Wednesday, October 21, 2015

यात्रा-कोलाज
नदी की देह पर सदियों की परछाई और काफ्का
गीताश्री

वैसे भी यहां बहुत से कोने हैं, चांदनी रात में छिपे हुए, फीके, उजले, खामोश-माला—स्त्राणा की सदियों पुरानी, टेढी मेढी, गलियों में चलते हुए पांव खुद-ब-खुद धीमे हो जाते है। लगता है, रात के सन्नाटे में इस पुराने शहर की हर ईंट हमारे कदमों की गवाह है। उनकी पीली, जर्द आंखों में जब हमारी छाया पड़ जाती है तो कहीं कुछ सिहर-सा जाता है। मानो बीते समय की कोई परत धीमे से खुल गई हो...(चीड़ो पर चांदनी-निर्मल वर्मा) उस वक्त के प्राग की चांदनी रात थी।
मैं प्राग की चांदनी सुबह देख रही थी। हल्की बूंदाबांदी के बीच। नीली छतरी लिए हुए। यकीन नहीं होता कि किसी सपने का पीछा करते करते आप वहां तक पहुंच जाएं और सपने हथेलियों में किसी नरम चिड़ियां की तरह गुदगुदाते रहेंगे। भारतीयो के बीच प्राग उतना लोकप्रिय सैरगाह नहीं है। लेकिन जिन्होंने चीड़ो पर चांदनी पढी हो उनके लिए प्राग एक रुमानी शहर है। यूरोप की यात्रा के दौरान प्राग का विचार  मन में ऐसे ही नहीं आया। चीड़ो पर चांदनी दिमाग पर हावी थी। व्रत्लावा नदी, प्राग को दोनो छोर को जोड़ता हुआ चार्ल्स ब्रीज, रहस्यमयी कहानियों से भरी हुई माला-स्त्राणा की पथरीली गलियां, बीयर बार, घोस्ट टूर, लारोन्तो चैपल, जहां एक साथ 27 घंटियां बजती है अपनी मायावी धुन के साथ, ये सब कुछ स्मृतियों में घुसे थे, रुमानी किशोर मन के साथ। इसकी रुमानियत अभी बाकी थी कि मिलेना-काफ्का के प्रेम संबंधो ने मन में जादुई लय बना दी । प्राग जैसे अनदेखे ही धड़कता रहा। उसी प्राग के चार्ल्स ब्रीज पर खड़े होकर काफ्का का म्युयिजम तलाश रहे थे हम। आम सैलानी हैरान थे। उनकी नजर में वह जगह सैरगाह कैसे हो सकती है। प्राग वो शहर है जहां काफ्का का जन्म हुआ और जो अप्रत्यक्ष, अघोषित रुप से उनकी हर रचना में शामिल होता रहा। मेरे लिए सपने के सच होने का पल था। जब मैंने चहकते हुए पूछा तो चार्ल्स ब्रीज पर ठेले पर गिफ्ट का सामान बेचती हुई सुंदर सी चेक लड़की भी हैरान हुई...उसने इशारा किया...वो देखो...कोने पर, छोटी सी इमारत है, दस मिनट की वाकिंग है...। वह टूटी फूटी इंगलिश में बता रही थी जो उसने पर्यटको के लिए ही सीखी होगी।

मुझे अंदाजा भी नही था कि इतने पास है काफ्का की मौजूदगी...बूंदाबूंदी की ठंडक जैसे रगो में दौड़ी तो सिहरन हुई। पता नहीं, आंतरिक प्रतिक्रिया थी या मिलेना-काफ्का से मिलने का रोमांच। अपनी तो यात्रा इसके बाद संपन्न होती है। अपना शहर कहीं पीछे छूट जाता है। निर्मल वर्मा सिंड्रोम की शिकार मैं, उन्ही की तरह याद करती हूं, टाल्स्टाय की पंक्तियां—जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जाते हैं, आधी यात्रा पर पीछे छूटे हुए शहर की स्मृतियां मंडराती हैं, केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारे में सोच पाते हैं, जहां हम जा रहे हैं। अब सिर्फ प्राग है, मेरी चेतना में फड़फड़ाता हुआ। 
चार्ल्स ब्रीज पर, हल्की बूंदी बांदी के बीच वहां तक जाते हुए काफ्का और मिलेना के संबंधो, खतो किताबत, संस्मरणों की पंक्तियां कानों में जैसे बज रही हैं। जिंदगी से प्यार करने वाली एक निर्भीक पत्रकार मिलेना, और जिंदगी डरने वाला एक जर्मन-चेक लेखक फ्रांज काफ्का। मिलेना ने अपने मार्मिक स्मृतिलेख में लिखा है-एक बुधिमान आदमी, जिन्हें जिंदगी से डर लगता था।
ठीक उलट फ्रांज काफ्का ने मिलेना के बारे में कहा था कि वह जलती हुई आग है, ऐसी आग मैंने आजतक नहीं देखी। साथ ही साथ बेहद स्नेहमयी, बहादुर और समझदार, वह ये सारी चीजें अपने त्याग में उड़ेल देती है या आप यूं कह सकते हैं कि त्याग के जरिए उस तक आती है...।
मिलेना की दोस्त मार्गरेट बुबेर न्यूमान ने लिखा है कि मिलेना और काफ्का के बीच प्रणय संबंधो की शुरुआत मेरानो में सन 1920 में हुई। यह करुणा और अवसाद से भरा प्यार था। काफ्का के संस्मरणों के टुकड़े पढे तो उनके संबंधो की जटिलताएं स्पष्ट होती है। काफ्का लिखते हैं-प्रेम की राह हमेशा गंदगी और यातना से होकर गुजरती है.., वह हर चीज प्रेम है, जो जीवन को समृद्दि और विस्तार देती है..ऊंचाईयो और गहराईयों, दोनो में..(काफ्का के संस्मरण)
मिलेना की आवाज सुनाई देती है...मैं जिंदगी से प्यार करती हूं, इसके सभी प्रश्नो में, इसके सभी अर्थो में, रोजमर्रा की जिंदगी और छुट्टी की जिंदगी, इसकी सतह पर और उसकी गहराईयों को हर तरह से जादुई जिंदगी को प्यार करती हूं...।
नदी के ऊपर, 700 साल पुराने चार्ल्स ब्रीज पर चलते हुए मैं जिया और अजीत का हाथ जोर से कस लेती हूं। हम तीनों इस प्रेम के कुछ निशां देखने जा रहे थे।

काफ्का की जिंदगी को अपने आप में समेटे काफ्का म्यूजियम के बाहर खड़े होकर कुछ पल के लिए हम संबंधो की जटिल धागों से बाहर आ गए थे। बेहद दिलचस्प नजारा था। छोटी इमारत और बड़ा सा अहाता। बीचोबीच दो ब्रोंच मूर्तियां आमने सामने एक दूसरे के सामने पेशाब करती हुई। लगातार पानी की धारा उनके अंग से फूट रही थी। बताया गया कि सन 2004 में प्राग के मूर्तिकार डेविड केमे ने पीसिंग मैन स्ट्रीम जैसी हास्यास्पद मूर्ति बनाई।

कुछ पयर्टक खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे। मेरी सात वर्षीय बेटी जिया यह देखकर जोर से उछली। कौतूहल ने उसके भीतर हास्य पैदा कर दिया था। पेशाब का पानी छोटे से घेरे में तालाब की तरह भर रहा था। जहां कुछ स्थानीय लोग चेक सिक्के फेंकते हुए कुछ बुदबुदा रहे थे। हम अपलक कुछ देर देखते रहे। अचानक एक बूढा किसी कहानी से निकल कर आया हो जैसे, हाथ में छड़ी थी। उसने पानी में छड़ी डाली, सारे सिक्के उसमें चिपक गए। उन्हें हथेलियों में समेटता हुआ वह माला-स्त्राणा की गलियों में गुम हो गया। बाद में म्युजियम की लेडी केयर टेकर से पूछने पर पता चला कि लोग मनौती मानते हैं, सिक्के डाल कर। यह बूढा फकीर है, पैसे वह ले जाता है और शायद..उसने शायद पर जोर दिया..किसी बीयर बार में शामें बिताता है..दिन फक्कड़, शामें रंगीन।

ओल्ड टाउन से चार्ल्स ब्रिज पार करके जब इस म्यूजियम में घुसते हैं तो एक बार को लगता है कि आप इस दुनिया में हैं वो आपकी नहीं काफ्का की है। इसमें काफ्का का जिंदगीनामा है। हल्का अंधेरा तो कभी अंधेरे उजाले की लुका-छिपी, लगातार कानों में पड़ता कुछ अलग सा साउण्ड ट्रेक। बहुत से उत्तेजक चित्र, काफ्का द्वारा बनाए गए स्केचेज जैसे काफ्का का आमंत्रण हो कि आओ, कुछ तो कोशिश करो, मुझे जानने और समझने की। काफ्का की डायरी, उनकी रचनाओं की पहल प्रति। उनके वे प्रेम पत्र जो उन्होंने अपनी मंगेतर फेलिस बोउवार को 1912 से 1917 के बीच लिखें और दिखेंगी माइलेना जेसेन्सका जिनसे ना सिर्फ काफ्का को इश्क हुआ बल्कि जिसके साथ बर्लिन में वो कुछ साल रहे भी। भूतो के रुमानी और दारुण किस्से से भरे इस शहर में क्या काफ्का और मिलेना की आत्माएं यहां आती होंगी। कहते हैं कि माला-स्त्राणा की ही गलियों में एक सैनिक अपना कटा हुआ सिर टाट के बोरे में लेकर घूमता रहता है। या 16 वीं शताब्दी का एक जवान भूत प्राग की ऊंची इमारतो में हर पूर्णिमा की रात अपनी बेवफा प्रेमिका की याद में रोता है। पहले चार्ल्स ब्रीज पर दोनो तरफ बनी ऊंची ऊंची मूर्तियां, उसकी मायावी कथाएं, भूतहा सैरगाह और टावर क्लाक की घंटी का स्वर, ये सारी चीजें विस्मृत थी इस वक्त। ये काफ्का की जटिल दुनिया से गुजरते, मिलेना के निशां तलाशते हुए कुछ देर ठिठक गए हैं हम। मिलेना के चित्र और कुछ चिठ्ठियां वहां मौजूद हैं। काफ्का और मिलेना दोनो की हैंड राइटिग देर तक देखते रहे। मेटामाफोर्सिस और दी ट्रायल जैसी किताबो की पांडुलिपि देखी...कितने करेक्शन किए थे काफ्का ने तब। पन्नो पर काली स्याही से कई कई लाइनें कटी हुईं। रोमांच के क्षण थे। वैसा ही रोमांच हुआ जब मैंने महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्व विधालय के संग्रहालय में निराला के हाथो लिखी जूही की कली कविता देखी...स्नेह स्वप्न मग्न होकर...।
हालांकि अंदर जाकर अंग्रेजी में आपके लिए सब जानकारियां उपलब्ध हैं। पर अगर कहीं आपको जर्मन पढनी आती है तो समझिए कि आपकी पौ बारह हो गई। दो से ढाई घंटे का समय चाहिए अंदर सारी चीजें देखने के लिए। अंदर जाने का टिकट मिलता है, 180 चेक क्राउन्स का। यहां रिसेप्शन काउंटर पर ही एक मैप लगा है जिस पर काफ्का से जुड़ी हर जगह का पता हाईलाइट किया हुआ है।
म्युजियम में काफ्का से जुड़ी हर छोटी बड़ी चीज इस तरह से सहेज कर रखी गई है कि आपको लगने लगता है कि आप उनकी ही किसी किताब में विचरण के लिए निकल पड़े हैं। अपने जीवन काल में प्राग से अलग थलग रहने वाले लेखक की यादों को इस शहर ने जिस तरह अपने सीने से लगा रखा है वो काफ्का की ही पंक्तियों की याद दिला गई..
ए बिलिफ इज लाइक ए ग्यूलोटाइन जस्ट एज हैवी जस्ट एज लाइट (आस्था ग्यूलोटाइन की तरह है  जितनी भारी उतनी ही हल्की)
मलबे में बदलते हुए लेखकों के मकानों, मिट्टी में मिलते उनके निशां को देखते हुए क्या हम अपने देश, अपने शहर से लेखक-प्रेम की ऐसी उम्मीद कर सकते हैं ?

-----



Friday, October 16, 2015

यात्रा कोलाज - केरल

यात्रा कोलाज - केरल 

आश्चर्य का देवलोक

न जल्दी करो न परेशान हो। क्योंकि आप यहां एक छोटी-सी यात्रा पर हैं। इसीलिए निश्चिंत होकर रुकिए और फूलों की खूशबू का आनंद उठाइए...
                               (वाल्टर हेगन)

अथिरापल्ली झरना 
यही है ईश्वर, यही है ईश्वर...विराट है ईश्वर...और क्या है ईश्वर...यही तो है...विराट...

सामने विराट झरने को देखते हुए अल्का धनपत दोनों बांहे फैलाएं बुदबुदा रही थीं। शोर से भरा हुआ माहौल भी उनकी इस बुदबुदाहट को छिपा नहीं पाया। उनके चेहरे पर पानी की फुहिंयां पड़ रही थीं. वे गीलीं हो कर लगातार भव्यता के बयान में डूबी थीं।
यह नजारा वहां आम है....एक बार जो आता है, वह झरने के बाहुपाश में बंध जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया रीलीज फिल्म बाहूबली की भव्यता ने सिनेप्रेमियों को अपने मोहपाश में बांध लिया था। अल्का मारीशस से आईं थी, सेमिनार में भाग लेने। बहुत ही सुंदर द्वीप से आई हुईं विदुषी पर्यटक का चकित होकर इस तरह झरने को ईश्वरी रुप में स्वीकार लेना अनूठा अनुभव था हम सबके लिए।


केरल के त्रिशुर जिले का एक प्रसिद्ध ब्लाक कोंडुगलूर से पचास किलोमीटर दूर स्थित अथिरापल्ली के घने जंगलो में यह विराट झरना कई कारणों से प्रसिद्ध है। याद करिए...गुरु फिल्म में एक गाना---
गीताश्री
गीली चट्टान पर , बारिश में भींगते हुए ऐश्वर्या राय गा रही हैं....बरसो रे मेघा मेघा...बरसो रे..., यहीं है वो जगह जहां हजार मीटर ऊपर से झरना नीचे गिरता है और पत्थरों से टकरा कर पानी चारों तरफ धुंध की तरह छा जाता है। आप झरने के सामने मुंह करके खड़े हो तो पानी की छींटे भिंगो जाएंगे।  
बाहूबली फिल्म की याद तो ताजा होगी सबके जेहन में। बाहूबली इसी झरने की नीचे खड़ा होकर ऊपर की पहाड़ियों पर चढने का स्वप्न देखा करता था और झरने को पार करने के मंसूबे पाला करता था। जिसे एक दिन वह पार कर ही जाता है। इस विराट झरने को को कोई दैवीय शक्ति ही पार कर सकती है। बाहुबली की शूटिंग यही हुई थी।
झरने को पास से महसूसने के लिए, उसे चखने के लिए बहुत उतराई है और फिर उतनी ही चढाई भी है। दूर से भी देख सकते हैं लेकिन झरने के विराट स्वरुप को देखने और महसूस करने के लिए चढाई उतराई का कष्ट झेलना ही पड़ेगा। एक बार झरने का सामना होगा तो दुनिया ओझल हो जाएगी। सारी थकानें छूमंतर। सामने विराट स्वरुप और आप। दो विशिष्टों की मुलाकात और समयहीन होता समय। कभी अपने छोटे और निरीह होने का बोध तो कभी ईश्वरीय छटा देखने का गर्व। दोनों बांहे फैलाएं देर तक झरने को छू कर आती गीली हवा को अपने फेफड़ो में भर ताजादम हो सकते हैं। सारे विषाद धुल जाते हैं। झरने को एक निश्चत दूरी से देखते हैं। पास से देखने के कई खतरे। इतना खींचाव महसूस होता है कि पर्यटक रोक नहीं सकते खुद को। ठीक वैसे ही जैसे हल्के अंधेरे में समदंर खींचता है अपनी ओर।
केरल के पास प्राकृतिक सौंदर्य का अकूत खजाना है। अथिरापल्ली इलाके में ही दो और भव्य झरने हैं। पर्यटको का तांता लगा रहता है। कोंडुगुलूर ज्यादा लोकप्रिय पर्यटन स्थल नहीं है। इसीलिए अथिरापल्ली में स्थानीय पयर्टक ज्यादा दिखाई देते हैं। केरल आने वाले  पर्यटक सबसे ज्यादा दो जगहों पर जाना पसंद करते हैं। केरल का हिल स्टेशन मुन्नार और बैकवाटर के लिए फेसम एलेप्पी और कुमारकोम।  
जबकि केरल के चप्पे चप्पे पर प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, ऐतिहासिक और पौराणिक खजाना भी भरा पड़ा है। किसी शहर को रेशा रेशा खोलना (एक्सप्लोर) करना हो तो पोपुलर जगहों की नहीं, उसके सुदूर इलाको में जाना चाहिए। जहां जाकर आपके ज्ञान में बढोतरी ही होती है।
भरत मंदिर 
अगर कोंडुगुलर के अंदरुनी इलाके में हम न घूम रहे होते तो कैसे पता चलता कि देश का इकलौता भरत मंदिर यहां है। देश के किसी भाग में राम के भाईयों के मंदिर नहीं मिलेंगे। मगर कोंडुगुलूर के आसपास के इलाको में राम के अलावा सभी भाईयों के मंदिर मिलेंगे जहां उनको देवताओं की तरह पूजा जाता है।  बलुई पत्थरों से बना यह प्राचीनकालीन मंदिर हैं। इनका स्थापत्य ही उसकी प्राचीनता की ओर इंगित करता है। पांच किलोमीटर की दूरी पर भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न के नाम पर मंदिर हैं। ठीक वैसे ही जैसे देश भर में ब्रम्हा का एक ही मंदिर पुष्कर में है।
राम के तीसरे भाई भरत के नाम पर कोडलमनिक्यम मंदिर भी चेरा किंग सतनु रवि वर्मन के शासन काल में 854 ए डी में बना था। कोंडुगुलुर प्रखंड के इरींजालाकुड़ा गांव में स्थित इस मंदिर में भरत की छह फुटा मूर्ति है जिसका चेहरा पूरब की तरफ है।
अंदरुनी हिस्से में न घूमते तो यह भी पता न चलता कि मेथाला गांव में भारत की पहली मस्जिद की स्थापना हुई थी। जहां आज भी नमाज पढी जाती है। इस ऐतिहासिक धरोहर को प्रशासन ने आज तक सहेज संभाल कर रखा है और इसका विस्तार भी किया है। मस्जिद के साथ ही इसका संग्रहालय भी है जिसमें सदियों पुरानी धरोहरें दिखेंगीं। ऐतिहासिक दस्तावेजो के अनुसार इस मस्जिद की स्थापना 629 AD में हुई थी।

प्राचीन काल में भारत और अरब देशों के बीच व्यापारिक संबंध थे। अरब देशों के व्यापारी सुमद्गी रास्तों से भारत आते थे। वे जहां भी जाते, वहां अपने धर्म और संस्कृति को साथ ले कर जाते। बताते हैं कि अरब व्यापारियों का एक दल मालाबार क्षेत्र में आया तो उन्हें अपने धार्मिक स्थल की आवश्यकता महसूस हुई। इसी दौरान इस क्षेत्र के राजा चेरा , जिन्हें हजरत मौहम्मद का समकालीन माना जाता है, वे इनके संपर्क में आएं और इतने प्रभावित हुए कि इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। बाद में वे ताजुद्दीन नाम से मशहूर हुए।
राजा ने ही अरब के रहने वाले मलिक-बिन-दीनार को खत लिख कर यहां मस्जिद बनाने का आग्रह किया। 7वीं शताब्दी में अरब से व्यापारियों का एक दल मलिक बिन दीनार और मलिक बिन हबीब के नेतृत्व में केरल आया और इस मस्जिद की स्थापना की। उन्होंने राजा चेरा के नाम पर ही मस्जिद का नाम चेरामन मस्जिद रख दिया। 11वीं शताब्दी में इस मस्जिद का पुनरुद्धार हुआ और उसके बाद कई बार इसका परिसर बढाया गया। सांप्रदायिक सदभाव की प्रतीक मस्जिद आज भी चमकती है। इसके रखरखाव पर खासा जोर रहता है। क्योंकि यह मस्जिद गैर मुस्लिमों के बीच भी श्रद्धा का केंद्र बनी हुई है। हिंदू परिवार के लोग अपने बच्चे का विधारंभ उत्सव इसी मस्जिद में करते हैं।

भरत मंदिर परिसर 
केरल के छोटे छोटे विकसित गांवों में प्रकृति और इतिहास के कितने ही गौरवशाली पन्ने फड़फड़ाते मिलेंगे। कोंडुगुलूर का पचास साल पहले बना एम ई एस अस्माबी कालेज भी उतना ही गौरवशाली है। पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत में अकेला राज्य है केरल जहां हिंदी के प्रति बैर का भाव नहीं, जहां हिंदी सबको समझ में आती है और थोड़ा बहुत सब बोल लेते हैं। खासकर टूरिज्म से, ड्राइविंग से और रेस्तरां से, अध्यापन से, किसी भी व्यवसाय से जुड़े लोग हिंदी अच्छी बोल लेते हैं। केरल के तन पर जितना पानी है उतना ही पानी केरल के लोगों और उनके मिलनसार स्वभाव में है। नारियल पानी की मिठास उनकी हंसी में मिलेगी और नेह उनके आतिथ्य में। केरल का खानपान भी लजीज है। कई प्रकार के व्यंजन है जिसका स्वाद सिर्फ वहीं जाकर लिया जा सकता है। कहते हैं न कि खाने का मौलिक स्वाद में उस जगह की हवा और पानी का भी योगदान होता है। सुखद ये कि जिस कालेज में हिंदी सेकेंड लैंगेवेज की तरह पढाई जाती है वहां हिंदी में एक अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आश्वस्तिदायक लगा। विषय भी ऐसा कि एकबारगी आप हैरान हो जाएं... हिंदी साहित्य में सेना-सिविल संबंध। अमेरिका ( देवी नागरानी) मारिशस (अल्का धनपत) के अलावा देशभर से प्रतिभागी, वक्ता यहां जुटे और दो दिन तक हिंदी ही हिंदी छाई रही। चलते समय इसीलिए आयोजन मंडल से जुड़े प्रो. रंजीत माधवन ने कहा—आप लोग चले जाएंगे पर हमलोग कई दिन तक हिंदी में ही हिंदी की बातें करते रहेंगे।
आत्मीयता की ऐसी मिठास देवों की धरती पर ही संभव है।  


गीताश्री @ भरत मंदिर 



Friday, October 24, 2014



यादो के गलियारे में कुछ फूल, कुछ खुशबुएं
गीताश्री

महंथ दर्शन दास महिला कालेज, अस्सी का दशक।
रात के हंगामे के बाद सुबह सुबह होस्टल जैसे शांत पड़ा था। भीतर भीतर हलचल सी थी। हल्का सा खौफ, गुस्सा और आशंकाएं भी कि आज रात फिर न कहीं वही घटना घट जाए। वह दहशत की सुबह थी और मैं इस दहशत से मुक्त थी क्योंकि मेरे होस्टल में नहीं, दूसरे होस्टल में घटी थी, वह होस्टल ज्यादा खुला था। हम बंद बिल्डिंग में रहते थे। चारो तरफ से बंद, परिंदा भी रात में पर नहीं मार सकता था। प्रिंसेस होस्टल रेलवे लाइन के ज्यादा करीब था और उसकी चहारदीवारी तरप कर कोई भी असामाजिक तत्व के घुसने की संभावना थी। कभी ऐसा घटा नहीं था। उस रात घट गया। वह चोर था या गुंडा मवाली, पता नहीं पर चहारदीवारी फांद कर अंदर घुस चुका था। घुसा और पकड़ा गया। चीख पुकार मची, गार्ड और चपरासी दौड़े आए, वार्डन आईं, पुलिस आई, खूब मार पिटाई हुई, जेल गया। रात भर होस्टल में यह दहशत रही कि कहीं उसका दूसरा साथी यही कहीं छिपा तो न। दहशत की सुबह हुई और शोर मच गया..प्रिंसिपल दी आ रही हैं..ललिता दी आ रही है..। सुबह सुबह ही भगदड़ सा माहौल कि ललिता सिंह दी के सामने कौन जाएगा..कौन उन्हें घटना स्थल तक ले जाएगा। वार्डन तो साथ रहेंगी पर किसी नेता टाइप, साहसी लड़की को भी साथ होना चाहिए ना। अप्रैल की धूप बहुत कड़ी थी। मैं अपने होस्टल के बाहर ललिता  दी के इंतजार में खड़ी थी। मैं उनके साथ होना चाहती थी। वह लेडी, जिसे मैं अब तक दूर से देखा करती थी, जिनकी सुंदरता की मैं कायल थी, जिनकी चाल राजसी थी और जो कालेज में घुसती थी तब सारा कोलाहल थम सा जाता था। जो जहां हैं, कुछ पल के लिए वहीं ठिठक जाता था। हमारी निगाहे उनकी तरफ चोरी से उठती थी, वे गेट पर उतर कर सीधे पैदल चलती हुई अपने चेंबर तक जाती थीं। सफेद झक्क साड़ी, पले बार्डर वाली। सीधा पल्लू । हमें किसी फिल्म की नायिका जैसी लगती थीं। जिसे बार बार देखने का मन हो। हम गांव कस्बो से निकल कर आईं लड़कियां उनके इन राजसी ठाठ को सिहा सिहा कर देखा करती थीं और एक दिन खुद उनकी तरह बन जाने का सपना देखा करती थीं। वही ललिता दी होस्टल में आ रही थीं, घटना को समझने के लिए। लड़कियों का मनोबल, हिम्मत बढाने के लिए। सुरक्षा इंतजाम का जायजा लेने कि लिए। वह होस्टल के दौरे पर कम आयी थीं। उन्हें अपने वार्डन पर भरोसा था। इस तरह की घटना ने उन्हें विवश किया कि वे होस्टल का दौरा करें। अपने उसी राजसी चाल ढाल में, चपल गति से चलती हुईं ललिता दी आ रही थीं और उनके साथ कई प्रोफेसर, लड़कियां। मैं होस्टल के बाहर छतरी लेकर खड़ी थी। जैसे ही वे पास आईं, मैंने छतरी खोल कर उनके साथ हो ली। पूरे दौरे में मैं उनके साथ साथ, बाकी सब आगे पीछे। वार्डन उन्हें ब्रीफ कर रही थीं। गार्ड सब समझा रहा था। वे चारो तरफ जायजा ले रही थीं। मैं लगातार उनके साथ, उनके सिर पर छाता टांगे हुए। जैसे कोई महारानी के साथ चंवर लिए दासिया चलती हैं..। मैं आहलाद से भरी थी। धूप कड़ी थी। अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया, वे मेरी तरफ मुड़ी, हाथ बढा कर मुझे छाते के नीचे खींच लिया।
इधर आओ...तुम्हे धूप नहीं लग रही है क्या..हम दोनों इसमें आ जाएंगे..डरो नहीं..आओ..
एक छाते के नीचे आधे आधे धूप से बचते बचाते चलते रहे। बीच बीच में वे मुस्कुरा कर रात के बारे में पूछती और मैं जवाब देती, थोडी सहमी सहमी सी। हम सब पर ललिता दी का इतना दबदबा था कि हम बहुत ऊंची आवाज में बात नहीं कर सकते थे। कुछ लडकियों की फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी थी..पक्की चमची है..। मैंने झटक दिया। दिलजलो की परवाह न करना, बकवासो को अनसुना करना मैंने उसी दिन सीखा। मैंने कईयो की आंखों में अपने प्रति ईर्ष्या भाव भी देखा, हाय हाय हम क्यों न हुए टाइप चेहरे पर भाव आ जा रहे थे। मुझे परवाह नहीं, उसस वक्त मैं उस वक्त अलग मनोदशा में थी, वह उस वक्त का सबसे सुंदर पल था। जो मुझे नसीब से मिला था। मैं इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दे सकती थी, मुझे उनकी निकटता का अहसास लेना था। मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण की एक और वजह थी जिसे मैं आगे बताऊंगी।
उस दिन के बाद से ललिता दी मुझे पहचान गई थीं। चलते चलते उन्होने मुझसे नाम और क्लास पूछा था जो उन्हें तब तक याद रहा, जब तक मैं वहां से पढ कर निकली नहीं। फिर तो वे हर आयोजन से पहले एक बार जरुर बुलाती थी। चाहे आनंद मेले का आयोजन हो या वार्षिक खेलकूद का आयोजन। सालाना जलसा हो या 15 अगस्त, 26 जनवरी की तैयारी। भव्य आयोजन में काम करने करवाने के लिए वोलेंटियर की जरुरत हो। अपने चेंबर में बुलाती और डिस्कस करतीं। वहां पहले से कई प्रोफेसर बैठी होती थीं, हम खड़े खड़े उनका निर्देश सुनते और काम पर लग जाते। काम के प्रति जिम्मेदारियों का अहसास ललिता दी की वजह से ही हुआ, उनका भरोसा और आत्मीयता बढती जा रही थी धीरे धीरे।
सच तो यह था कि एक बार कालेज के सालान फंक्शन के लिए मेरे समेत कुछ लड़कियों का चयन हुआ था एक खास गीत गाने के लिए। हम धुन में गाते थे।
अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक के सात कवियों में से एक महत्वपूर्ण कवि मदन वात्स्यायन का गीत था...गोरी मेरी गेंहुअन सांप, महुर धर रे...। बीच की लाइन थी..लहरे गात वात मद लहरे...गोरी मेरी गेंहुअन सांप...। ठीक से पंक्तियां याद नहीं आ रही हैं। कुछ ऐसी ही थीं। स्मृतियों के सहारे लिख रही हूं। इस गीत को फिर से गाने की ललक पैदा हो रही है, क्योंकि यह गीत मुझे ललिता दी की याद दिलाता है। हमें पता चल गया था कि गीतकार ललिता दी के पति हैं। अब तक हम जानते थे कि उनके पति लक्ष्मी निवास सिंह सिंदरी में इंजीनियर हैं। वे इतने बड़े कवि हैं, ये कहां पता था। मेरे भीतर तब तक काव्य चेतना जाग चुकी थी। हिंदी साहित्य प्रिय विषय था सो कविता को अपनी समूची इंद्रियों से महसूस कर सकती थी।
मैं ललिता दी के आने का समय जान गई थी। वे समय की इतनी पाबंद थी कि वह पाबंदी मेरे भीतर आज भी है। मैं समय से पहले पहुंच सकती हूं, देर पहुंचने पर बहुत शर्मिंदगी होती है। इसलिए मैं समय से पहले स्थल पर पहुंच कर कई बार अकेले इंतजार कर सकती हूं। ललिता दी समय पर आती तो जैसे कालेज में सनसनी सी फैल जाती। मैं क्लास में बैठी रहूं तो भी पता चल जाता था कि वे आ गई हैं। क्लास का माहौल भी बदल जाता था। क्या पता, किधर धमक जाएं। पर वे धमकती नहीं थी। मैं उन्हें जाते हुए टकटकी लगाए देखा करती और उनके उज्जवल धवल रुप पर मुग्ध हो जाया करती थी।
कभी किसी से कहा नहीं, आज कह पा रही हूं कि वह गीत गुनगुनाते हुए मैंने, ललिता दी की तरफ कई बार गौर से देखा और उसके बिंबो पर गौर किया...जब वे चलती थीं तो मुझे लगता वे लहरा रही हैं...लहरे गात वात मद लहरे...जैसे कोई हवा अपने मद में लहरा रही हो। ललिता दी के चेहरे का तेज देखती तो मेरे भीतर का अंधेरा खत्म होने लगता था। शायद उनके रुप से प्रभावित होकर सौंदर्य की तुलना गेहुंमन सांप से की गई हो। रुपसी नायिका के सौंदर्य़ बखान से भरा था वह गीत। कवि जरुर ललिता दी पर मुग्ध हुए होंगे तभी इतनी सुंदर रचना सामने आई होगी। इस गीत ने मेरी चेतना में ललिता दी को मेरी प्रिंसिपल की जगह कविता की नायिका में तब्दील कर दिया था।
ललिता दी ने कभी हमें पढाया नहीं था, पर समारोहो में जब वे भाषण देतीं तो उनकी गंभीर सधी हुई संतुलित आवाज मेरे भीतर पैठ कर एक व्यक्तित्व का निर्माण करती थी। कई बार मेरा मन होता कि उनके हाथ में बस वीणा पकड़ाने की देर हैं, वे सरस्वती के फ्रेम में बिल्कुल फिट बैठेंगी। वैसी ही सफेद बार्डर वाली साड़ी और गोरा चिट्टा आकर्षक चेहरा जो उन्हें समूचे कालेज की शिक्षिकाओं के अलग ठहराता था। जब वे बोलती थीं तो हम सब गौर से सुनते थे। वे हमें आसन्न जीवन के लिए तैयार कर रही होती थीं। आज लड़कियों की शिक्षा का बहुत शोर उठता सा दिखता है। हमें अस्सी के दशक में ही ललिता दी अपने भाषणों में शिक्षित होने और कुछ नया करने की बाते करती थीं। वे हमें भविष्य के लिए तैयार करना चाहती थीं। वे जीवन का पाठ पढा रही थीं कि विपरीत हालात में भी विचलन से कैसे बचा जाए और भीड़ में कैसे भिन्न दिखा जाए। मेरा पूरा ग्रुप शरारती लड़कियों का था, पर जैसे ही ललिता दी सामने होतीं, हम ठहर से जाते थे। जैसे किसी ने तपते माथे पर ठंडे रुई का फाहा रख दिया हो। मैं जानती थी कि यहां से जाने के बाद ललिता दी से मुलाकात शायद संभव न हो। इसलिए उनकी खूब सारी बातें, यादें अपनी चेतना में दर्ज कर लेना चाहती थी। कालेज में मेरे जैसी और मुझसे ज्यादा प्रतिभावान लड़कियां थीं, ललिता दी किस किस को याद रखेंगी। हर साल नया बैच आता और जाता है। हम सब चले जाएंगे। टीचर को अपने स्टूडेंट की याद कई बार नहीं रहती।
 ललिता दी ने तो हमें पढाया भी नहीं था, वे बस इस रुप में जानती थी कि ये लड़की अति उत्साही है, जुनूनी है, कुछ भी कर देगी, करवा देगी। मेरे जैसी तो कई आएंगी, जाएंगी। क्या मैं इतनी भव्य, गरिमामयी प्रिंसीपल को कभी भूल पाऊंगी। आज भी हिंदी फिल्मों में किसी भव्य प्रिसिंपल को देखती हूं तो ललिता दी याद आती हैं और मैं गर्व से भर उठती हूं।
जब मैं दिल्ली चली आई और लंबे समय बाद जाना हुआ तो पता चला कि ललिता दी वाइस चांसलर हो गई हैं। मन हुआ, एक बार मिलूं, उन्हें बताऊं कि आपकी यह अति उत्साही छात्रा पत्रकार बन गई है। लीक से हटकर काम कर रही है। उसने वह सब हासिल कर लिया, जिसके सपने आप उसकी और उसके जैसी सैकड़ो लड़कियों की आंखों में भरा करती थीं। मैंने अलग सपने देखें, कठिन राहो पर चली, बहुत कुछ छोड़ा और अपने को खोज लिया। आप जिस स्त्री अस्मिता की बात करती थीं, उसका बोध तब नहीं हुआ था, सालो बाद जब मैंने खुद को ढूंढा पाया तो आपका पाठ याद आया। आप हमें शिक्षित ही नहीं कर रही थीं, हमें सीखा भी रही थीं। मैं संकोच में नहीं मिल पाई और कसक सी बनी रही। बाद में उनके न रहने पर कचोट ज्यादा ही बढ गई।
आज उन्हें इतने सालो बाद याद करते हुए महसूस कर रही हूं कि समंदर में मेरी आस्था किसी हरे भरे टापू की तरह तैर रही है.
मुझे वह गीत याद आ रहा है...लहरे गात वात मद लहरे..विनोदिनी दी उसका अर्थ समझा रही हैं। नायिका भेद पढाते हुए उस गीत का जिक्र कर रही हैं।


Thursday, June 20, 2013

मेरी ताजा कविताएं


कविता-1
गीताश्री
एक बेहतर सुबह के इंतजार में
कब से उस सुबह का इंतजार है,
जिसके बेहतर होने से जाती हुई सांसे लौट सकती हैं,
भय से कांपती हुई परछाई थिर हो सकती है
जख्मों से रिसता मवाद सूख सकता है खुली हवा में
वह अपनी मुठ्ठियों से आजाद कर सकता है पिछली बारिश को
उल्लास से भर कर दूध वाले से ले सकूंगी दूध का पैकेट
धोबी को दे सकूंगी अपनी पोशाकें कि वह इस्तरी करके किस्मत की सलवटें खत्म कर सके
झाड़ू पोछा वाली छमकती हुई आए तो पहली बार मुझे जंचे
कि मैं उसकी पगार उसे वक्त पर देकर उसकी मुस्कुराहट को अपने हिस्से का इनाम मान सकूं,
सब्जीवाले को किलो के भाव से आर्डर देकर मस्त हो सकूं कि चार दिन की हो गई छुट्टी,
मैं रोज उदासी से भरी अपनी बच्ची को रोज स्कूल जाते समय हाथ हिला कर बोल सकूं-हैव ए नाइस डे,
मेड के लिए परेशान श्रीमति पांडे से पूछ सकूं उनका हाल
कि जरुरी हो तो मैं भेज दूं अपनी मेड,
सोसाइटी के गेट पर फोन करके गार्ड को हड़का सकूं कि क्या तमाशा है यहां कि कोई सुनता ही नहीं हमें
जैसे इन दिनों ईश्वर नहीं सुनता हमारी आवाजें,
हम चीखते बिलबिलाते रहते हैं सांतवीं मंजिल पर टंगे हुए
कि वह खुद ही किसी दर्द में डूबा हो जैसे,
मैं एक बार फिर लौटती हूं रोज के काम से,
क्या उसे शिकंजे और संदिग्ध ठहराए जाने का दर्द मालूम है
कोख की कैद के बाद क्या उसने कोई और कैद देखी है
क्या हवा कभी पूछ कर अंदर आती होगी।
किसी को डांटते वक्त उसे कभी मलाल हुआ होगा,
क्यों वह खुद को साबित करने की प्रतियोगिता में शामिल कर देता है,
किसी बेहतर सुबह के लिए रातों को दुरुस्त करना कितना जरुरी होता है,
हर रात मेरी नींद में आकर किसी उम्मीद में दम तोड़ती है
बेहतर होने की उम्मीद में कितनी अनमनी होती जाती है जिंदगी
कि हम अपने नुकीले पंजे से भी पीछा नहीं छुड़ा पाते और जख्मी करते और होते रहते हैं निरंतर...निरंतर....
कि कभी कभी नैरंतर्य का न होना स्थगित होना कतई नहीं होता..।
कविता-2
अभी और क्या क्या होना बाकी है,
और कितने दिन ढोए जाएंगे सवाल,
कितनी बार हम नींदे करेंगे खौफ के हवाले,
सपनों को कब तक रखेंगे स्थगित,
अपनी जमीन पर कबतक कांपते खड़े रहेंगे ढहाए जाने के लिए,
कब तक बसो में चीखें कैद रहेगीं और बेरहम सड़को पर आत्माएं मंडराएंगी,
क्या कुछ देखना बाकी है अभी कि
हम दो जुबान एक साथ बोलेंगे,
और लोग समझेंगे हालात पहले से अच्छे हैं,
हम निजता को पैरो तले रौंद कर देंगे रिश्तो की दुहाई,
और छीन लेंगे उसके मनुष्य होने का पहला हक,
उसे उसकी औकात में रखने का करेंगे सारा जतन
कि दहशत का अदृश्य घेरा उसे कसे होगा,
जिन्हें वह उलांघ नहीं पाएगी कभी,
वह कटेगी अपनी ही जुबान की धार से,
वह बोलेगी-सुनो लड़कियों...अपनी आत्माओं को सिरो पर उठा कर चलो...
सारी दलीलों के वाबजूद ये दलदल तुम्हें लील जाएंगे...
ये चेतावनी ही उसका आखिरी संवाद माना जाएगा...।
कविता-3
तुम्हें याद है पिछली बार हम कब ठिठके थे अपने ही द्वार पर,
कब खोली थी सांकल अपनेअपने मन की
कब बज उठे थे कुछ शब्द घंटियो की तरह
और तुम लड़खड़ाए बिना ही धमनियों में रक्त की तरह घर में घुस आए थे,
छोड़ो, जाने दो, अपने प्रेमिल चेहरे को दीवारों पर चिपकने दो इश्तिहार की तरह
कि प्रेम का घोषणा-पत्र रोज पढना जरुरी है किसी अखबार की तरह
जहां घटनाओं की तरह खबरें दर्ज होती चलती हैं/ और हम
बांचते हैं रोज चश्मा चढाए,
मैं ये चश्मा नहीं उतारना चाहती/ कि मुझे धुंधली हुई इबारतो को फिर से तलाशना है,
मैं फिर से पढ़ना चाहती हूं वह पन्ना/ जहां छोड़ आई थी अपना करार और अपने उदास होने की वजहें,
गुत्थमगुत्था हथेलियों की झिर्री से आती हवा को आजाद करते हुए तुमने पूछा था / क्या हम फिर से पुनर्नवा हो सकते हैं,
हम फिर फिर फूलों को खिलते देखकर खुश हो सकते हैं / कि क्या तुम अब भी चूहों को बिल में घुसते देखकर तालियां बजा सकती हो,
जब चाहो कुछ दिन के लिए घर से लापता हो सकती हो,
हल्के अंधेरे में किसी शाम प्रीत विहार के फुटपाथ पर बैठकर कसाटा खा सकती हो,
बेखौफ हाथ थामकर जनवरी की धुंध में गुम होने को औपन्यासिक कथानक से जोड़ सकती हो,
मैंने चुपचाप थामा तुम्हारा हाथ और मैंने देखा / हम फिर से अपने द्वार पर खड़े थे
और घंटियों से झरते शब्दों को तुम सहेजने में जुट गए..।
कविता-4
क्या तुम सचमुच लौट आई हो मेरे पास, पिछली सदी से,
तुम्हारे पास अब भी बचा है उतना ही ताप मेरे लिए, कि मैं नहीं बचा पाया अपने हिस्से की झोली,
जिसमें कभी तुम भर भर कर देती थी अपनी हंसी सबेरे सबेरे...
डब्बे में रोज भर भर कर देती थी अपना ढेर सारी चिंताएं,
कि इन दिनों खाली झोलियां हमेशा हवा से भरी होती हैं और हंसी निष्कासित है अपने समय से।


































































Wednesday, October 31, 2012

वक्त की रोशनाई में रोमांस का चेहरा

गीताश्री
आज भी अधेड़ इश्क(वक्त) जब अंगड़ाई लेता है तो वक्त की हांफती जुबान से एक ही गाना फूटता है—अये मेरी जोहरा जबीं..तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसी.. सफेद शिफौन की साड़ी में लिपटी नायिका (चांदनी) जब अपनी इश्क का इजहार करने एल्प्स की चोटी पर लहराती है तो रोमांस की झीनी चादर सी हवाओं में तन जाती है.. जब कोई कम चुलबुली लड़की अधेड़ पुरुष के प्रेम (लम्हे) में पड़ती है तो जमाने में सनसनी सी फैल जाती है, कथित नैतिकता चिंदियां उड़ने लगती है और उम्मीदें अपनी आंखें संभावनाओं पर जोर से गड़ा देती हैं, एक नाजायज बेटा पहली बार जोर से अपने बाप को नाजायज बाप (त्रिशूल) बोलता है तो सामाजिक रिश्ते के ताने बाने नए सिरे अपनी परिभाषा खोजने लग जाते हैं..यह सबकुछ किसी एक की देन है..जिसका अभी अभी जाना हमें बेहद खल गया। जिंदगी को रुमानी नजरिए से देखने वाले फिल्मकार यश चोपड़ा की मौत किसी सपने की मौत से कम नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री को दो दो सुपर स्टार, शहंशाह (अमिताभ बच्चन) और बादशाह (शाहरुख खान) देने वाले यश चोपड़ा समाज के यथार्थ और सिनेमा की फंतासी के सबसे बड़े बुनकर थे। अपनी फिल्मों की नायिकाओं के सौंदर्य को उभारने में वह राजकपूर के साथ खड़े दिखाई देते हैं। राजकपूर ने जहां नायिकाओं के मांसल सौंदर्य को परदे पर खूबसूरती से उतारा वहीं यश चोपड़ा देह को आंतरिक सौंदर्य से जोड़ कर देखते हैं। चाहे चांदनी की श्रीदेवी हों या दिल तो पागल है की माधुरी दीक्षित, डर की जूही चावला हो या सिलसिला की रेखा, दाग की शर्मिला टैगोर हों या त्रिशूल की राखी। हिंसा और एक्शन की चाशनी में डूबा साठ और सत्तर का दशक यकायक नौ नौ चुड़ियों वाली नायिकाओं से खनक उठा। परदे से हिंसा गायब होने लगी और रोमांस का दौर लौट आया। इस युगांतकारी परिवर्तन के लिए यश चोपड़ा उस दौर के सबसे साहसी फिल्मकार माने गए। रौमांस की भी एक ब्रांड वैल्यु होती है, ये बात यश ही साबित कर सकते थे। साथ ही आउटडोर लोकेशन किसी फिल्म के लिए खास तत्व हो सकती है या कहें कि उसे रोमांस के उद्दीपक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है, इसे बताया भी उन्होंने। एक खास तबके में लोकप्रिय करवाचौथ जैसे व्रत को उन्होंने एक ब्रांड वैल्यू दी और आधुनिक औरतें भी इसके पीछे पगला गईं। 80 साल का बूढ़ा बेहद युवा प्रेम के बारे में सोचे, यह हैरानी की बात तो है। अपनी आखिरी फिल्म जब तक है जान के बाद निर्देशन से सन्यास लेते उनका बाय बाय का संदेश जीवन के प्रति विदाई का भाव था, किसी से नहीं सोचा। परदे का इश्क जीवन में उनके नाम से धड़कता रहेगा। बतौर निर्देशक टौप टेन फिल्में 1.वक्त(1965) 2.इत्तेफाक(1969) 3.दाग(1972) 4.दीवार(1975) 5.त्रिशूल(1978) 6.सिलसिला(1981) 7.चांदनी(1989) 8.लम्हे(1991) 9.डर(1993) 10.दिल तो पागल है(1997)