कुशी नगर यात्रा
यहां बुद्ध सो रहे हैं
गीताश्री
वहां बुद्ध सो रहे हैं लेकिन लोग यह मान कर मंत्र बुदबुदा रहे हैं कि वे सुन
रहे हैं। अपने हिसाब से सारे लोग प्रत्युत्तर भी ग्रहण कर रहे हैं। वहां मौजूद
लोगों को क्या पता कि एक बार फिर वैशाली की कोई स्त्री हाथ जोड़े कुछ बुदबुदा रही
है और बुद्ध के सोए होठों से कुछ गुनगुन आ रही है-
“कोई किसी को नहीं बचा सकता भद्रे..जहां आग की लपट है, उसके निकट कहीं पानी का
झरना है..अशांति के कंटक-कानन में ही शांति की चिड़िया का घोसला है, उस झरने, उस
घोंसले को खुद खोजना होता है। दूसरा, ज्यादा से ज्यादा रास्ता भर बता सकता है...” (अंबपाली-रामवृक्ष
बेनीपुरी से साभार)
अंबपाली को सब साफ सुनाई दे रहा है। वह मार्ग पूछती है और उसे लंबी जिरह के
बाद मार्ग मिल जाता है।
महापरिनिर्वाण टेंपल में बुद्ध खामोशी से सो रहे हैं। उनकी 6.10 मीटर लंबी
काया उनके चाहने वालों को अभिभूत कर रही है। जिधर से देखो, अलग अलग छवियां दिखाई
दे रही हैं। दूर दराज से तीर्थ के लिए आए बौद्ध धर्मावलंबी हाथ जोड़े भाव विह्वल
हैं। सबके मन में में कोई न कोई संवाद चल रहा होगा। सबको शायद जवाब भी मिल रहा हो।
वहां से लौटते लोगों के चेहरे पर कातरता साफ देखी जा सकती थी। श्रीलंका के एक
यात्री देर से मुझे देख रहे थे। उनके भीतर कुछ सवाल थे। मेरे पलटते ही सवालो की
झड़ी...और जब मैंने उन्हें बताया कि मैं वैशाली की रहने वाली हूं तो वह उछल पड़ा।
टूटी फूटी इंगलिश में बोले-“वहां जाना मेरा ख्वाब है। मैं देखना चाहता हूं वह नगर जहां
बौद्ध मठो में स्त्रियों का पहली बार प्रवेश हुआ। वह अंबपाली का नाम ठीक से नहीं
जानता था पर इतना जानता था कि भगवान बुद्ध और उनके परम भक्त आनंद के बीच बहुत बहसे
हुईं थीं। एक राजनर्तकी ने उन्हें तर्क से झुका कर संघ के द्वार स्त्रियों के लिए
खुलवा दिए थे।“
मैं जल्दी में थी। मेरा सेमिनार छूट रहा था। गोरखपुर और देवरिया से सटे कुशीनगर
की पहली भोर थी। मुझे जल्दी जल्दी बुद्ध की आखिरी नींद देखनी थी। वह तमाम जगहें
देखनी थीं जहां जहां बुद्ध ने सब कुछ आखिरी बार किया। आखिरी खाना खाया, जिस नदी
में आखिरी बार स्नान किया और जहां आखिरी सांस लीं। जहां उनका आखिरी क्रियाक्रम हुआ
और जहां उनकी अस्थियों को दफनाया गया। यह अलग बात है कि खुदाई में अस्थियां नहीं
मिलीं। लेकिन बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए अस्थियां अब भी वहीं हैं। काल की खोह में
कहीं गहरे दबी हुई। कई बार आस्था साक्ष्यों की मोहताज नहीं होती। भक्तो के लिए
बुद्ध यहीं कहीं दफ्न हैं। उनकी छाया है। आखिरी सांसे हवा में घुली हुई हैं।
जापान, थाईलैंड, श्रीलंका और ताइवान से आए यात्री यहां ध्यान मग्न हैं। उन्हें कोई
जल्दी नहीं है। वे अपने नथुने भर उठा उठा कर हवा भर रहे हैं अपने फेफड़ो में। स्तूप
पर माथा टेक टेक कर भाव विह्वल हो रहे हैं। उनकी यह कातरता मेरे भीतर की अहर्निश
बारिश को और तेज कर देती है। बिना शोर मैं अपनी भीतरी आवाजें सुनने लगती हूं।
पवित्र स्तूप पर जहां अगरबत्ती जलाने और सुनहरे टीका चढ़ाने के लिए लंबी लाइन लगी
हुई थी। चारो तरफ शांति। इसी बेशकीमती शांति की खोज में दुनिया भटक रही है। हम सब
भटक रहे हैं। इसी भटकन ने कुशी नगर की एक सुबह मुझे सोते हुए बुद्धा के पास ला
खड़ा किया था।
कुशीनगर मेरे सपनों का वांछित नगर रहा है। जब दिल से चाहो तो कोई न कोई ट्रेन
आपको वांछित सपने तक पहुंचा ही देती है। मेरे साथ भी यही हुआ था। ना ना करते हुए
मैं द्वार पर थी जहां सदियों से पहुंचने का स्वप्न देखा होगा।
रामाभर स्तूप के लिए प्रवेश करते हुए गेट पर इंट्री करनी होती है। रजिस्टर
लेकर कुछ बौद्ध भिक्क्षु बैठे हुए थे।
“अरे आप रहने दें...आप नई थोड़े न हैं, आप तो पहले भी आ चुकी हैं यहां...जाइए..”
मैंने आश्चर्य से न तीनों भिक्षुओं को देखा। मैं पहली बार आई थी। क्या इच्छाएं
भी सरुप यात्राएं करती हैं जिन्हे ये साधक देख पाते हैं या उनका अनुमान था। मैं
चलते चलते उन्हें देखती हुई बोल पड़ी..
”मैं तो पहली बार आई हूं...”
एक ने पूछा, “आप कहां से आई हैं ?”
मैंने कहा, “दिल्ली से, लेकिन हूं मैं वैशाली की..आपने पूर्वजन्म में देखा होगा मुझे...मैं
हंसती हुई स्तूप की तरफ बढ गई। तीनों भिक्षु की निगाहें मेरा पीछा कर रही थीं।
मेरे पास समय कम था क्योंकि यह भोर निकल गई तो मंत्रसिक्त हवाएं लोप न हो जाएं।
बुद्ध की नींद में, स्तूप पर जलती हुई अगरबत्तियों के धुएं में..।
मैं तो खुद सवालों से भरी हुई चली जा रही थी। आखिर बुद्ध ने ऐसा क्या देखा
कुशीनगर में ? इस नगर का चयन क्यों किया? इतिहास के तथ्य खंगाल कर आई थी सो इतना पता था कि यह नगर
प्राचीन काल में कई नामों से जाना जाता था। कुशावती और कुशीनारा भी इसे ही नाम थे।
कालांतर में इसका नाम कुशीनगर पड़ गया। मिथको के अनुसार अयोध्या के राजा राम के एक
पुत्र कुश ने इस नगर को बसाया था। यह मल्ल राजाओं की राजधानी भी थी। मल्ल राजाओं
ने बुद्ध के अंतिम संस्कार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जब पांचवी
शताब्दी में फाहियान ने और सांतवीं शताब्दी में व्हेनसांग ने इस इलाके की यात्रा
की तो इसे निर्जन स्थान पाया था। आधुनिक कुशीनगर की खोज 19वीं शताब्दी में भारत के
पहले पुरात्तववेत्ता अलेक्जेंडर ने (1860-61
में) कनिंघम द्वारा इस क्षेत्र की खुदाई
की गई और इसके बाद कुशीनगर को महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल माना गया। कनिंघम के उत्खनन
के समय यहाँ पर 'माथा कुँवर का कोट' एवं 'रामाभार' नामक दो बड़े व कुछ
अन्य छोटे टीले पाये गये। 1875-77 में कार्लाईल ने, 1896 में विंसेंट ने तथा 1910-12 में हीरानन्द शास्त्री द्वारा इस क्षेत्र का उत्खनन किया गया।
बाद में मुख्य स्तूप भी खोज निकाला गया। वर्मा के एक बौद्ध भिक्षु चंद्रास्वामी भारत आए और उन्होंने 1903
में महानिर्वाण टेंपल का निर्माण करवाया जहां मैं सोते हुए बुद्ध के चेहरे पर एक
पूरा कालखंड खोज रही थी। कुछ परछाईयां डोल रही थीं। कुछ सवालों की छाया थी। कुछ के
जवाब तो वैसे ही समझ में आ रहे थे कि बुद्ध ने कुशीनगर को क्यों चुना होगा। वे
चुनते थे जहां वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, जहां वे जी सकें, जहां वे मर सकें। मरने
के लए उन्हें एक समृद्ध नगर की तलाश थी। उस कालखंड में कुशीनगर बहुत समृद्ध मगर
रहा होगा और वह आज भी है। जिस धरती पर बुद्ध की अंतिम सांसे हों वह नगर भला कभी
समृद्ध कैसे न रहे। वे नदियां अब भी वहीं बहती हैं जहां बुद्ध ने अंतिम स्नान किया
होगा। क्या पानी ने अपनी गवाही और अपने स्पर्श बचा रखे होंगे। काकुथा नदी जहां
बुद्ध ने अंतिम स्नान किया था, वह अपने इस गौरव को भुला पाएगी कभी। हिरण्यवती नदीं
जहां बुद्ध के पार्थिव शरीर को अंतिम बार नहलाया गया, वह अब भी धरती की बेनूरी पर
रोती होगी। बुद्ध ने कुछ तो कहा होगा कि ये नदियां सदानीरा रहीं। यह सब कुछ सोचती
हुई अनमनी सी मैं लौट रही थी। तब तक मेरे साथ प्रख्यात कथाकार वंदना राग भी शामिल
हो चुकी थी । हम दोनों ने वहां छोटे छोटे टीले देखें और पूरे युग के बारे में
सोचा। हमारी बातों में बौद्धिज्म भी था और संघ में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर उस
काल का संशय भी। गेट से बाहर निकलते हुए
सफेद कपड़ो में लिपटी एक ताइवानी लड़की दिखी जो अपनी आंखें सबसे छिपा रही
थी। ज्यादातर बौद्ध धमार्वलंबी यात्री सफेद कपड़ो में आए थे। वह लड़की ओझल हो गई
लेकिन मेरे कानों में अंबपाली को कहे गए बुद्ध के अंतिम वाक्य सुनाई दिए-
“संन्यास या भिक्षुपन कुछ नहीं, थकी हुई आत्माओं का आत्मसमपर्ण है।“
( अंबपाली, नाटक-रामवृक्ष बेनीपुरी)
अंबपाली भी थक गई थी, उससे यह बोझ नहीं ढोया जा
रहा होगा...!
……
(कांदबिनी के अप्रैल अंक-2016 में प्रकाशित)