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Thursday, April 7, 2016

कुशी नगर यात्रा

यहां बुद्ध सो रहे हैं

गीताश्री

वहां बुद्ध सो रहे हैं लेकिन लोग यह मान कर मंत्र बुदबुदा रहे हैं कि वे सुन रहे हैं। अपने हिसाब से सारे लोग प्रत्युत्तर भी ग्रहण कर रहे हैं। वहां मौजूद लोगों को क्या पता कि एक बार फिर वैशाली की कोई स्त्री हाथ जोड़े कुछ बुदबुदा रही है और बुद्ध के सोए होठों से कुछ गुनगुन आ रही है-

कोई किसी को नहीं बचा सकता भद्रे..जहां आग की लपट है, उसके निकट कहीं पानी का झरना है..अशांति के कंटक-कानन में ही शांति की चिड़िया का घोसला है, उस झरने, उस घोंसले को खुद खोजना होता है। दूसरा, ज्यादा से ज्यादा रास्ता भर बता सकता है... (अंबपाली-रामवृक्ष बेनीपुरी से साभार)
अंबपाली को सब साफ सुनाई दे रहा है। वह मार्ग पूछती है और उसे लंबी जिरह के बाद मार्ग मिल जाता है।



महापरिनिर्वाण टेंपल में बुद्ध खामोशी से सो रहे हैं। उनकी 6.10 मीटर लंबी काया उनके चाहने वालों को अभिभूत कर रही है। जिधर से देखो, अलग अलग छवियां दिखाई दे रही हैं। दूर दराज से तीर्थ के लिए आए बौद्ध धर्मावलंबी हाथ जोड़े भाव विह्वल हैं। सबके मन में में कोई न कोई संवाद चल रहा होगा। सबको शायद जवाब भी मिल रहा हो। वहां से लौटते लोगों के चेहरे पर कातरता साफ देखी जा सकती थी। श्रीलंका के एक यात्री देर से मुझे देख रहे थे। उनके भीतर कुछ सवाल थे। मेरे पलटते ही सवालो की झड़ी...और जब मैंने उन्हें बताया कि मैं वैशाली की रहने वाली हूं तो वह उछल पड़ा।
टूटी फूटी इंगलिश में बोले-वहां जाना मेरा ख्वाब है। मैं देखना चाहता हूं वह नगर जहां बौद्ध मठो में स्त्रियों का पहली बार प्रवेश हुआ। वह अंबपाली का नाम ठीक से नहीं जानता था पर इतना जानता था कि भगवान बुद्ध और उनके परम भक्त आनंद के बीच बहुत बहसे हुईं थीं। एक राजनर्तकी ने उन्हें तर्क से झुका कर संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खुलवा दिए थे।




मैं जल्दी में थी। मेरा सेमिनार छूट रहा था। गोरखपुर और देवरिया से सटे कुशीनगर की पहली भोर थी। मुझे जल्दी जल्दी बुद्ध की आखिरी नींद देखनी थी। वह तमाम जगहें देखनी थीं जहां जहां बुद्ध ने सब कुछ आखिरी बार किया। आखिरी खाना खाया, जिस नदी में आखिरी बार स्नान किया और जहां आखिरी सांस लीं। जहां उनका आखिरी क्रियाक्रम हुआ और जहां उनकी अस्थियों को दफनाया गया। यह अलग बात है कि खुदाई में अस्थियां नहीं मिलीं। लेकिन बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए अस्थियां अब भी वहीं हैं। काल की खोह में कहीं गहरे दबी हुई। कई बार आस्था साक्ष्यों की मोहताज नहीं होती। भक्तो के लिए बुद्ध यहीं कहीं दफ्न हैं। उनकी छाया है। आखिरी सांसे हवा में घुली हुई हैं। जापान, थाईलैंड, श्रीलंका और ताइवान से आए यात्री यहां ध्यान मग्न हैं। उन्हें कोई जल्दी नहीं है। वे अपने नथुने भर उठा उठा कर हवा भर रहे हैं अपने फेफड़ो में। स्तूप पर माथा टेक टेक कर भाव विह्वल हो रहे हैं। उनकी यह कातरता मेरे भीतर की अहर्निश बारिश को और तेज कर देती है। बिना शोर मैं अपनी भीतरी आवाजें सुनने लगती हूं। पवित्र स्तूप पर जहां अगरबत्ती जलाने और सुनहरे टीका चढ़ाने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। चारो तरफ शांति। इसी बेशकीमती शांति की खोज में दुनिया भटक रही है। हम सब भटक रहे हैं। इसी भटकन ने कुशी नगर की एक सुबह मुझे सोते हुए बुद्धा के पास ला खड़ा किया था।
कुशीनगर मेरे सपनों का वांछित नगर रहा है। जब दिल से चाहो तो कोई न कोई ट्रेन आपको वांछित सपने तक पहुंचा ही देती है। मेरे साथ भी यही हुआ था। ना ना करते हुए मैं द्वार पर थी जहां सदियों से पहुंचने का स्वप्न देखा होगा।
रामाभर स्तूप के लिए प्रवेश करते हुए गेट पर इंट्री करनी होती है। रजिस्टर लेकर कुछ बौद्ध भिक्क्षु बैठे हुए थे।




अरे आप रहने दें...आप नई थोड़े न हैं, आप तो पहले भी आ चुकी हैं यहां...जाइए..
मैंने आश्चर्य से न तीनों भिक्षुओं को देखा। मैं पहली बार आई थी। क्या इच्छाएं भी सरुप यात्राएं करती हैं जिन्हे ये साधक देख पाते हैं या उनका अनुमान था। मैं चलते चलते उन्हें देखती हुई बोल पड़ी..
मैं तो पहली बार आई हूं...
एक ने पूछा, आप कहां से आई हैं ?”
मैंने कहा, दिल्ली से, लेकिन हूं मैं वैशाली की..आपने पूर्वजन्म में देखा होगा मुझे...मैं हंसती हुई स्तूप की तरफ बढ गई। तीनों भिक्षु की निगाहें मेरा पीछा कर रही थीं। मेरे पास समय कम था क्योंकि यह भोर निकल गई तो मंत्रसिक्त हवाएं लोप न हो जाएं। बुद्ध की नींद में, स्तूप पर जलती हुई अगरबत्तियों के धुएं में..।
मैं तो खुद सवालों से भरी हुई चली जा रही थी। आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या देखा कुशीनगर में ? इस नगर का चयन क्यों किया? इतिहास के तथ्य खंगाल कर आई थी सो इतना पता था कि यह नगर प्राचीन काल में कई नामों से जाना जाता था। कुशावती और कुशीनारा भी इसे ही नाम थे। कालांतर में इसका नाम कुशीनगर पड़ गया। मिथको के अनुसार अयोध्या के राजा राम के एक पुत्र कुश ने इस नगर को बसाया था। यह मल्ल राजाओं की राजधानी भी थी। मल्ल राजाओं ने बुद्ध के अंतिम संस्कार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जब पांचवी शताब्दी में फाहियान ने और सांतवीं शताब्दी में व्हेनसांग ने इस इलाके की यात्रा की तो इसे निर्जन स्थान पाया था। आधुनिक कुशीनगर की खोज 19वीं शताब्दी में भारत के पहले पुरात्तववेत्ता अलेक्जेंडर ने (1860-61 में) कनिंघम द्वारा इस क्षेत्र की खुदाई की गई और इसके बाद कुशीनगर को महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल माना गया। कनिंघम के उत्खनन के समय यहाँ पर 'माथा कुँवर का कोट' एवं 'रामाभार' नामक दो बड़े व कुछ अन्य छोटे टीले पाये गये। 1875-77 में कार्लाईल ने, 1896 में विंसेंट ने तथा 1910-12 में हीरानन्द शास्त्री द्वारा इस क्षेत्र का उत्खनन किया गया।



बाद में मुख्य स्तूप भी खोज निकाला गया। वर्मा के एक बौद्ध भिक्षु चंद्रास्वामी भारत आए और उन्होंने 1903 में महानिर्वाण टेंपल का निर्माण करवाया जहां मैं सोते हुए बुद्ध के चेहरे पर एक पूरा कालखंड खोज रही थी। कुछ परछाईयां डोल रही थीं। कुछ सवालों की छाया थी। कुछ के जवाब तो वैसे ही समझ में आ रहे थे कि बुद्ध ने कुशीनगर को क्यों चुना होगा। वे चुनते थे जहां वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, जहां वे जी सकें, जहां वे मर सकें। मरने के लए उन्हें एक समृद्ध नगर की तलाश थी। उस कालखंड में कुशीनगर बहुत समृद्ध मगर रहा होगा और वह आज भी है। जिस धरती पर बुद्ध की अंतिम सांसे हों वह नगर भला कभी समृद्ध कैसे न रहे। वे नदियां अब भी वहीं बहती हैं जहां बुद्ध ने अंतिम स्नान किया होगा। क्या पानी ने अपनी गवाही और अपने स्पर्श बचा रखे होंगे। काकुथा नदी जहां बुद्ध ने अंतिम स्नान किया था, वह अपने इस गौरव को भुला पाएगी कभी। हिरण्यवती नदीं जहां बुद्ध के पार्थिव शरीर को अंतिम बार नहलाया गया, वह अब भी धरती की बेनूरी पर रोती होगी। बुद्ध ने कुछ तो कहा होगा कि ये नदियां सदानीरा रहीं। यह सब कुछ सोचती हुई अनमनी सी मैं लौट रही थी। तब तक मेरे साथ प्रख्यात कथाकार वंदना राग भी शामिल हो चुकी थी । हम दोनों ने वहां छोटे छोटे टीले देखें और पूरे युग के बारे में सोचा। हमारी बातों में बौद्धिज्म भी था और संघ में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर उस काल का संशय भी। गेट से बाहर निकलते हुए  सफेद कपड़ो में लिपटी एक ताइवानी लड़की दिखी जो अपनी आंखें सबसे छिपा रही थी। ज्यादातर बौद्ध धमार्वलंबी यात्री सफेद कपड़ो में आए थे। वह लड़की ओझल हो गई लेकिन मेरे कानों में अंबपाली को कहे गए बुद्ध के अंतिम वाक्य सुनाई दिए-
संन्यास या भिक्षुपन कुछ नहीं, थकी हुई आत्माओं का आत्मसमपर्ण है।
( अंबपाली, नाटक-रामवृक्ष बेनीपुरी)


अंबपाली भी थक गई थी, उससे यह बोझ नहीं ढोया जा रहा होगा...!
……

 (कांदबिनी के अप्रैल अंक-2016 में प्रकाशित)

Wednesday, October 21, 2015

यात्रा-कोलाज
नदी की देह पर सदियों की परछाई और काफ्का
गीताश्री

वैसे भी यहां बहुत से कोने हैं, चांदनी रात में छिपे हुए, फीके, उजले, खामोश-माला—स्त्राणा की सदियों पुरानी, टेढी मेढी, गलियों में चलते हुए पांव खुद-ब-खुद धीमे हो जाते है। लगता है, रात के सन्नाटे में इस पुराने शहर की हर ईंट हमारे कदमों की गवाह है। उनकी पीली, जर्द आंखों में जब हमारी छाया पड़ जाती है तो कहीं कुछ सिहर-सा जाता है। मानो बीते समय की कोई परत धीमे से खुल गई हो...(चीड़ो पर चांदनी-निर्मल वर्मा) उस वक्त के प्राग की चांदनी रात थी।
मैं प्राग की चांदनी सुबह देख रही थी। हल्की बूंदाबांदी के बीच। नीली छतरी लिए हुए। यकीन नहीं होता कि किसी सपने का पीछा करते करते आप वहां तक पहुंच जाएं और सपने हथेलियों में किसी नरम चिड़ियां की तरह गुदगुदाते रहेंगे। भारतीयो के बीच प्राग उतना लोकप्रिय सैरगाह नहीं है। लेकिन जिन्होंने चीड़ो पर चांदनी पढी हो उनके लिए प्राग एक रुमानी शहर है। यूरोप की यात्रा के दौरान प्राग का विचार  मन में ऐसे ही नहीं आया। चीड़ो पर चांदनी दिमाग पर हावी थी। व्रत्लावा नदी, प्राग को दोनो छोर को जोड़ता हुआ चार्ल्स ब्रीज, रहस्यमयी कहानियों से भरी हुई माला-स्त्राणा की पथरीली गलियां, बीयर बार, घोस्ट टूर, लारोन्तो चैपल, जहां एक साथ 27 घंटियां बजती है अपनी मायावी धुन के साथ, ये सब कुछ स्मृतियों में घुसे थे, रुमानी किशोर मन के साथ। इसकी रुमानियत अभी बाकी थी कि मिलेना-काफ्का के प्रेम संबंधो ने मन में जादुई लय बना दी । प्राग जैसे अनदेखे ही धड़कता रहा। उसी प्राग के चार्ल्स ब्रीज पर खड़े होकर काफ्का का म्युयिजम तलाश रहे थे हम। आम सैलानी हैरान थे। उनकी नजर में वह जगह सैरगाह कैसे हो सकती है। प्राग वो शहर है जहां काफ्का का जन्म हुआ और जो अप्रत्यक्ष, अघोषित रुप से उनकी हर रचना में शामिल होता रहा। मेरे लिए सपने के सच होने का पल था। जब मैंने चहकते हुए पूछा तो चार्ल्स ब्रीज पर ठेले पर गिफ्ट का सामान बेचती हुई सुंदर सी चेक लड़की भी हैरान हुई...उसने इशारा किया...वो देखो...कोने पर, छोटी सी इमारत है, दस मिनट की वाकिंग है...। वह टूटी फूटी इंगलिश में बता रही थी जो उसने पर्यटको के लिए ही सीखी होगी।

मुझे अंदाजा भी नही था कि इतने पास है काफ्का की मौजूदगी...बूंदाबूंदी की ठंडक जैसे रगो में दौड़ी तो सिहरन हुई। पता नहीं, आंतरिक प्रतिक्रिया थी या मिलेना-काफ्का से मिलने का रोमांच। अपनी तो यात्रा इसके बाद संपन्न होती है। अपना शहर कहीं पीछे छूट जाता है। निर्मल वर्मा सिंड्रोम की शिकार मैं, उन्ही की तरह याद करती हूं, टाल्स्टाय की पंक्तियां—जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जाते हैं, आधी यात्रा पर पीछे छूटे हुए शहर की स्मृतियां मंडराती हैं, केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारे में सोच पाते हैं, जहां हम जा रहे हैं। अब सिर्फ प्राग है, मेरी चेतना में फड़फड़ाता हुआ। 
चार्ल्स ब्रीज पर, हल्की बूंदी बांदी के बीच वहां तक जाते हुए काफ्का और मिलेना के संबंधो, खतो किताबत, संस्मरणों की पंक्तियां कानों में जैसे बज रही हैं। जिंदगी से प्यार करने वाली एक निर्भीक पत्रकार मिलेना, और जिंदगी डरने वाला एक जर्मन-चेक लेखक फ्रांज काफ्का। मिलेना ने अपने मार्मिक स्मृतिलेख में लिखा है-एक बुधिमान आदमी, जिन्हें जिंदगी से डर लगता था।
ठीक उलट फ्रांज काफ्का ने मिलेना के बारे में कहा था कि वह जलती हुई आग है, ऐसी आग मैंने आजतक नहीं देखी। साथ ही साथ बेहद स्नेहमयी, बहादुर और समझदार, वह ये सारी चीजें अपने त्याग में उड़ेल देती है या आप यूं कह सकते हैं कि त्याग के जरिए उस तक आती है...।
मिलेना की दोस्त मार्गरेट बुबेर न्यूमान ने लिखा है कि मिलेना और काफ्का के बीच प्रणय संबंधो की शुरुआत मेरानो में सन 1920 में हुई। यह करुणा और अवसाद से भरा प्यार था। काफ्का के संस्मरणों के टुकड़े पढे तो उनके संबंधो की जटिलताएं स्पष्ट होती है। काफ्का लिखते हैं-प्रेम की राह हमेशा गंदगी और यातना से होकर गुजरती है.., वह हर चीज प्रेम है, जो जीवन को समृद्दि और विस्तार देती है..ऊंचाईयो और गहराईयों, दोनो में..(काफ्का के संस्मरण)
मिलेना की आवाज सुनाई देती है...मैं जिंदगी से प्यार करती हूं, इसके सभी प्रश्नो में, इसके सभी अर्थो में, रोजमर्रा की जिंदगी और छुट्टी की जिंदगी, इसकी सतह पर और उसकी गहराईयों को हर तरह से जादुई जिंदगी को प्यार करती हूं...।
नदी के ऊपर, 700 साल पुराने चार्ल्स ब्रीज पर चलते हुए मैं जिया और अजीत का हाथ जोर से कस लेती हूं। हम तीनों इस प्रेम के कुछ निशां देखने जा रहे थे।

काफ्का की जिंदगी को अपने आप में समेटे काफ्का म्यूजियम के बाहर खड़े होकर कुछ पल के लिए हम संबंधो की जटिल धागों से बाहर आ गए थे। बेहद दिलचस्प नजारा था। छोटी इमारत और बड़ा सा अहाता। बीचोबीच दो ब्रोंच मूर्तियां आमने सामने एक दूसरे के सामने पेशाब करती हुई। लगातार पानी की धारा उनके अंग से फूट रही थी। बताया गया कि सन 2004 में प्राग के मूर्तिकार डेविड केमे ने पीसिंग मैन स्ट्रीम जैसी हास्यास्पद मूर्ति बनाई।

कुछ पयर्टक खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे। मेरी सात वर्षीय बेटी जिया यह देखकर जोर से उछली। कौतूहल ने उसके भीतर हास्य पैदा कर दिया था। पेशाब का पानी छोटे से घेरे में तालाब की तरह भर रहा था। जहां कुछ स्थानीय लोग चेक सिक्के फेंकते हुए कुछ बुदबुदा रहे थे। हम अपलक कुछ देर देखते रहे। अचानक एक बूढा किसी कहानी से निकल कर आया हो जैसे, हाथ में छड़ी थी। उसने पानी में छड़ी डाली, सारे सिक्के उसमें चिपक गए। उन्हें हथेलियों में समेटता हुआ वह माला-स्त्राणा की गलियों में गुम हो गया। बाद में म्युजियम की लेडी केयर टेकर से पूछने पर पता चला कि लोग मनौती मानते हैं, सिक्के डाल कर। यह बूढा फकीर है, पैसे वह ले जाता है और शायद..उसने शायद पर जोर दिया..किसी बीयर बार में शामें बिताता है..दिन फक्कड़, शामें रंगीन।

ओल्ड टाउन से चार्ल्स ब्रिज पार करके जब इस म्यूजियम में घुसते हैं तो एक बार को लगता है कि आप इस दुनिया में हैं वो आपकी नहीं काफ्का की है। इसमें काफ्का का जिंदगीनामा है। हल्का अंधेरा तो कभी अंधेरे उजाले की लुका-छिपी, लगातार कानों में पड़ता कुछ अलग सा साउण्ड ट्रेक। बहुत से उत्तेजक चित्र, काफ्का द्वारा बनाए गए स्केचेज जैसे काफ्का का आमंत्रण हो कि आओ, कुछ तो कोशिश करो, मुझे जानने और समझने की। काफ्का की डायरी, उनकी रचनाओं की पहल प्रति। उनके वे प्रेम पत्र जो उन्होंने अपनी मंगेतर फेलिस बोउवार को 1912 से 1917 के बीच लिखें और दिखेंगी माइलेना जेसेन्सका जिनसे ना सिर्फ काफ्का को इश्क हुआ बल्कि जिसके साथ बर्लिन में वो कुछ साल रहे भी। भूतो के रुमानी और दारुण किस्से से भरे इस शहर में क्या काफ्का और मिलेना की आत्माएं यहां आती होंगी। कहते हैं कि माला-स्त्राणा की ही गलियों में एक सैनिक अपना कटा हुआ सिर टाट के बोरे में लेकर घूमता रहता है। या 16 वीं शताब्दी का एक जवान भूत प्राग की ऊंची इमारतो में हर पूर्णिमा की रात अपनी बेवफा प्रेमिका की याद में रोता है। पहले चार्ल्स ब्रीज पर दोनो तरफ बनी ऊंची ऊंची मूर्तियां, उसकी मायावी कथाएं, भूतहा सैरगाह और टावर क्लाक की घंटी का स्वर, ये सारी चीजें विस्मृत थी इस वक्त। ये काफ्का की जटिल दुनिया से गुजरते, मिलेना के निशां तलाशते हुए कुछ देर ठिठक गए हैं हम। मिलेना के चित्र और कुछ चिठ्ठियां वहां मौजूद हैं। काफ्का और मिलेना दोनो की हैंड राइटिग देर तक देखते रहे। मेटामाफोर्सिस और दी ट्रायल जैसी किताबो की पांडुलिपि देखी...कितने करेक्शन किए थे काफ्का ने तब। पन्नो पर काली स्याही से कई कई लाइनें कटी हुईं। रोमांच के क्षण थे। वैसा ही रोमांच हुआ जब मैंने महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्व विधालय के संग्रहालय में निराला के हाथो लिखी जूही की कली कविता देखी...स्नेह स्वप्न मग्न होकर...।
हालांकि अंदर जाकर अंग्रेजी में आपके लिए सब जानकारियां उपलब्ध हैं। पर अगर कहीं आपको जर्मन पढनी आती है तो समझिए कि आपकी पौ बारह हो गई। दो से ढाई घंटे का समय चाहिए अंदर सारी चीजें देखने के लिए। अंदर जाने का टिकट मिलता है, 180 चेक क्राउन्स का। यहां रिसेप्शन काउंटर पर ही एक मैप लगा है जिस पर काफ्का से जुड़ी हर जगह का पता हाईलाइट किया हुआ है।
म्युजियम में काफ्का से जुड़ी हर छोटी बड़ी चीज इस तरह से सहेज कर रखी गई है कि आपको लगने लगता है कि आप उनकी ही किसी किताब में विचरण के लिए निकल पड़े हैं। अपने जीवन काल में प्राग से अलग थलग रहने वाले लेखक की यादों को इस शहर ने जिस तरह अपने सीने से लगा रखा है वो काफ्का की ही पंक्तियों की याद दिला गई..
ए बिलिफ इज लाइक ए ग्यूलोटाइन जस्ट एज हैवी जस्ट एज लाइट (आस्था ग्यूलोटाइन की तरह है  जितनी भारी उतनी ही हल्की)
मलबे में बदलते हुए लेखकों के मकानों, मिट्टी में मिलते उनके निशां को देखते हुए क्या हम अपने देश, अपने शहर से लेखक-प्रेम की ऐसी उम्मीद कर सकते हैं ?

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