ी बनाने के उद्योग में लगा है। रुम्पा अपने आपको और शंकर को तेंदुपत्ता और तंबाकू की गंध से दूर ले जाना चाहती है, जिस गंध से पूरा गाँव खाँस रहा है। टी.बी. अस्पताल में भर्ती राजू दाधुलियान के हर बीड़ी मज़दूर का भविष्य हैं। इस रुग्ण भविष्य से बचने का रास्ता चाहे सात पहाड़ों के पार हो, रुम्पा दृढ़संकल्प है पार जाने के लिए। कहानी के साथ-साथ चल रही लोककथा की रानी रुम्पा ही है और जिस सोन फूलको लाने के लिए वह राजा को बाध्य करती है, वह सोन फूलबीड़ी मज़दूर बनने की नियति से मुक्ति की आकांक्षा है।
जाल और नाव का इंतज़ाम करती रुम्पा शंकर को अपने पुश्तैनी व्यवसाय की ओर मोड़ती है। इस प्रयास में वह सफल भी होती है। हिल्सा, रोहू, सिंघी..... तक तो ठीक पर जब सारी मछलियाँ सोनमछरी की तरह दिखने लगें तो ? ‘सोनमछरीकी रुम्पा की चाह शंकर को ले डूबी। बिहार के किशनगंज की ज़िद्दी रानी रुम्पा गंगा का बदला मिज़ाज न भाँप सकी, शंकर के दिए संकेत के बावज़ूद! और उसने शंकर को उस दिन भी ज़बरदस्ती मछली पकड़ने भेज दिया जिस दिन भयानक तूफ़ान आना था। तूफ़ान आया गंगा में भी और रुम्पा के जीवन में भी। तम्बाकू की गंध से भी नफ़रत करने वाली रुम्पा को हालात ने सबसे तेज़ी से बीड़ी बनाने वाली मशीन में तब्दील कर दिया। पर नहीं! रुम्पा मशीन में नहीं बदली। तूफ़ान द्वारा तहस-नहस किए जाने के डर से उसने सपने देखना नहीं छोड़ा। भुट्टो दाई चोरनी के शाप से वह डरी नहीं, दुख से वह हारी नहीं, उसने फिर जीने की कोशिश की, अपना वही सपना, बीड़ी मज़दूर की नियति से मुक्ति पाने का, वह भी बीड़ी फैक्ट्री के मुंशी अमित दास का संबल मिलने पर। गाँव वालों और अपनी माँ के विरोध की भी परवाह न कर अमित ने रुम्पा का हाथ थामा। पोल्ट्री फार्म खोलने की रुम्पा और अमित की योजना लोककथा की रानी के सोन फूल की दिशा में फिर से सात पहाड़ लाँघना थी। पर फिर तूफ़ान आया, गंगा में नहीं, रुम्पा के जीवन में। शंकर लौट आया। गंगा की लहरों से बचा शंकर बांग्लादेश की जेल में पहुँच गया था। वहाँ से छूटा तो सीधा अपनी रानी के पास यह कहते हुए कि
                ‘‘रानी... स्वर्ण फूल ले आया हूँ ... सात पहाड़ पार कर गया... भीषण कष्ट झेला... अब तो कथा पूरी करो... ’’ (पृष्ठ 11)
कथा पूरी कैसे करे रुम्पा जब उसे उस कथा का अन्तनहीं मिल रहा हो! कथा के अन्त के पहले का क्लाइमैक्स रुम्पा के जीवन में आ पहुँचा। एक ओर पहला पति शंकर जो उसके लिए मृत्यु को भी पराजित कर आया है और दूसरी ओर बिना किसी प्रतिदान की आशा के संकट के समय सहारा देने वाला अमित, उसका दूसरा पति। गुलज़ार कहते हैं -
                ‘‘मैं तो बस ज़िन्दगी से डरता हूँ
                मौत तो एक बार आती है’’
रुम्पा के जीवन में मौत से भी गहरी यह पीड़ा दो बार आई। पहले गंगा की लहरों ने शंकर को लील कर रुम्पा को सताया, दूसरी बार उसे उगल कर। रुम्पा अपने अंतद्र्वंद्व पर विजय पाती है, अपनी जिजीविषा से। कितनी पढ़ी-लिखी है वह ? साक्षर भी है या नहीं, कहानी से पता नहीं चलता परन्तु अपनी सोच में वह एक आधुनिक स्त्री है। बिमल रॉय की बंदिनीकी नायिका की तरह वह पहले प्यार के रोमांस में डूबी अतीत की बंदिनी नहीं है, वह वर्तमान को यानी अमित को चुनती है। यहीं गीता श्री की नायिका बिमल रॉय की नायिका से एक क़दम आगे नज़र आती है। वह एक पीढ़ी आगे की स्त्री है। रुम्पा के चरित्र के जरिए गीता श्री स्त्री के खेतया ज़मीनहोने को नकारती है, जो पहली बार जोतने वाले का हक़ परम्परागत रूप से मानी जाती है। यहाँ नायिका रुम्पा एक इंसान है जीती-जागती, साँस लेती। अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का हक़ उसका है।
                कहानी की तिहरी बुनावट में रुम्पा की कथा, गंगा नदी के रूपक का प्रयोग और राजा को सात पहाड़ पार कर सोन फूल लाने के लिए बाध्य करने वाली रानी की कथा इस कहानी में साथ-साथ चलते हैं। लोककथा की रानी राजा को कहती है-
                ‘‘हमारी देह चाहिए तो हमारे मन की सुनो। सुनो कि मन क्या माँगता है। पहले मन को जीतो मेरे राजा, फिर मेरी देह तुम्हारी। मन के मार्ग से देह तक पहुँचो...’’ (पृष्ठ 2)
                रुम्पा शंकर को बहुत प्यार करती थी। पर शंकर की यात्रा देह से मन की ओर थी और अमित की मन से देह की ओर। लोककथा की रानी की तरह ही रुम्पा भी अमित को चुनती है जो मन के रास्ते देह तक पहुँचा है।
वातावरण निर्माण में गीताश्री ने इस कहानी में कुशलता दिखाई है। बांग्ला शब्दों को प्रयोग, गंगा नदी की हर गतिविधि का सूक्ष्म चित्रण, बीड़ी मज़दूरों की दयनीय स्थिति, सब मिलकर बंगाल के उस अनदेखे गाँव को हमारी आँखों के आगे मूर्त कर देते हैं। कथ्य में देश-काल की बारीकियाँ गीताश्री के पत्रकार रूप की देन है तो उसका सुगढ़ शिल्प लेखिका की पहचान। फ्लैश बैक का इस्तेमाल कहानी में बहुत रचनात्मक तरीके से किया गया है जहाँ पाठक रुम्पा के मानस में आते स्मृति-खंडों के माध्यम से कहानी से परिचित होता चलता है। इन स्मृति-खंडों में काल के पूर्वापर क्रम के बजाए भावों से उनकी संगति को प्राथमिकता दी गई है। कहानी में रचा गाँव इकहरा नहीं है। वहाँ राजू दा और रीना दास हैं तो नज़मा आपा भी हैं। जब शहरी पृष्ठभूमि की आज की हिन्दी कहानी में मुस्लिम चरित्र ग़ायब होते जा रहे हैं, तब यहाँ उनका कहानी के वातावरण में सहज रूप से आना राहत की बात है। पूरी कहानी में कोइ्र टिपीकल खलनायक नहीं है और न ही अतिमानवीय तरह के नायक-नायिका। सभी यहाँ इंसान हैं और खलनायक परिस्थितियों से संघर्ष करना नहीं छोड़ते। स्त्री-विमर्श भी यहाँ यांत्रिक या क़िताबी नहीं है। यहाँ स्वतंत्र व उदार सोच वाले स्त्री-पुरुष मिलकर स्त्री-विरोधी पुरानी सोच से लड़ते हैं। रीना दास की सोच पितृ-सत्तात्मकता से प्रभावित है तो नज़मा आपा की उससे मुक्त सहज मानवीय। अमित दास रुम्पा का पति है पर स्वामी नहीं। वह शंकर की तरह गुस्से से आँखें लाल नहीं करता। प्रेम की गहराई उसे रुम्पा के निर्णय का आदर करना सिखाती है।
‘‘मैं रोकूँगा तुम्हें...... एक बार..... उसके बाद जो तुम चाहो। मैं तुम्हारे रास्ते में कभी नहीं आऊँगा.... जेटा तुमि भालो बोझो, शेटे करो... तुम स्वतंत्र हो... लेकिन मैं नहीं भूल पाऊँगा तुम्हें... जी नहीं पाऊँगा... क्या करूँगा पता नहीं..., शायद यहाँ से दूर... बहुत दूर चला जाऊँ... बस तुम ख़ुश रहना... शंकर को फिर गंगा में नाव लेकर ना जाने देना... गंगा का माथा फिर गया तो... नहीं... मैं रोऊँगा नहीं... कोई अहसान न मानना... आमी तोमा के खूब भालो बाशी।’’ (पृष्ठ 9)
अमित के प्रेम में अपनेपन के साथ-साथ उत्तरदायित्व है, अभिभावकत्व है। उसकी यह परिपक्वता रुम्पा को उसके प्रति आकृष्ट करती है।
                कहानी में आने वाले प्रसंगों की झलक लेखिका पहले ही दे देती हैं। शंकर को मछली पकड़ने भेजते ही मौसम ख़राब होने के वर्णन से उस तूफ़ान की झलक पाठक को पहले ही मिल जाती है जो रुम्पा के जीवन में आने वाला है। साथ ही रुम्पा तूफ़ान में गिरेगी नहीं, टूटेगी नहीं सहारा पाकर फिर खड़ी होगी इसका संकेत भी लेखिका ने प्रकृति के माध्यम से पहले ही दे दिया है।
‘‘शंकर ओझल हुआ तो वह पलटी... हवा की तेज़ लहर उसे हिला गई। डगमगाई, जल्दी से कीचड़ में गड़े बाँस को पकड़ा। पीन पयोधर दुबरी गात वाली रुम्पा हवा का तेज़ झोंका भी कैसे सहती। वह जानती थी अपनी शक्ति को इसीलिए लड़खड़ाते हुए सबसे पहला सहारा पकड़ा। सामने जो दिखा।’’ (पृष्ठ 6)
लेखिका कहर बरपाते तूफ़ान का वर्णन करते हुए नज़मा आपा की आवाज़ में या ख़ुदा... रहम बरपा...इस्तेमाल कर गई हैं, पर यह चूक और भाषा की ऐसी कुछ और भूलें कहानी के व्यापक उदात्त को प्रभावित नहीं करतीं। भाषागत सावधानी लेखक के लिए अपेक्षित है यह मानते हुए भी टंकण की त्रुटियों की तरह इनकी उपेक्षा की जा सकती है।
रुम्पा के मन के झंझावात की अभिव्यक्ति कहानी में गंगा नदी के माध्यम से होती है। प्रकृति के साथ इंसानी हृदय का गहरा तादात्म्य इस कहानी की एक बड़ी विशेषता है। अजीज़ एज़ाज़ ने ठीक ही तो कहा है -
‘‘जैसा दर्द हो वैसा मंज़र होता है
मौसम तो इंसान के अंदर होता है’’
                गंगा नदी का नाम बांग्लादेश में पहुँचने पर पदमा हो जाता है, इस तथ्य के जरिए लेखिका ने स्त्री-जीवन की उस विडम्बना को रेखांकित किया है जब ससुराल में पहुँचने पर उसके नाम, उपनाम ही नहीं उसकी सम्पूर्ण पहचान बदल दिए जाने की कोशिश होती है।   
                ‘‘पदमा... गंगा ही तो है जो स्त्री की तरह दूसरे देश में जाकर नाम बदल लेती है। वे भूल गये थे कि गंगा कभी कभी अपना पाट भी बदल लेती है।’’
                स्त्री का नाम तक बदल देने वाला समाज उससे यह अपेक्षा नहीं करता कि वह नदी की तरह अपना पाट भी बदल लेगी। पर रुम्पा ने ऐसा कर दिखाया। धरती को अपनी धारा से काटते हुए लीक बनाने वाली नदी अपनी ही बनाई लीक को लाँघने की शक्ति रखती है।
                जिस घर में रुम्पा शंकर के साथ ब्याह कर आई, जो घर उसका आश्रय था, अमित से ब्याह के बाद भी, शंकर के लौट आते ही वह घर शंकर का हो गया, रुम्पा का नहीं रहा। उस घर को उसने छोड़ दिया। सारे सामान वहीं छोड़ दिए, बस अमित के प्रेम को साथ लिया। कहानी के अंतिम अंश में लेखिका गंगा के एक खूबसूरत बिंब के सहारे इस घटना को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाती हैं। यह खूबसूरत बिंब इस कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
                ‘‘गंगा शांत दिख रही थी। सूरज की मुलायम रोशनी में पानी की सतह चमचमा रही थी। जैसे किरणें सूरज से होती ही गंगा की आत्मा में पैठ रही हो और गंगा उसकी आभा में स्नेह, स्वप्न मग्न...। दो पानी पक्षी कहीं से उड़ते हुए आए, किर्र किर्र किर्रर... करते हुए पानी में चोंच मारा, पानी और सूरज दोनों लेकर उड़ गए।’’ (पृष्ठ 13)
                अब यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पक्षी रुम्पा और अमित हैं, पानी जीवन-रस या प्रेम है जिससे सूरज की रोशनी भी मुलायम बन गई है और सूरज बेहतर भविष्य का सपना। रुम्पा और नदी का रूपक इस खूबसूरत कहानी का प्राण है। रुम्पा की जिजीविषा और उसके स्वतंत्र निर्णय को देख बशीर बद्र का यह शेर याद आ जाता है -
                ‘‘हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
                जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा’’

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डाॅ. रेणु व्यास, ए-85-बी, शिवशक्ति नगर, मॉडल टाउन, जगतपुरा रोड, जयपुर, मोबाइल – 9413887224